श्री पार्श्वनाथ भगवान (टिकेटनगर के) को नमस्कार करके मैंने प्रार्थना की कि-हे भगवन्! आज मैं आपके दर्शन करके बाराबंकी आचार्यश्री देशभूषण जी महाराज के दर्शनार्थ जा रही हूँ। यद्यपि घर में यही कह दिया है कि सायंकाल में वापस आ जाऊँगी, फिर भी हे भगवन्! ‘‘अब मैं पिच्छी लेकर ही आपके श्रीचरणों के दर्शन करने आऊँ’’, यह मेरी प्रार्थना स्वीकार कीजिए और मेरी मनोकामना पूर्ण कीजिए। ‘‘आप चिन्तामणि पार्श्वनाथ हैं। मुझे चिंतित फल प्रदान कीजिए।’’ ये पवित्र तिथि थी भाद्रपद कृष्णा चतुर्थी की एवं ईसवी सन् १९५२ दिन शनिवार था।
पुनश्च-घर आकर माँ को पुन: पुन: आश्वासन देकर कि-मैं सायंकाल तक वापस आ जाऊँगी, ऐसा कहकर छोटे भाई वैâलाशचंद को साथ लेकर बाराबंकी की बस में बैठकर निकली, चूँकि पिताजी उस दिन कुछ कार्यवश त्रिलोकपुर गये हुए थे, अन्यथा वे किसी भी हालत में मुझे जाने नहीं देते अत: मौका देखकर ही मैंने माँ को समझा-बुझाकर चिंतामणि प्रभु पार्श्वनाथ के चरणों में प्रार्थना करके घर से प्रस्थान किया व प्रात: लगभग ९.३० बजे बाराबंकी पहुँच गई। पहले मंदिर में भगवान के दर्शन किए, पुन: आचार्यश्री देशभूषण जी महाराज के पास पहुँचकर दर्शन किए।
यहाँ पिता की बुआ के घर में कपूरचंद जी (बुआ के पोते) की पत्नी आईं और मैं उनके साथ चली गई। वहीं ठहरने की व्यवस्था हो गई थी। मैंने माँ को यही कहा था कि-
मैंने रत्नकरण्ड श्रावकाचार के सभी श्लोक कंठाग्र कर लिए हैं अत: आचार्यश्री के पास परीक्षा देने जा रही हूँ…….आदि।
पुन: सायंकाल में जैसे-तैसे समझाकर भाई वैâलाशचंद को वापस भेज दिया और कह दिया कि दो-तीन दिन में आकर मुझे वापस ले जाना।
ये लोग प्राय: चार दिन, आठ दिन आदि में आते रहे, मैं दिन आगे बढ़ाती रही। यहाँ पर श्रावकों द्वारा ऋषिमण्डल विधान का आयोजन हुआ, उसमें मैंने भी विधान किया पुन: दशलक्षण पर्व आ गया।
मैं दिन भर मंदिर के पास बगीचे के मंदिर में रहती थी और रात्रि में कपूरचंद जी के घर जाकर सोती थी, पुन: स्नानादि से निवृत्त हो मंदिर आ जाती थी। यहाँ बगीचे के मंदिर में गंधकुटी में चतुर्मुखी भगवान महावीर स्वामी विराजमान हैं।
मैं द्रव्यसंग्रह, धनंजयनाममाला, अमरकोश, दशभक्ति आदि स्वयं कंठाग्र-याद कर रही थी। आचार्य महाराज के पास प्रवचन आदि के समय ही जाती थी। इसी मध्य लखनऊ से एक महिला अपने युवा पुत्र की मृत्यु से दु:खीमना आकर मेरे पास रह रही थी अत: मैं अकेली नहीं थी।
यहाँ पर श्यामाबाई आदि चार महिलाएं व उनके पति पूर्णतया हमारे पक्ष में थे अत: आचार्यश्री इन महिलाओं को ‘लौकांतिक देव’ कहा करते थे।
आश्विन शुक्ला चतुर्दशी के दिन आचार्यश्री का केशलोंच था। लखनऊ, कानपुर, टिवैâतनगर आदि के बहुत ही श्रावक-श्राविका व प्रतिष्ठित श्रेष्ठीगण उपस्थित थे। मेरे माता-पिता भी सपरिवार आये थे। महमूदाबाद से हमारे मामा भी आए हुए थे।
आचार्यश्री का केशलोंच हो रहा था, इसी मध्य सामने आगे की पंक्ति में बैठी हुई मैंने भी अपने हाथों से अपने बड़े-बड़े केश उखाड़ने शुरू कर दिए।
