-दोहा-
पुण्यतीर्थ कल्याणतरु, शाश्वत श्री जिनधाम।
तेरह विध चर्या१ क्रिया२, हेतु नमूं वसु याम।।१।।
-स्रग्विणी छंद-
जै महाद्वीप अष्टम सुनंदीश्वरं।
जै दिशा चउ में बावन सु जिनमंदिरं।।
मृत्युहर सिद्ध प्रतिमा नमोस्तु तुम्हें।
जो तुम्हें वंदतें सिद्धि परणें उन्हें।।२।।
इंद्र शत भक्त परिवार सह आवते।
जैन प्रतिमा नमें शीश को नावते।।
साधुगण नित्य मन में तुम्हें ध्यावते।
अष्टमी भूमि३ को शीघ्र ही पावते।।३।।
चिच्चमत्कार चैतन्य ज्योती धरें।
शुद्ध परमात्म आनंद अमृत भरें।।
सिद्ध शाश्वत परम सौख्य पीयूष हैं।
जैन के बिंब सर्वात्म चिद्रूप हैं।।४।।
रत्न सिंहासनों पे विराजे वहाँ।
मोतियों से जड़े छत्र फिरते वहाँ।।
कांति भामंडलों की अधिक भासती।
कोटि सूरजप्रभा देख के लाजती।।५।।
वीतरागी महाशांति मुद्रा प्रभो।
पूजकों का अशुभ राग हरती विभो।।
पद्म आसन धरें पापहारी प्रभो।
नासिका अग्र पे दृष्टि धारी विभो।।६।।
स्वर्ण रत्नोंमयी मूर्तियाँ शाश्वती।
भव्य के दु:ख संताप संहारती।।
आज मैं भी यहाँ अर्चना कर रहा।
शुद्ध सम्यक्त्व का आज निर्झर बहा।।७।।
नाथ मांगूं अबे आश को पूरिये।
‘ज्ञानमति’ पूर्णकर काल को चूरिये।।
सिद्धि साम्राज्य को दे सुखी कीजिए।
आपके पास में ही बुला लीजिए।।८।।
-दोहा-
तुम गुण धागा में किये, विविधवर्णमय फूल।
स्तुतिमाला कंठ में, धरे लहें भव कूल।।९।।