–मंगलाचरण-
त्वमेकं जगतां ज्योतिस्त्वं द्विरुपोपयोगभाक्।
त्वं त्रिरूपैकमुत्त्âयंग: स्वोत्थानंतचतुष्टय:।।१।।
त्वं पंचब्रह्मतत्त्वात्मा पंचकल्याणनायक:।
षड्भेदभावतत्त्वज्ञस्त्वं सप्तनयसंग्रह:।।२।।
दिव्याष्टगुणमूर्तिस्त्वं नवकेवललब्धिक:।
दशावतारनिर्धार्यो मां पाहि परमेश्वर!१।।३।।
हे भगवन्! आप जगत् को प्रकाशित करने वाले जगज्योतिस्वरूप एक हैं, ज्ञान तथा दर्शनरूप द्विविध उपयोग के धारक होने से दो रूप हैं, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप त्रिविध मोक्षमार्गमय होने से तीन रूप हैं। अपने आप में उत्पन्न हुए अनन्त चतुष्टयरूप होने से चार रूप हैं। पंच परमेष्ठीरूप होने से अथवा गर्भादि पंचकल्याणकों के नायक होने से पाँच रूप हैं। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों के ज्ञाता होने से छह रूप हैं। नैगम आदि सात नयों के संग्रहस्वरूप होने से सात रूप हैं। सम्यत्त्व आदि आठ अलौकिक गुणरूप होने से आठ रूप हैं। नौ केवललब्धियों से सहित होने से नव रूप हैं और महाबल आदि दश अवतारों से आप का निर्धारण होता है
इसलिए आप दश रूप हैं। इस प्रकार
हे परमेश्वर! संसार के दुःखों से आप मेरी रक्षा कीजिए।
इन दश अवतारों का कथन करते हुए श्रीमज्जिनसेनाचार्य ने महापुराण में भगवान् की अग्रलिखित पद्यों से सौधर्मेंद्र के द्वारा स्तुति करायी है-
महाबल! नमस्तुभ्यं ललितांगाय ते नम:।
श्रीमते वङ्काजंघाय धर्मतीर्थप्रवर्तिने।।१।।
नम: स्तादार्य ते शुद्धि-श्रिते श्रीधर! ते नम:।
नम: सुविधये तुभ्य-मच्युतेन्द्र! नमोऽस्तु ते।।२।।
वङ्कास्तंभस्थिरांगाय, नमस्ते वङ्कानाभये।
सर्वार्थसिद्धिनाथाय, सर्वार्थां सिद्धिमीयुषे।।३।।
दशावतारचरम – परमौदारिकत्विषे।
सूनवे नाभिराजस्य, नमोऽस्तु परमेष्ठिने१।।४।।
हे नाथ! आप इस भव से दशवें भव में महाबल नाम के विद्याधर राजा थे, यह आपका ‘महाबल’ नाम का प्रथम अवतार हुआ क्योंकि उसी भव से आपने उत्थान प्रारंभ किया था अथवा आप महान् बल-अतुल्यबल के धारक हैं इसलिए आपको नमस्कार हो। आप नवमें भव पूर्व ‘ललितांग’ नाम के देव थे अथवा आप अतिशय सुन्दर-ललित अंग के धारक हैं इसलिए आपको नमस्कार हो। आठवें भव पूर्व आप वङ्काजंघ राजा थे अथवा आप वङ्का के समान मजबूत जंघाओं को धारण करने वाले एवं अंतरंग-बहिरंग लक्ष्मी से सहित, धर्मतीर्थ के प्रवर्तक हैं, अतः आपको नमस्कार हो।