-अथ स्थापना-
तर्ज—ऐ माँ तेरी सूरत से अलग…
जिनवर की शरण में आये हैं, तन-मन-धन अर्पण कर देंगे।
भगवान-भगवान तेरी भक्ती के लिये, जीवन भी समर्पण कर देंगे।।टेक.।।
शुभ नगरि अयोध्या की, धनपति ने रचना की।
माता के आँगन में, रत्नों की वर्षा की।।
आदीश्वर तीर्थंकर प्रभु का, शिर नत कर वंदन कर लेंगे।।भगवान.।।
श्री ऋषभदेव का हम, आह्वानन करते हैं।
निज हृदय कमल में प्रभु, स्थापन करते हैं।।
हम सन्निधिकरण विधी करके, प्रभुपद का अर्चन कर लेंगे।।भगवान.।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदश्रीऋषभदेवतीर्थंकर! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदश्रीऋषभदेवतीर्थंकर! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदश्रीऋषभदेवतीर्थंकर! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक—शंभु छंद-
ऋषभेश सुयश सम उज्ज्वल जल, लेकर झारी भर लाये हैं।
निज समरस सुख पाने हेतू, प्रभु चरण चढ़ाने आये हैं।।
श्री ऋषभदेव के चरण कमल, हम मन वच तन से नित ध्यावें।
निज आत्मसिद्धि को पा करके, परमानंदामृत सुख पावें।।१।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
ऋषभेश गुणों सम अतिशीतल, चंदन घिस कर ले आये हैं।
निज की शीतलता पाने को, प्रभु चरण चढ़ाने आये हैं।।
श्री ऋषभदेव के चरण कमल, हम मन वच तन से नित ध्यावें।
निज आत्मसिद्धि को पा करके, परमानंदामृत सुख पावें।।२।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
ऋषभेश सौख्य सम खण्ड रहित, उज्ज्वल तंदुल ले आये हैं।
निज सुख अखण्ड पाने हेतू, प्रभु पुंज चढ़ाने आये हैं।।
श्री ऋषभदेव के चरण कमल, हम मन वच तन से नित ध्यावें।
निज आत्मसिद्धि को पा करके, परमानंदामृत सुख पावें।।३।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
ऋषभेश गुणों सम अति सुगंध, पुष्पों को चुनकर लाये हैं।
निज गुण सुगंधि पाने हेतू, प्रभु चरणों पुष्प चढ़ाये हैं।।
श्री ऋषभदेव के चरण कमल, हम मन वच तन से नित ध्यावें।
निज आत्मसिद्धि को पा करके, परमानंदामृत सुख पावें।।४।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
ऋषभेश पुष्टि सम नानाविध, पकवान बनाकर लाये हैं।
निज आत्मतृप्ति पाने हेतू, प्रभु चरण चढ़ाने आये हैं।।
श्री ऋषभदेव के चरण कमल, हम मन वच तन से नित ध्यावें।
निज आत्मसिद्धि को पा करके, परमानंदामृत सुख पावें।।५।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऋषभेश ज्ञान सम ज्योतिर्मय, कर्पूर जलाकर लाये हैं।
निज ज्ञानज्योति पाने हेतू, हम आरति करने आये हैं।।
श्री ऋषभदेव के चरण कमल, हम मन वच तन से नित ध्यावें।
निज आत्मसिद्धि को पा करके, परमानंदामृत सुख पावें।।६।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
ऋषभेश गुणों की सुरभि सदृश, वर धूप सुगंधित लाये हैं।
निज आत्मसुरभि पाने हेतू, अग्नी में धूप जलाये हैं।।
श्री ऋषभदेव के चरण कमल, हम मन वच तन से नित ध्यावें।
निज आत्मसिद्धि को पा करके, परमानंदामृत सुख पावें।।७।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
ऋषभेश सुखामृत सदृश मधुर, रस भरे बहुत फल लाये हैं।
निज मोक्ष सुफल हेतू भगवन्! फल आज चढ़ाने आये हैं।।
श्री ऋषभदेव के चरण कमल, हम मन वच तन से नित ध्यावें।
निज आत्मसिद्धि को पा करके, परमानंदामृत सुख पावें।।८।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
ऋषभेश गुणों के सम अनर्घ्य, यह अर्घ्य सजाकर लाये हैं।
वैâवल्य ‘‘ज्ञानमति’’ हेतू ही, प्रभु चरण चढ़ाने आये हैं।।
श्री ऋषभदेव के चरण कमल, हम मन वच तन से नित ध्यावें।
निज आत्मसिद्धि को पा करके, परमानंदामृत सुख पावें।।९।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-शेर छंद-
सरयू नदी का जल भरें, हम स्वर्णभृंग में।
त्रयधार दे धारा करें, प्रभु पादकमल में।।
तिहुँलोक में सुख शांति हो, यह भावना करें।
हो मन पवित्र मेरा, यह याचना करें।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
बेला वकुल गुलाब, सुरभि पुष्प चुन लिये।
प्रभु पाद पंकेरुह में, कुसुम अंजली किये।।
धन धान्य सौख्य संपदा, स्वयमेव आ मिले।
भक्ती से शक्ति हो प्रगट, शिवयुक्ति भी मिले।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
यह पुरी अयोध्या इंद्र रचित, चौदहवें कुलकर नाभिराज।
माता मरुदेवी के आँगन, बहु रत्नवृष्टि की धनदराज।।
आषाढ़ वदी दुतिया सर्वारथ, सिद्धी से अहमिंद्र देव।