यह दृश्य देखते ही सभा में जोरों से हंगामा शुरू हो गया…। ‘‘रोको, रोको! यह बालिका अभी बहुत छोटी है, दीक्षा की उम्र नहीं है…..। आचार्यश्री का केशलोंच पूर्ण हो गया।
उस समय किसी का साहस नहीं था, जो मेरा हाथ पकड़कर रोकते। तभी कुछ श्रावकों ने कहा-पुलिस को बुलाओ…….। माँ उस समय मूर्च्छित होकर गिर गई थीं। कुछ महिलाओं ने उन्हें संभाला था। माँ की गोद में तीन माह की बेटी मालती थी, जो गिर गई, उसे भी महिलाओं ने संभाला था।
तभी आचार्यश्री ने एक श्रावक से कहा-आप इसकी माँ के ‘मामा’ है। आप हाथ पकड़ो इसे केशलोंच से रोको। माँ के ‘मामा’ बाबूराम जी ने आगे बढ़कर मेरा हाथ पकड़कर शक्तिपूर्वक मुझे केशलोंच से रोक दिया।
‘हल्ला’ शांत हो गया और मैं बड़े मंदिर में जाकर भगवान चंद्रप्रभ की प्रतिमा के निकट बैठ गई और नियम कर लिया कि-
‘‘अब मैं व्रत ग्रहण कर व गृह त्याग कर ही भोजन ग्रहण करूँगी।’’
रात्रि में लगभग १० बजे के मध्य कुछ समाज के प्रतिष्ठित लोग आये और बोले-बेटी! अब मंदिर बंद होने का टाइम है। अत: तुम चलो, अभी घर चलो…..। तभी मेरी माँ आईं और साथ में कपूरचंद जी की धर्मपत्नी भी आईं, जिनके पास मैं दो महीने से रह रही थीं और वे मेरा हाथ पकड़कर बड़े प्रेम से अपने साथ ले गईं। मैं पहले जिस कमरे में सोती थी, वहीं माँ मेरे पास रुक गईं।
रात्रिभर मैं और माँ दोनों ही जागते रहे और संवाद चालू हुआ। माँ कहती थी-बेटी मैना! तुम्हारे ऊपर में तो मात्र आकाश है और नीचे धरती…। तुम्हारा इस छोटी सी उम्र में कौन संरक्षक है-कोई आर्यिका या ब्रह्मचारिणी भी नहीं है तुम अकेली वैâसे रहोगी। महाराज जी अकेले हैं, उनके पास तुम्हारी रक्षा वैâसे होगी ? सर्दी, गर्मी, आदि वैâसे सहन करोगी ?……
मैं कहती थी माँ! अनादि काल से संसार में यह जीव अकेला ही आया है, अकेला ही भ्रमण कर रहा है। धर्म ही मुझे शरण है, वही रक्षक है। वही मेरी रक्षा करेगा…..। ऐसे पूरी रात माँ-बेटी की चर्चा चलती रही।
चूँकि आचार्य महाराज ने कह िदया था कि जब तक माँ या पिता स्वीकृति नहीं देंगे, मैं कुछ भी व्रत नहीं दूँगा…..।
पिताजी तो मोह से विक्षिप्त होकर कहीं चले गये थे। ताऊजी व चाचाजी व और भी लोग उन्हें ढूंढने में लगे थे किन्तु उनका कोई कहीं पता नहीं चल रहा था। माँ परेशान थी…..। कहीं तुम्हारे पिता ने कुछ कर लिया, कहीं कुएं आदि में कूद गये, जान दे दी तो क्या होगा? तुम्हारा अहिंसा धर्म कहाँ रहेगा ?…. आदि।
मैंने रात्रि में लगभग ४ बजे माँ को समझाते हुए कहा कि-
यदि तुम मेरी सच्ची माता हो तो एक काम कर दो, दो लाइन लिखकर स्वीकृतिरूप में आचार्य महाराज को दे दो।
माँ तो बचपन से १३-१४ वर्ष की उम्र से ही समझ चुकी थी कि ये गृहस्थी में न फंसकर आत्मकल्याण के मार्ग में ही लगेगी, दीक्षा लेगी ही। अत: उनके हाथ में मैंने एक कागज और पेंसिल दिया, वे आंसू पोछते हुए लिखने लगीं…..
