-स्रग्विणी-
सिद्ध की वंदना सर्व आस्रव हरे।
वंद्य अर्हंत को पुण्य आस्रव भरें।।
सूरि पाठक सभी साधु को वंदते।
पाप आस्रव टरें दु:ख को खंडते।।१।।
मैं नमूँ मैं नमूँ पंच परमेष्ठि को।
रोक शोकादि मेरे सबे दूर हों।।
शुद्ध सम्यक्त्व हो ज्ञान ज्योती जगे।
शुद्ध चारित्र हो कर्मशत्रू भगें।।२।।
जो नमें नाथ को सर्वसंपत् भरें।
पुण्य आस्रव नमन से महादुख हरें।।
धन्य जीवन करें पुण्य लक्ष्मी वरें।
फेर संसार का परिभ्रमण परिहरें।।३।।
सांपरायीक आस्रव सदा काल में।
ये कषायों सहित हो रहा जीव में।।
ये गुणस्थान दशवें हि पर्यंत हो।
ये कषायें नशें कर्म आस्रव न हो।।४।।
केवलीनाथ ईर्यापथास्रव धरें।
वेदनीसात आवे उसी क्षण झरे।।
वे निरास्रव बनें सिद्धपद पावते।
सिद्ध वंदत मिले स्वात्मसुख शाश्वते।।५।।
—शंभुछंद—
संरंभ समारंभ आरंभ को, मन वच तन से गुणिते नव हों।
कृत कारित अनुमति से नव को, गुणिये सत्ताइस आस्रव हों।।
फिर क्रोध, मान, माया व लोभ, से गुणिते इक सौ आठ हुये।
इन पापास्रव से बच करके, पुण्यास्रव का संचय करिये।।६।।
—दोहा—
मुनिगण ही ध्यानाग्नि से, आस्रव बंध निवार।
‘ज्ञानमती’ वैâवल्य कर, पाते निज पद सार।।७।।
-शंभु छंद-
मन वचन काय त्रय योग कहे, संमरंभ समारंभ आरंभा।
कृत कारित अनुमति चउकषाय, इनको आपस में गुणितांता।।
सब इक सौ आठ भेद होते, जो ‘क्रोध करे’ मन संरंभ से।
इस रहित अर्हत्प्रभु को वंदूं, मेरा मन क्रोध सभी विनशे।।१।।
जो पर से मन संरंभ क्रोध, करवाता’ कर्मास्रव करता।
इनसे विरहित अर्हंतों की, भक्ती से पापास्रव टलता।।
परमानंदामृत के इच्छुक, योगी भी जिन को ध्याते हैं।
उन अर्हंतों का वंदन कर, दुख दारिद्र दूर भगाते हैं।।२।।
मन से संरंभ क्रोधपूर्वक, उसका ‘अनुमोदन’ जो करते।
उनके पापास्रव होते हैं, प्रभु वंदन से ही टल सकते।।
परमानंदामृत के इच्छुक, योगी भी जिन को ध्याते हैं।
उन अर्हंतों का वंदन कर, दुख दारिद्र दूर भगाते हैं।।३।।
जो क्रोधित मन से ‘समारंभ, करके’ पापास्रव करते हैं।
प्रभु सिद्धों के गुण गाते ही, सब अशुभ कर्म भी झड़ते हैं।।
परमानंदामृत के इच्छुक, योगी भी जिन को ध्याते हैं।
उन अर्हंतों का वंदन कर, दुख दारिद्र दूर भगाते हैं।।४।।
जो क्रोधित मन से ‘समारंभ, करवाते’ पापास्रव करते।
प्रभु भक्ती से वे बंधे कर्म, फल दिये बिना भी झड़ सकते।।
परमानंदामृत के इच्छुक, योगी भी जिन को ध्याते हैं।
उन अर्हंतों का वंदन कर, दुख दारिद्र दूर भगाते हैं।।५।।
जो क्रोधित मन से ‘समारंभ, करने वाले को अनुमति’ दें।
उनके जो कर्म बंधे वे भी, जिन भक्ती से फल नहिं भी दें।।
परमानंदामृत के इच्छुक, योगी भी जिन को ध्याते हैं।
उन अर्हंतों का वंदन कर, दुख दारिद्र दूर भगाते हैं।।६।।
क्रोधित मन से ‘आरंभ करें’, मनकृत आरंभ क्रोधधारी।
ये कर्मबंध भव भव दुखप्रद, इन कर्मों से ही संसारी।।
परमानंदामृत के इच्छुक, योगी भी जिन को ध्याते हैं।
उन अर्हंतों का वंदन कर, दुख दारिद्र दूर भगाते हैं।।७।।
क्रोधित मन से ‘आरंभ करे, उसको जो प्रेरित’ करते हैं।
वे पाप बंध कर जन्म मरण, दु:खों को भरते रहते हैं।।
परमानंदामृत के इच्छुक, योगी भी जिन को ध्याते हैं।
उन अर्हंतों का वंदन कर, दुख दारिद्र दूर भगाते हैं।।८।।
क्रोधित मन हो ‘आरंभ करे, उसको जो अनुमति’ देते हैं।
