-कुसुमलता छंद-
नंदीश्वर में पश्चिम दिश में, तेरह जिन चैत्यालय जान।
अंजनगिरि दधिमुख रतिकर पे, ऋद्धि सिद्धि कर सौख्यनिधान।।
सिद्धरूप चिद्रूप चैत्य जिन, परमानंद सुधारस दान।
त्रयशुद्धी से वंदन करके, वंदूं जिनप्रतिमा गुणखान।।१।।
-अडिल्ल छंद-
द्वीप आठवें पश्चिम दिश, अंजनगिरी।
तापे जिनगृह अतुल सौख्य संपति भरी।।
स्वयं सिद्ध१ जिनमूर्ति नमूं नित चाव से।
भवसागर से तिरूँ भक्ति की नाव से।।२।।
‘‘विजयावापी’’ मध्य दधीमुख जानिये।
दधिसम ऊपर शाश्वत जिनगृह मानिये।।
स्वयं सिद्ध जिनमूर्ति नमूं नित चाव से।
भवसागर से तिरूँ भक्ति की नाव से।।३।।
अंजन दक्षिण ‘‘वैजयंति’’ वापी कही।
बीच अचल दधिमुख पे जिनगृह सुखमही।।
स्वयं सिद्ध जिनमूर्ति नमूं नित चाव से।
भवसागर से तिरूँ भक्ति की नाव से।।४।।
अंजन पश्चिम वापि ‘‘जयंती’’ सोहती।
मधि दधिमुख पे जिनगृह से मन मोहती।।
स्वयं सिद्ध जिनमूर्ति नमूँ नित चाव से।
भवसागर से तिरूँ भक्ति की नाव से।।५।।
अंजनगिरि उत्तर, वापी ‘‘अपराजिता’’।
मधि दधिमुख पर्वत पे जिनगृह शासता।।
स्वयं सिद्ध जिनमूर्ति नमूं नित चाव से।
भवसागर से तिरूँ भक्ति की नाव से।।६।।
‘‘विजयावापी’’ रुद्रकोण१ पे रतिकरा।
तापे अकृत्रिम जिनगृह भवि मनहरा।।
स्वयं सिद्ध जिनमूर्ति नमूं नित चाव से।
भवसागर से तिरूँ भक्ति की नाव से।।७।।
‘‘विजयाद्रह’’ आग्नेय कोण रतिकर गिरी।
परमश्रेष्ठ जिनमंदिर से अनुपम सिरी।।
स्वयं सिद्ध जिनमूर्ति नमूं नित चाव से।
भवसागर से तिरूँ भक्ति की नाव से।।८।।
‘‘वैजयंतिवापी’’ के अग्नी२ कोण में।
रतिकर गिरि पर श्रीजिनवर के वेश्म में।।
स्वयं सिद्ध जिनमूर्ति नमूं नित चाव से।
भवसागर से तिरूँ भक्ति की नाव से।।९।।
‘‘वैजयंतिद्रह’’ के नैऋत में जानिये।
रतिकर नग में अकृत्रिम गृह मानिये।।
स्वयं सिद्ध जिनमूर्ति नमूं नित चाव से।
भवसागर से तिरूँ भक्ति की नाव से।।१०।।
वापी ‘‘जयंती’’ नैऋत में रतिकर कहा।
परमपूत जिनमंदिर निजसुख कर कहा।।
स्वयं सिद्ध जिनमूर्ति नमूं नित चाव से।
भवसागर से तिरूँ भक्ति की नाव से।।११।।
वापि ‘‘जयंती’’ वायवदिश रतिकर महा।
सर्वश्रेष्ठ अकृत्रिम जिनगृह दु:ख दहा।।
स्वयं सिद्ध जिनमूर्ति नमूं नित चाव से।
भवसागर से तिरूँ भक्ति की नाव से।।१२।।
‘‘अपराजिता’’ सुवापी वायव कोण में।
रतिकर पर्वत पे जिनगृह अतिरम्य में।।
स्वयं सिद्ध जिनमूर्ति नमूं नित चाव से।
भवसागर से तिरूँ भक्ति की नाव से।।१३।।
द्रह ‘‘अपराजित’’ की विदिशा ईशान है।
तापे रतिकर तप्तकनक मणिमान है।।
स्वयं सिद्ध जिनमूर्ति नमूं नित चाव से।
भवसागर से तिरूँ भक्ति की नाव से।।१४।।
नंदीश्वर पश्चिम दिश अंजनगिरि कहा।
दधिमुख रतिकर मिल तेरह पर्वत महा।।
स्वयं सिद्ध जिनमूर्ति नमूं नित चाव से।
भवसागर से तिरूँ भक्ति की नाव से।।१५।।
-दोहा-
सर्वसिद्धिप्रद जानिये, रत्नमयी जिनधाम।
स्वयंसिद्ध जिनबिंब को, नितप्रति करूँ प्रणाम।।१६।।