महाराज जी! आप मेरी बेटी मैना को दीक्षा दे दीजिए, ये निभा लेगी, मुझे विश्वास है मेरी स्वीकृति है…..। -माँ मोहिनी
इस प्रकार अपनी सही करके बोलीं-देखो! मैंना! आज मैं तुम्हें मोक्षमार्ग में सहयोग दे रही हूँ, मुझे ‘वचन दो’ कि एक दिन तुम भी मुझे गृह कीचड़ से निकालकर अपने पास ले लेना….। और जोर-जोरे से रोने लगीं….। मैंने उनके चरण स्पर्श करके वचन दिया।
‘‘माँ! आज तुम मुझे सहयोग दे रही हो, एक दिन मैं भी तुम्हें अवश्य ही दीक्षा दिलाऊँगी।’’
प्रात: स्नानादि आदि से निवृत्त होकर हम-माँ और बेटी आचार्यश्री के समक्ष पहुँचे। उसी समय छोटे मामा भगवानदास जी, जो वहीं ठहरे हुए थे, वे भी साथ ही पहुँच गये।
आचार्य महाराज को नमोऽस्तु करके माँ ने महाराज जी के हाथ में कागज-पत्र दिया। महाराज ने पढ़ा और प्रसन्नमना बोले-जाओ इसे नई साड़ी पहनाकर ले आवो।
इधर कुछ हल्ला का माहौल दिखा, तो आचार्यश्री बोले-
मैना! आज मैं तुम्हें आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत देकर सप्तम प्रतिमा के व्रत देता हूँ और निकट में दीक्षा भी हो जावेगी।
मामा खड़े-खड़े देखते रहे, वे स्तब्ध रह गये और कुछ नहीं समझ पाये कि क्या हो रहा है ? उसी समय माँ ने कहा-आज इसका जन्मदिन है आज यह अट्ठारह वर्ष की पूर्ण हुई है। इसके पहले मुझे ही नहीं मालूम था कि शरदपूर्णिमा का मेरा जन्मदिन है। आज मैंने अपना नया जन्म माना।
मैं व्रत ग्रहण कर एक साड़ी मात्र आर्यिका जैसी ही पहने हुए थी और माँ के साथ आकर बगीचे के मंदिर में बैठकर माला फेरने लगी।
मैं भाद्रपद कृ. ४ को घर से आई थी तब मात्र सोने के लिए रात्रि में कपूरचंद की पत्नी भाभी के साथ उनके घर जाती थी व प्रात: स्नान करके आकर दिनभर बगीचे के मंदिर में ही बैठी रहती थी। उन दिनों मैंने द्रव्यसंग्रह, दशभक्तियाँ, धनंजयनाममाला आदि अनेक विषय स्वयं पढ़कर कंठाग्र-याद कर लिए थे व अधिकतम महामंत्र की माला जपती रहती थी।
भाद्रपद, आश्विन व कार्तिक ऐसे प्राय: तीन माह का समय मेरा इस बगीचे के मंदिर में ही व्यतीत हुआ है। चातुर्मास समाप्ति के बाद-
यहाँ से आचार्यश्री का विहार लखनऊ हो गया वहाँ डालीगंज में व चारबाग के मंदिर में आचार्यश्री रहे हैं। वहीं एक कमरे में मैं व लखनऊ की एक महिला हम दोनों एक साथ रहते थे। बाराबंकी में आश्विन शु. १४ के दिन ही मेरे पिताजी मोह से अशांतमना कहीं चले गये थे।