वे गर्भवास के दु:ख सहें, नाना संकट भर लेते हैं।।
परमानंदामृत के इच्छुक, योगी भी जिन को ध्याते हैं।
उन अर्हंतों का वंदन कर, दुख दारिद्र दूर भगाते हैं।।९।।
-चौपाई छंद-
‘मान करे मन से’ संरंभ। पाप कर्म का करता बंध।।
इनसे रहित अर्हत् भगवान। नमूँ परम आनंद निधान।।१०।।
मान सहित जो मन संरंभ। उसे कराके कर्म निबंध।।
इनसे रहित अर्हत् भगवान। नमूँ परम आनंद निधान।।११।।
मानसंरंभ मानयुत कहा। अनुमति देकर हर्षित रहा।।
इनसे रहित अर्हत् भगवान। नमूँ परम आनंद निधान।।१२।।
मानसहित मन का व्यापार। समारंभ यह दुख दातार।।
इनसे रहित अर्हत् भगवान। नमूँ परम आनंद निधान।।१३।।
मानसहित मन का व्यापार। करवाता जो मूढ़ अपार।।
इनसे रहित अर्हत् भगवान। नमूँ परम आनंद निधान।।१४।।
समारंभ जो मान समेत। अनुमोदें आतमदुख हेत।।
इनसे रहित अर्हत् भगवान। नमूँ परम आनंद निधान।।१५।।
मान सहित मन से आरंभ। कार्य करे जो दुख का फंद।।
इनसे रहित अर्हत् भगवान। नमूँ परम आनंद निधान।।१६।।
मान सहित मन से आरंभ। करवाते वे पाप प्रबंध।।
इनसे रहित अर्हत् भगवान। नमूँ परम आनंद निधान।।१७।।
मान सहित मन से आरंभ। अनुमति दे हो आस्रव बंध।।
इनसे रहित अर्हत् भगवान। नमूँ परम आनंद निधान।।१८।।
-पद्धड़ी छंद-
माया युत मन संरंभ जान। तिर्यंच गती का है निदान।।
इनसे विरहित अर्हंत देव। मैं नमूँ करूँ तुम चरण सेव।।१९।।
मायायुत मन संरंभ होय। जो करवाते नित मुदित होय।।
इनसे विरहित अर्हंत देव। मैं नमूँ करूँ तुम चरण सेव।।२०।।
मायायुतमन संरंभ लीन। अनुमति देते वे सौख्य हीन।।
इनसे विरहित अर्हंत देव। मैं नमूँ करूँ तुम चरण सेव।।२१।।
मायायुत मन का समारंभ। जो स्वयं करें वे भव भ्रमंत।।
इनसे विरहित अर्हंत देव। मैं नमूँ करूँ तुम चरण सेव।।२२।।
माया से मन का समारंभ। जो करवाते वे करें बंध।।
इनसे विरहित श्री अर्हंत देव। मैं नमूँ करूँ तुम चरण सेव।।२३।।
माया से मन का समारंभ। जो पर को अनुमति दे अनंद।।
इनसे विरहित अर्हंत देव। मैं नमूँ करूँ तुम चरण सेव।।२४।।
मायायुत मन आरंभ लीन। जो स्वयं करें वे स्वात्महीन।।
इनसे विरहित अर्हंत देव। मैं नमूँ करूँ तुम चरण सेव।।२५।।
मायायुत मन आरंभ लीन। करवाते जो वे सौख्यहीन।।
इनसे विरहित अर्हंत देव। मैं नमूँ करूँ तुम चरण सेव।।२६।।
मायायुत मन आरंभ होय। उसको अनुमति दे बंध होय।।
इनसे विरहित अर्हंत देव। मैं नमूँ करूँ तुम चरण सेव।।२७।।
-दोहा-
परम अतीन्द्रिय ज्ञानसुख, वीर्य दर्श गुणवान्।
आस्रव रहित जिनेन्द्र को, नमूँ नमूँ सुखदान।।१।।
लोभ सहित मन से करें, जो संरंभ महान।
पाप बंधे इनसे रहित, नमूँ अर्हत् भगवान।।२८।।
लोभचित्त संरंभ को, जो करवाते जीव।
पाप बंधे इनसे रहित, नमूँ अर्हत् सुख नींव।।२९।।
अनुमोदें जो लोभ युत, मन संरंभ करंत।
इन विरहित अर्हंत को, नमत मिले भव अंत।।३०।।
लोभ सहित मन से करें, समारंभ जो जीव।
पापास्रव करते सतत, नमतें हों दुख छीव।।३१।।
लोभ सहित मन से करें, समारंभ नरवृंद।
करवाते वे मूढ़जन, नमूँ अर्हत् सुखकंद।।३२।।
लोभसहित मन से करें, समारंभ जो कोय।
अनुमोदें उनसे रहित, नमूँ अर्हत् सुख होय।।३३।।
लोभचित्त आरंभ जो, करें पाप में लीन।
उन विरहित अर्हंत को, नमूँ स्वात्म सुख लीन।।३४।।
लोभचित्त आरंभयुत, करवाते जो पाप।
