(श्री गौतमस्वामीकृत-निषीधिकादण्डक तथा चैत्यभक्ति से)
उड्ढमहतिरियलोए सिद्धायदणाणि णमंसामि, सिद्धणिसीहियाओ अट्ठावयपव्वए सम्मेदे उज्जंते चंपाए पावाए मज्झिमाए हत्थिवालियसहाए जावो अण्णाओ काओवि णिसीहियाओ जीवलोयम्मि।
ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक में जितने भी सिद्धायतन जिनमंदिर हैं तथा इस मनुष्यलोक में अष्टापद पर्वत, सम्मेदशिखर, ऊर्जयंत-गिरनार, चंपापुरी, पावापुरी आदि जितने भी तीर्थंकर आदि भगवन्तों के जन्म, निर्वाण आदि क्षेत्र हैं, उन सबको मैं नमस्कार करता हूँ।
यावन्ति सन्ति लोकेऽस्मिन्नकृतानि कृतानि च। तानि सर्वाणि चैत्यानि, वंदे भूयांसि भूतये१।।१८।।
इस जग में जितनी प्रतिमा हैं, कृत्रिम अकृत्रिम सबको।
मैं वंदूँ शिववैभव हेतू, सब जिनचैत्य जिनालय को।।१८।।