इधर मेरे पिता जी ढाई दिन में ‘वारिनबाग’ एक छोटा सा गांव हैं, वहाँ जंगल में बैठे रोते हुए मिले थे। मेरे ताऊजी बब्बूमल जी उन्हें लेकर आये थे। वे मेरे से बोले-
बिटिया! अब टिवैâतनगर चलो, वहाँ मंदिर में ऊपर के कमरे में रहना हम तुम्हारी पढ़ाई के लिए एक विद्वान बुला देंगे। तुम घर में नहीं आना, कहीं भी निमंत्रण से भोजन कर लेना…..।
मैं उन्हें समझा-बुझाकर शांत किया करती थी। वे घर चले गये और लोगों ने बताया कि जब दश, ग्यारह बजे दुकान से भोजन करने आते हैं, तो चाबी एक तरफ पटककर जोर-जोर से रोने लगते हैं…..अरे बिटिया मैंना! अरे बिटिया मैंना! कहाँ हो….., आवो आवो…..। बड़ी मुश्किल से शांत होकर भोजन करते हैं……।
इधर सवा दो वर्ष का भाई रवीन्द्र भी मैंना की याद में रो-रोकर बीमार पड़ गया…..। यहाँ तक गाय जो अहाते में थी, उसे मैं घर में प्राय: हाथ से रोटी खिलाया करती थी। मैंने सुना कि वह भी रोया करती थी। उसके बड़े-बड़े आंसू गिरते रहते थे। पिताजी कई बार बाराबंकी आये, लखनऊ पहुँचने पर मेरे पास भी आये और कहते रहते थे…।
बिटिया मैना! चलो तुम टिवैâतनगर में मंदिर में रहना, घर में नहीं आना। बस मैं तुम्हें दिन में एक बार देख लिया करूँगा, संतोष हो जावेगा…..। माता-पिता केवल मोह में अशांत रहते थे, विरोधी नहीं थे, चूँकि वे मेरे वैराग्य, ज्ञान और सम्यक्त्व को अच्छी तरह से जानते थे।
बाराबंकी में माता-पिता ने साथ में जो बालक-बालिकाओं के साथ थी, फोटो कराया था, वह अनेक ग्रंथों में छप चुका है।
जब तक मैं बाराबंकी में रही, वहाँ दिन भर अधिक समय बगीचे के मंदिर में ही बैठती थी व रात्रि में पिताजी की बुआ के घर कपूरचंद जो बुआ के पोते थे, उनकी पत्नी के पास ही सोती थी।
बाराबंकी से वर्षायोग के बाद आचार्यश्री का विहार होकर कुछ माह लखनऊ रहे हैं पुन: राजस्थान की ओर महावीर जी क्षेत्र की वंदना के
लिए विहार हो गया। वहाँ फाल्गुन की आष्टान्हिका में मैंने पुन: दीक्षा की याचना की।
इसके पूर्व सोनागिरि तीर्थ पर भी मैं चंद्रप्रभ भगवान के सामने प्रार्थना किया करती थी-
भगवन्! मुझे शीघ्र ही दीक्षा प्राप्त हो आदि।
आचार्यश्री ने यहाँ संघपति श्रेष्ठी सीमंधर जैन से परामर्श करके चैत्र कृष्णा प्रतिपदा१ को दीक्षा का मुहूर्त निश्चित कर दिया।
यहाँ कृष्णाबाई जी के आश्रम में एक क्षुल्लिका ब्रह्ममती जी थीं, वे मेरे पास आकर रहने लगीं!
