प्राकृत श्रुतभक्ति
(श्री कुन्दकुन्ददेवकृत)
सिद्धवरसासणाणं, सिद्धाणं कम्मचक्कमुक्काणं।
काऊण णमुक्कारं, भत्तीए णमामि अंगाइं।।१।।
-शंभुछंद (प्राकृत श्रुतभक्ति का पद्यानुवाद)-
जिनका वर शासन जग प्रसिद्ध, जो कर्मचक्र से रहित सिद्ध।
उनको कर नमस्कार भक्त्या, द्वादश अंगों को नमूँ नित्य१।।१।।
आचार सूत्रकृत स्थान अंग, समवाय व व्याख्याप्रज्ञप्ती।
है ज्ञातृधर्मकथनांग छठा, औ उपासकाध्ययनांग कृती।।२।।
अंत:कृत्दश औ अनुत्तरोपपाददशक है अंगज्ञान।
है प्रश्न व्याकरण विपाकसूत्र, इन ग्यारह अंगों को प्रणाम।।३।।
परिकर्म सूत्र प्रथमानुयोग, पूर्वगत चूलिका पंचविधा।
इन युत बारहवां दृष्टिवाद, है अंग उसे प्रणमूँ त्रिविधा।।४।।
उत्पादपूर्व अग्रायणीय, औ वीर्य अस्तिनास्ति प्रवाद।
ज्ञानप्रवाद सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद कर्मप्रवाद।।५।।
औ प्रत्याख्यान पूर्व विद्यानुवाद कल्याण नाम पूरब।
जो प्राणवाद किरिया विशाल, औ लोकबिंदुसार पूरब।।६।।
दश चौदह आठ अठारह औ, बारह बारह सोलह व बीस।
है तीस व पंद्रह शेष चार में, दश दश वस्तू श्रुतप्रणीत।।७।।
चौदहपूर्वों में वस्तुनाम, अधिकारों की संख्या क्रम से।
इन पूर्वों की जितनी वस्तू, उन सबको प्रणमूँ भक्ती से।।८।।
एक एक वस्तु में बीस बीस, प्राभृत माने आचार्यों ने।
वस्तू तो विषम व सम भी हैं, प्राभृत सम संख्या में माने।।९।।
चौदह पूर्वों की एक शतक, पंचानवे वस्तू होती हैं।
सब प्राभृत संख्या तीन सहस, नव सौ पूर्वों की होती हैं।।१०।।
—दोहा-
इस विध भक्ती राग से, स्तवन करूँ श्रुत शास्त्र।
जिनवर वृषभ मुझे तुरत, देवो श्रुत का लाभ।।११।।