उन विरहित अर्हंत को, नमत बनूँ निष्पाप।।३५।।
लोभ चित्त आरंभयुत, अनुमोदें जो नित्य।
कर्म बांधते उन रहित, नमूँ अर्हद् गुण नित्य।।३६।।
-स्रग्विणी छंद-
क्रोध में वाक्य से कार्य की भूमिका।
नाम संरंभ है जो करें सर्वदा।।
पाप को बांधते चारगति में भ्रमें।
आपने नाशिया भक्ति से हम नमें।।३७।।
क्रोध में वचन से जो कराते सदा।
नाम संरंभ है कार्य की भूमिका।।
कर्म आते इन्हें आपने नाशिया।
मैं नमूँ भक्ति से ज्ञान सम्यक् किया।।३८।।
क्रोध से वचन संरंभ में अनुमती।
सर्व प्राणी इसी से लहें दुर्गती।।
आपने नाश के पाई पंचमगती।
मैं नमूँ मैं नमूँ पाऊं सम्यक्मती।।३९।।
क्रोध से वच समारंभ जो आचरें।
कार्य को सर्व वस्तू इकट्ठी करें।।
ये समारंभ कर्मारि का मित्र है।
आपने नाशिया आप ही शर्ण हैं।।४०।।
क्रोध में वचन से जो समारंभ हो।
जो करावें इसे कर्म बांधें अहो।।
आप ही नाथ हो आज रक्षा करो।
भक्ति से नित नमूँ मम सुरक्षा करो।।४१।।
क्रोध से वचन व्यापार में अनुमती।
जो करें सो भ्रमें तीन जग में दुखी।।
आप जगवंद्य हो नाथ! रक्षा करो।
मैं नमूँ भक्ति से मम सुरक्षा करो।।४२।।
क्रोध में वचन से कार्य को आरभे।
नाम आरंभ कृत कर्म को बांधते।।
आप आरंभ को त्याग परमातमा।
मैं नमूँ आपको होऊं शुद्धातमा।।४३।।
कार्य आरंभते को करे प्रेरणा।
क्रोध से वचन से पाप बांधे घना।।
जो तजे दोष को वे हि शुद्धातमा।
मैं नमूँ प्राप्त कर लूँ स्व परमातमा।।४४।।
कार्य आरंभते को अनूमोदते।
क्रोध में वचन से कर्म को बांधते।।
आप प्रभु घातिया कर्म से शून्य हो।
मैं नमूँ कर्मवैरी स्वयं चूर होें।।४५।।
मानकृत वचन संरंभ से पाप हो।
सो जगत में भ्रमें दु:ख संताप हो।।
सर्व संरंभ से मुक्त परमात्मा।
मैं नमूँ साम्यपीयूष पीऊं यहाँ।।४६।।
मान से वचन से कार्य की भूमिका।
जो कराता सभी लोक में घूमता।।
आपने नाश के स्वात्मसंपद लिया।
मैं नमूँ आपको शुद्ध सम्यक् लिया।।४७।।
मान से वचन से कार्य संरंभ में।
जो अनूमोदता दु:ख भोगें भ्रमें।।
आप सिद्धातमा मैं नमूँ भक्ति से।
ज्ञानज्योती मिले स्वात्मसंपत्ति से।।४८।।
मान से वचन से जो समारंभ हो।
कार्य हेतू सभी वस्तु एकत्र हो।।
नाश के सिद्ध भगवान होते यहाँ।
मैं नमूँ स्वात्म पीयूष पीऊं यहाँ।।४९।।
जो कराते समारंभ नित मान से।
वाक्य से प्रेरते जीव दुख पावते।।
मुक्त आत्मा सभी कर्म से दूर हैं।
मैं नमूँ सौख्य पाऊँ जो भरपूर है।।५०।।
जो समारंभ करते वचन मान से।
दें अनूमोदना कर्म को बांधते।।
मुक्त सर्वज्ञ को मैं नमूँ भाव से।
भेद विज्ञान पाऊं निजी चाव से।।५१।।
मान से वचन से कार्य जो आरभें।
नित्य आरंभ से जीव हिंसा करें।।
आपने सर्व आरंभ परिग्रह तजा।
मैं नमूँ भक्ति से प्राप्त हो मुक्तिजा।।५२।।
मान से वचन से कार्य आरंभ में।
जो करें प्रेरणा कर्म बांधें घने।।
मुक्ति हेतू धरा ध्यान मैं नित नमूँ।
रोग शोकादि दारिद्र से छूटहूँ।।५३।।
कार्य आरंभते को करे अनुमती।
मान में वाक्य से वे धरें दुर्गती।।
आपको वंदते सर्व संकट टलें।
मैं स्वयं मैं स्वयं आन संपत् मिलें।।५४।।
-दोहा-
पंचमगति के हेतु मैं, नमन करूँ पंचांग।
परमानंद अमृत अतुल, सौख्य भरो सर्वांग।।१।।
-शेरछंद-
माया से वचन से स्वयं संरंभ जो करें।
जो कार्य को करने में भूमिका को विस्तरें।।