यहाँ महावीर जी के मंदिर परिसर में विशाल पांडाल में मेरी दीक्षा हो गई। आचार्यश्री ने मेरी वीरता व पुरुषार्थ से प्रभावित होकर मुझे ‘वीरमती’ नाम प्रदान किया। मेरे मनोरथ सफल हो गये, जो कि दशों वर्षों से चल रहे थे। सन् १९३४ में मेरा जन्म हुआ था।
दीक्षा के बाद ७-८ दिनों में ही वहाँ आचार्यकल्प श्री वीरसागर जी महाराज ससंघ आ गये। दर्शन करके कुछ अभूतपूर्व ही आनंद हुआ था। दोनों संघों का बहुत ही अभूतपूर्व मिलन रहा थ। एक मंच पर साथ ही बैठकर प्रवचन भी होते रहते थे। चैत्र शु. १५ का महावीर जी का बड़ा वार्षिक मेला सम्पन्न हुआ। इस बीच संघ की आर्यिकाएं इतनी छोटी उम्र में मुझे देखकर आश्चर्य के साथ बहुत ही वात्सल्य-प्रेम दर्शाती थीं। एक दिन कहने लगीं-
आचार्यसंघ अभी टिवैâतनगर होकर आया है। वहाँ भगवान नेमिनाथ को वेदी में आचार्यकल्प श्री वीरसागर जी के हाथ से विराजमान कराया है।
तुम्हारे पिता व माता बहुत रोते थे, वे कहते थे-
माताजी! आप लोग उसे संघ में रख लेना, संभाल लेना, छोटी सी बालिका है, उसका संरक्षण करना…..आदि।
उस समय मुझे क्या पता था कि ये महागुरु मुझे महाव्रत देकर मेरा ‘ज्ञानमती’ नाम रखेंगे…….।
इसके पूर्व ८ दिन बाद एक दिन मेरी माँ अपनी बहन के पुत्र-(लहरपुर के कुंजीलाल) के साथ (अशांतमना शांति की इच्छा से) यात्रा करते हुए अकेली यहाँ महावीर जी आईं। मेरे कमरे में आकर ‘इच्छामि’, कहकर जोर-जोर से रोने लगी। अरे! रे! आपने दीक्षा के समय हमें सूचना क्यों नहीं दी, हम लोग भी परिवार के जन दीक्षा देख लेते…..। वे दो तीन दिन वहाँ रहीं हैं, आहार आदि देकर कुछ चर्चा-वार्ता करके अपने भाई के साथ वापस चलीं गईं। घर में पिताजी आदि समाचार सुनकर सभी रोये व पुन: शांत होकर अपने-अपने काम में लग गये।
इधर आचार्यश्री देशभूषण महाराज के साथ मैं क्षुल्लिका ब्रह्ममती को साथ लेकर विहार करते हुए वापस लखनऊ आ गई।
यह सन् १९५३ का आचार्यश्री देशभूषण जी महाराज के साथ मेरा दीक्षित जीवन का प्रथम वर्षायोग यहीं टिवैâतनगर में हुआ है।
१. मेरे आराध्य भगवान के सामने की गई प्रतिज्ञा, प्रार्थना पूर्ण हुई। मैं पिच्छिका लेकर ही वापस आई हूँ, जो कि सन् १९५२ में भाद्रपद कृ. ४ को प्रार्थना करके गई थी, अत: ये ‘पार्श्वनाथ’ भगवान चमत्कारिक-अतिशयकारी हैं, ऐसा मैं मानती हूँ।
२. बाराबंकी में आश्विन शु. १४ को जो मैंने चंद्रप्रभ भगवान के समक्ष सत्याग्रह-प्रतिज्ञा की थी कि व्रत-गृहत्याग करके ही मैं भोजन ग्रहण करूँगी। सो यह मेरा नियम भी प्रभु की कृपा से पूर्ण हुआ अत: मैं भगवान चंद्रप्रभ को भी पूर्ण अतिशयकारी मानती हूँ।
३. महावीर जी में-अतिशय प्रसिद्ध भगवान महावीर स्वामी की छत्रछाया में मुझे पिच्छिका प्राप्त हुई-संयम निधि मिली है। अत: मैं इनके अतिशय को स्वयं अनुभव कर चुकी हूँ।
इन भगवान पार्श्वनाथ को, भगवान चंद्रप्रभ को व भगवान महावीर स्वामी को अनंत-अनंतबार नमोस्तु करते हुए प्रार्थना करती हूँ-
श्री पार्श्वजिन चंद्रप्रभ, महावीर भगवान।
नमूँ अनंतों बार तुम्हें, पाऊँ सिद्धिस्थान।।१।।