माता के गर्भ बसे आकर, इंद्रों ने की पितु-मात सेव।।
ॐ ह्रीं आषाढ़कृष्णाद्वितीयायां श्रीआदिनाथजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री-ह्री-धृति आदि देवियों ने, माता की सेवा भक्ती की।
नाना विध गूढ़ प्रश्न करके, माता की अतिशय तृप्ती की।।
शुभ चैत्र वदी नवमी जन्में, प्रभु त्रिभुवन में अति हर्ष हुआ।
इन्द्रों ने आ प्रभु को लेकर, मेरू पर अतिशय न्हवन किया।।
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णानवम्यां श्रीआदिनाथजिनजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुरुदेव निलांजना नृत्य देख, वैराग्यभाव मन में लाये।
लौकांतिक सुर स्तुति करते, सुर सुदर्शना पालकि लाये।।
नक्षत्र उत्तराषाढ़ चैत वदि, नवमी प्रभु सिद्धार्थ वन में।
छह मास योग ले दीक्षा ली, मैं अर्घ्य चढ़ाऊँ प्रभु पद में।।
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णनवम्यां श्रीआदिनाथजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
छह मास योग के बाद प्रभू, मुनिचर्या बतलाने निकले।
गजपुर में अक्षयतृतिया को, आहार दिया श्रेयांस मिले।।
इक सहस वर्ष तप तपने से, केवलज्ञानी होकर चमके।
दिव्यध्वनि से जग संबोधा, फाल्गुन वदि एकादशि तिथि के।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णाएकादश्यां श्रीआदिनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बारह विध सभा बनी सुंदर, मुनि आर्या सुरनर पशुगण थे।
प्रभु समवसरण में वृषभसेन, आदिक चौरासी गणधर थे।।
तीजे युग में त्रय वर्ष सार्ध, अरु मासशेष अष्टापद से।
चौदह दिन योग निरुद्ध माघ, वदि चौदश के प्रभु मुक्ति बसे।।
ॐ ह्रीं माघकृष्णाचतुर्दश्यां श्रीआदिनाथजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य (दोहा)-
चिन्मय चिन्तामणि प्रभो! ऋषभदेव भगवान।
पूर्ण अर्घ्य लेकर जजूँ, मिले सिद्ध स्थान।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथपंचकल्याणकाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवजिनेन्द्राय नम:। (९ बार जाप्य या १०८ बार)
-दोहा-
अति अद्भुत लक्ष्मी धरें, समवसरण प्रभु आप।
तुम ध्वनि सुन भविवृंद नित, हरें सकल संताप।।१।।
-शंभु छंद-
जय ऋषभदेव जिन का वैभव, अंतर का अनुपम गुणमय है।
जो दर्शज्ञान सुख वीर्यरूप, आनन्त्य चतुष्टय गुणमय है।।
बाहर का वैभव समवसरण, जिसमें असंख्य रचना मानी।
गुरु गणधर भी वर्णन करते, थक जाते मनपर्यय ज्ञानी।।२।।
यह समवसरण की दिव्य भूमि, इक हाथ उपरि पृथ्वी तल से।
सीढ़ी से ऊपर अधर भूमि, छ्यानवे मील की गोल दिखे।।
यह भूमि कमल आकार कही, जो इन्द्रनीलमणि निर्मित है।
है गंधकुटी इस मध्य सही, जो कमल कर्णिका सदृश है।।३।।
पंकज के दल सम बाह्य भूमि, जो अनुपम शोभा धारे है।
इस समवसरण का बाह्य भाग, दर्पण तल सम रुचि धारे है।।
यह बीस हजार हाथ ऊँचा, शुभ समवसरण अतिशय शोभे।
एकेक हाथ ऊँची सीढ़ी, सब बीस हजार प्रमित शोभें।।४।।
अंधे पंगू रोगी बालक, औ वृद्ध सभी जन चढ़ जाते।
अंतर्मुहूर्त के भीतर ही, यह अतिशय जिन आगम गाते।।
इसमें शुभ चार दिशाओं में, अति विस्तृत महा वीथियाँ हैं।
वीथी में मानस्तंभ कहे, जिनकी कलधौत पीठिका हैं।।५।।
जिनवर से बारह गुणे तुंग, बारह योजन से दिखते हैं।
इनमें हैं दो हजार पहलू, स्फटिक मणी के चमके हैं।।
उनमें चारों दिश में ऊपर, सिद्धों की प्रतिमाएँ राजें।
मानस्तंभों की सीढ़ी पर, लक्ष्मी की मूर्ति अतुल राजें।।६।।
ये दूर-दूर तक गाँवों में, अपना प्रकाश पैâलाते हैं।
जो इनका दर्शन करते हैं, वे निज अभिमान गलाते हैं।।
मानस्तंभों के चारों दिश, जलपूरित स्वच्छ सरोवर हैं।
जिनमें अतिसुंदर कमल खिले, हंसादि रवों से मनहर हैं।।७।।
श्री वृषभसेन आदिक चौरासी, गणधर मुनि चौरासि सहस।
ब्राह्मी गणिनी त्रय लाख पचास, हजार आर्यिका व्रतसंयुत।।
त्रय लाख सुश्रावक पाँच लाख, श्राविका प्रभू का चउ संघ था।
आयू चौरासी लाख पूर्व, वत्सर व पाँच सौ धनु तनु था।।८।।
हे नाथ! कामना पूर्ण करो, निज चरणों में आश्रय देवो।
जब तक नहिं मुक्ति मिले मुझको, तब तक ही शरण मुझे लेवो।।
तब तक तुम चरण कमल मेरे, मन में नित सुस्थिर हो जावें।
जब तक नहिं केवल ‘ज्ञानमती’, तब तक मम वच तुम गुण गावें।।९।।
-दोहा-
नाथ! आप गुणरत्न को, गिनत न पावें पार।
तीन रत्न के हेतु मैं, नमूँ अनंतों बार।।१०।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवजिनेन्द्राय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
।।इत्याशीर्वाद:।।