ये पापहेतु लाखों योनियों में भ्रमावें।
जो नाथ की स्तुति करें निज संपदा पावें।।५५।।
जो छद्म से वच से सदा संरंभ कराते।
वे भी करम से सर्व जग में निज को भ्रमाते।।
अर्हंत के गुणों की वंदना प्रधान है।
जो वंदते वे भी बनें जग में महान हैं।।५६।।
माया सहित वचन से जो संरंभ को करें।
उनकी करें अनुमोदना वे पाप को भरें।।
जिनवर की वंदना से सर्व दु:ख दूर हों।
निज आत्म की अनुभूति से पीयूष पूर हो।।५७।।
माया से वचन से जो समारंभ को करें।
चौरासी लाख योनियों में जन्म वे धरें।।
यदि जन्मसिंधु से तुम्हें तिरने की है इच्छा।
जिनवर की वंदना करो मानो गुरु शिक्षा।।५८।।
माया से वाक्य से जो समारंभ कराते।
चारों गती के दुख जलधि में निज को डुबाते।।
ये भूत प्रेत डाकिनी शाकिनि पिशाचिनी।
सब दूर हों जिनभक्ति से बाधाएं भी घनी।।५९।।
माया से वचन से जो समारंभ को करें।
अनुमोदते उन्हें वे पशू योनि को धरें।।
जो इनसे मुक्त हो चुके त्रिभुवन ललाम हैं।
उनको अनंत बार ही मेरा प्रणाम है।।६०।।
जो छद्म से वचन से आरंभ नित करें।
ये कार्य को प्रारंभ करते हर्ष मन धरें।।
इनके अशुभ प्रकृती बंधे दुर्गति में जा पड़ें।
जो इनसे मुक्त उन प्रभू के चरण हम पड़ें।।६१।।
माया से वचन से सदा आरंभ कराते।
वे निज को और पर को तीन जग में भ्रमाते।।
जो इनसे मुक्त हैं उन्हों की वंदना करूँ।
निर्मूल हो माया कषाय, प्रार्थना करूँ।।६२।।
आरंभ में अनुमोदना माया से वचन से।
तब कर्मशत्रु आवते रोके नहीं रुकते।।
इनसे विमुक्त समवसरण कमल पे रहें।
माया को जो तजें स्वयं ऊरधगती लहें।।६३।।
जो लोभ से वच से सदा संरंभ को करें।
वे आत्मशुद्धि ना करें जग में भ्रमण करें।।
प्रभु आपने इसको तजा निजधाम पा लिया।
मैं दुख से घबरा के आपकी शरण लिया।।६४।।
जो लोभ से वच से सदा संरंभ कराते।
वे भावशुद्धि के बिना निर्धन सदा रहते।।
इसको तजे से तीन लोक संपदा मिली।
मैं भी तुम्हें वंदूं समस्त आपदा टलीं।।६५।।
संरंभ लोभ से वचन से उसमें अनुमती।
ये बुद्धि सबमें काल अनादी से ही रहती।।
प्रभु इनसे मुक्त आपके गुणों की वंदना।
जो भक्त हैं वे कर सकेंगे यम की तर्जना।।६६।।
वच से व लोभ से जो समारंभ कर रहे।
वे मोहनीय कर्मबंध दृढ़ ही कर रहे।।
इनसे विमुक्त आप पाद वंदना भली।
प्रभु भक्त के मन कंज की कलियाँ तुरत खिलीं।।६७।।
जो लोभ से वचन से समारंभ कराते।
वे भेदज्ञान शून्य हैं निज शुद्धि न पाते।।
इनसे विमुक्त नाथ की जो वंदना करें।
वे सब कषाय शत्रुओं की खंडना करें।।६८।।
वच लोभ से जो समारंभ उसमें अनुमती।
वे तनु की व्याधियों से दुखी जग में दुर्मती।।
इनसे विमुक्त नाथ के गुणों की वंदना।
संसारवार्धि से तिरूँ हो दु:ख रंच ना।।६९।।
जो लोभ से वचन से भी आरंभ कर रहे।
वे छह निकाय जीव की हिंसा ही कर रहे।।
इनसे विमुक्त तीर्थनाथ की महाभक्ती।
ये सर्वसौख्यकारिणी इस सम नहीं कुछ भी।।७०।।
जो लोभ में वचन से भी आरंभ कराते।
वे पापपुंज बांधते निज ज्ञान न पाते।।
इनसे विमुक्त तीर्थपती की उपासना।
जो कर रहे वे पायेंगे शिवपथ की साधना।।७१।।
आरंभ लोभ से वचन से उसमें अनुमती।
परिग्रह से ही आरंभ उससे होवे दुर्गती।।
इनसे विमुक्त नाथ की मैं वंदना करूँ।
संपूर्ण दु:ख से बचूँ सिध्यंगना वरूँ।।७२।।
-नरेन्द्र छंद-