आप सातवें भव पूर्व भोगभूमिज आर्य थे अथवा आप ‘आर्य‘-पूज्य हैं इसलिए आपको नमस्कार हो। आप छठे भव पूर्व श्रीधर नाम के देव थे अथवा दिव्य उत्तम शोभा को धारण करने वाले होने से आपका ‘श्रीधर’ नाम सार्थक है, ऐसे आपको नमस्कार हो। आप पाँचवें भव पूर्व ‘सुविधि‘ राजा थे अथवा आप सुविधि-उत्तम भाग्यशाली हैं अतः आपको नमस्कार हो। आप चौथे भव पूर्व अच्युत नाम के सोलहवें स्वर्ग के इंद्र थे अथवा ‘अच्युतेन्द्र’ अर्थात् अविनाशी स्वामी हैं अतः आपको नमस्कार हो। आप तीसरे भव में वङ्कानाभि चक्रवर्ती थे अथवा आप वर्तमान में वङ्का के समान मजबूत नाभि को धारण करने वाले हैं अत: आप ‘वङ्कानाभि’ भगवान् को नमस्कार हो। आप इस भव से दूसरे भव पूर्व सर्वार्थसिद्धि नाम के विमान के स्वामी थे अथवा आज आप सम्पूर्ण अर्थ-मनोरथों की या सर्वप्रयोजनों की सिद्धि को प्राप्त हैं इसलिए ‘सर्वार्थसिद्धिनाथ’ आप को नमस्कार हो। हे नाथ! आप ‘दशावतारचरम’ हैं अर्थात् आप सांसारिक पर्यायों में अंतिम अथवा ऊपर कहे हुए महाबल आदि दश अवतारों में अंतिम परमौदारिक शरीर को धारण करने वाले महाराजा नाभिराज के पुत्र प्रथम तीर्थंकर श्रीऋषभदेव परमेष्ठी हुए हैं इसलिए आपको नमस्कार हो।
इन दशावतारों में क्रम से–
१. महाबल २. ललितांग देव ३. राजा वङ्काजंघ ४. भोगभूमिज आर्य ५. श्रीधरदेव ६. राजा सुविधि ७. अच्युतेन्द्र
८. चक्रवर्ती वङ्कानाभि ९. सर्वार्थसिद्धि के अहमिंद्र १०. भगवान ऋषभदेव, इन भवों को समझना चाहिए।
सौधर्मेन्द्र ने भगवान ऋषभदेव का जन्मोत्सव सुमेरु पर्वत पर करने के बाद अयोध्या में आकर जब बालक को माता-पिता को सौंप दिया था, उसके बाद वहीं पर ‘आनन्द’ नाम से बहुत ही सुन्दर नाटक किया उसी के अंतर्गत ताण्डव नृत्य किया था, उसी समय इंद्र ने भगवान के दशावतार सम्बंधी नाटक भी किया था।भगवान ऋषभदेव के यशस्वती और सुनंदा दो रानियाँ थीं। यशस्वती महारानी से भरत, ऋषभसेन आदि सौ पुत्र एवं ब्राह्मी पुत्री का जन्म हुआ। सुनंदा महारानी से बाहुबली पुत्र और सुन्दरी पुत्री का जन्म हुआ। ऐसे प्रभु ऋषभदेव के १०१ पुत्र व दो पुत्रियाँ थीं। ब्राह्मी पुत्री को अ, आ आदि लिपि एवं सुंदरी को १, २ आदि अंक विद्या से प्रारंभ करके भगवान ने अपने सभी पुत्रों एवं दोनों पुत्रियों को सम्पूर्ण विद्याओं एवं कलाओं में निष्णात किया था।
प्रजा को असि, मषि, कृषि, शिल्प, विद्या एवं वाणिज्य षट्क्रियाओं का उपदेश दिया। क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ऐसे तीन वर्णों की व्यवस्था बनाई एवं मंडलीक, महामण्डलीक आदि राजा बनकर उन्हें राजनीति का उपदेश दिया था। अनंतर प्रयाग में वटवृक्ष के नीचे जैनेश्वरी दीक्षा लेकर एक वर्ष उनतालिस दिन बाद हस्तिनापुर में प्रथम इक्षुरस का आहार प्राप्त किया था। पुन: एक हजार वर्ष बाद प्रयाग में केवलज्ञान प्राप्तकर दिव्य उपदेश दिया। भगवान के समवसरण में पुत्र ऋषभसेन प्रथम गणधर व भरत चक्रवर्ती मुख्य श्रोता थे। भगवान ने अंत में वैâलाशपर्वत से मोक्ष प्राप्त किया है।तीर्थंकर भगवान जन्म से ही भगवान कहे गये हैं। यह बात ध्यान में रखना है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव को कोटि-कोटि नमस्कार होवे।