क्रोध सहित तन से कार्यों की, बने रूपरेखा जो।
सो संरंभ कहाता श्रुत में, इनसे मुक्त हुये जो।।
उन अर्हंतों के चरणों में, नित प्रति शीश नमाऊँ।
गर्भवास के दु:ख मिटाकर, निज समरस सुख पाऊँ।।७३।।
क्रोध सहित तन से कार्यों को, करवाने की रुचि से।
पाप कमाते सब संसारी, पंच परावृत करते।।
इनसे मुक्त हुये जिनवर को, कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों, सर्व कषाय शमन हों।।७४।।
क्रोध सहित तन से कुछ करना, करे भूमिका कोई।
अनुमति देकर पाप बढ़ाते, महामूढ़ जन सो ही।।
इनसे मुक्त हुये जिनवर को, कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों, सर्व कषाय शमन हों।।७५।।
क्रोध सहित तन से कार्यों की, सामग्री को जोड़े।
समारंभ यह नरक निगोदों, में ले जाकर छोड़े।।
इनसे मुक्त हुये जिनवर को, कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों, सर्व कषाय शमन हों।।७६।।
कार्य हेतु पर से सामग्री, एकत्रित करवाता।
क्रोध करे तन से जो फिर भी, नहीं किसी से नाता।।
इनसे मुक्त हुये जिनवर को, कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों, सर्व कषाय शमन हों।।७७।।
क्रोध सहित तन से जो करते, समारंभ दे अनुमति।
बिना हेतु ये पाप उपार्जे, नहीं मिली है सन्मति।।
इनसे मुक्त हुये जिनवर को, कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों, सर्व कषाय शमन हों।।७८।।
क्रोध सहित तन से आरंभे, पाँच पाप आदिक जो।
पाँच परावर्तन कर करके, जग में भ्रमण करें वो।।
इनसे मुक्त हुये जिनवर को, कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों, सर्व कषाय शमन हों।।७९।।
क्रोध करावे काय क्रिया से, बहु आरंभ कराता।
तन की व्याधि करोड़ों भोगे, कभी न पावे साता।।
इनसे मुक्त हुये जिनवर को, कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों, सर्व कषाय शमन हों।।८०।।
क्रोध सहित काया से अनुमति, देता आरंभी को।
नाना काय धरे मर मर कर, भव भव में दु:खी हो।।
इनसे मुक्त हुये जिनवर को, कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों, सर्व कषाय शमन हों।।८१।।
मान सहित काया से जो, संरंभ करे नित रुचि से।
नीच गोत्र में जन्म धरे फिर, दु:ख सहे नित तन से।।
इनसे विरहित अर्हंतों को, कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों, सर्व कषाय शमन हों।।८२।।
मान सहित काया से कराता, जो संरंभ सदा ही।
देवगती में भी यदि जन्में, कुत्सित गती धरे ही।।
इनसे विरहित अर्हंतों को, कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों, सर्व कषाय शमन हों।।८३।।
मान से काया से संरंभे, उसको अनुमति देवे।
पाप पुण्य का आस्रव करके, दु:ख निकट कर लेवे।।
इनसे विरहित अर्हंतों को, कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों, सर्व कषाय शमन हों।।८४।।
मद से तन से समारंभ कर, कर्मों को नित बांधे।
मानस शारीरिक आगंतुक, सभी दु:खों को साधे।।
इनसे विरहित अर्हंतों को, कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों, सर्व कषाय शमन हों।।८५।।
मद से तन से समारंभ, जो सदा कराता रहता।
इहभव में परभव में भी तो, दुख संकट बहु सहता।।
इनसे विरहित अर्हंतों को, कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों, सर्व कषाय शमन हों।।८६।।
मान से तन से समारंभ, करते को अनुमति देवे।
जन्म मरण के दुख सह-सहकर, बीज पाप का बोवे।।
इनसे विरहित अर्हंतों को, कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों, सर्व कषाय शमन हों।।८७।।
मान सहित तन से कार्यों को, आरंभे भव भव में।
संस्कारों से तनु धर-धर कर, भ्रमण करे चहुंगति में।।
इनसे विरहित अर्हंतों को, कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों, सर्व कषाय शमन हों।।८८।।
मद से तन से सदा कराता, पर से आरंभों को।
कुगुरु कुशास्त्रों की शिक्षा से, कुत्सित बुद्धि धरे जो।।
इनसे विरहित अर्हंतों को, कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों, सर्व कषाय शमन हों।।८९।।
मद से काया से आरंभित, कार्यों को अनुमोदे।
नाना कर्मों को नित बांधे, निज पर को भी दुख दे।।
इनसे विरहित अर्हंतों को, कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों, सर्व कषाय शमन हों।।९०।।
-गीता छंद-
माया से तनु से जो सदा, संरंभ करते प्रेम से।
वे कर्मबंधन से बंधे, बहु दु:ख सहते देह से।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की, जो सदा संस्तुति करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से, छूटें न फिर काया धरें।।९१।।
माया से तनु से जो कराते, हैं सदा संरंभ को।
तिर्यंच योनी में पड़ें वहाँ, कष्ट दु:ख असंख्य हो।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की, जो सदा संस्तुति करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से, छूटें न फिर काया धरें।।९२।।
जो छद्म से तन से करें, संरंभ उसमें अनुमती।
वे मूढ़ भेदविज्ञान बिना, नहिं पा सकेंगे सद्गती।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की, जो सदा संस्तुति करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से, छूटें न फिर काया धरें।।९३।।
माया निमित तन से समारंभे इकट्ठी वस्तु हों।
सम्यक्त्व बिन समता नहीं, पाते उठाते दु:ख को।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की, जो सदा संस्तुति करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से, छूटें न फिर काया धरें।।९४।।
माया से तनु से समारंभों, को कराते प्रेम से।
चारित्र बिन संसार में, दु:ख भोगते हैं देह से।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की, जो सदा संस्तुति करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से, छूटें न फिर काया धरें।।९५।।
तनु से समारंभें उन्हें, माया व तनु से अनुमती।
तप बिना कर्मास्रव न सूखें, फिर धरें तिर्यग्गती।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की, जो सदा संस्तुति करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से, छूटें न फिर काया धरें।।९६।।
माया धरें तन से करें, आरंभ जो भव मूल है।
जिन भक्ति बिन भव में भ्रमें, पावें न वो भव कूल है।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की, जो सदा संस्तुति करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से, छूटें न फिर काया धरें।।९७।।
माया सहित तनु से कराते, बहुत ही आरंभ जो।
जिनशास्त्र के स्वाध्याय बिन, साता न पाते रंच वो।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की, जो सदा संस्तुति करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से, छूटें न फिर काया धरें।।९८।।
मायासहित तनु से करें, आरंभ उसमें अनुमती।
दिग्वस्त्र गुरु की भक्ति बिन, मिलती नहीं है शुभ मती।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की, जो सदा संस्तुति करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से, छूटें न फिर काया धरें।।९९।।
जो लोभ से तनु से करें, संरंभ चहुँगति में भ्रमें।
नित करें खोटे देव की, भक्ती न जिनवच में रमें।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की, जो सदा संस्तुति करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से, छूटें न फिर काया धरें।।१००।।
जो लोभ वश तनु से कराते, अन्य से संरंभ को।
जिनदेव की भक्ती बिना, पाते न सुख के मर्म को।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की, जो सदा संस्तुति करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से, छूटें न फिर काया धरें।।१०१।।
संरंभ करते देख अनुमति, दें तनू से लोभ से।
संसार में रुलते रहें नहिं, छूटते भव रोग से।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की, जो सदा संस्तुति करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से, छूटें न फिर काया धरें।।१०२।।
जो लोभवश तन की क्रिया से, समारंभी हो रहे।
जिनधर्म बिन खोटे गुरू के, वचन से भव दु:ख सहें।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की, जो सदा संस्तुति करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से, छूटें न फिर काया धरें।।१०३।।
जो समारंभी लोभवश, तनु से करें पर प्रेरणा।
उनके चतुर्गति भ्रमण में निज, आत्म सुख का लेश ना।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की, जो सदा संस्तुति करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से, छूटें न फिर काया धरें।।१०४।।
अनुमोदते जो लोभवश, तनु से समारंभी जना।
वे मोक्षपथ के बिना व्यंतर, योनि में दुख लें घना।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की, जो सदा संस्तुति करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से, छूटें न फिर काया धरें।।१०५।।
जो लोभ से तनु से करें, आरंभ बहुविध प्रेम से।
नरकायु बांधें सागरों तक, दु:ख भोगें नर्क के।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की, जो सदा संस्तुति करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से, छूटें न फिर काया धरें।।१०६।।
जो लोभवश तनु से कराते, अन्य से आरंभ को।
वे भी निगोदों के दुखों को, सहें पापारंभ सों।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की, जो सदा संस्तुति करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से, छूटें न फिर काया धरें।।१०७।।
आरंभ करते देख तनु से, लोभवश अनुमति करें।
वे भी कुमानुषयोनि में, चिरकाल तक बहु दुख भरें।।
आस्रव रहित अर्हंतप्रभु की, जो सदा संस्तुति करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से, छूटें न फिर काया धरें।।१०८।।
-दोहा-
धर्मतीर्थ के नाथ तुम, धर्म चक्रधर धीर।
‘ज्ञानमती’ वैâवल्य हो, नमत मिले भव तीर।।१०९।।