हे नाथ! अनंत गुणाकर तुम, साकेतपुरी में जन्म लिया।
जयश्यामा माँ सिंहसेन पिता, ने कीर्तिध्वजा को लहराया।।
कार्तिक वदि एकम गर्भ बसे, वदि ज्येष्ठ दुवादशि जन्मे थे।
इस ही तिथि में दीक्षा लेकर, तप तपते वन वन घूमे थे।।१।।
चैत्री मावस में ज्ञानोत्सव, इस ही तिथि में प्रभु सिद्ध हुए।
दो सौ कर देह कनक कांति, प्रभु तीस लाख वत्सर१ थिति२ है।।
सेही लांछनयुत अंतकहर! हे देव अनंत! तुम्हें प्रणमूँ।
यह सब व्यवहार स्तुति भगवन्! निश्चय से गुण-गण को हि नमूँ।।२।।
यद्यपि ये कर्म अनादी से, मेरे संग बँधते आये हैं।
फिर भी अणुमात्र नहीं मुझमें, परिवर्तन करने पाये हैं।।
मैं सब प्रदेश में ज्ञानमयी, जड़कर्मों से क्या नाता है?
मैं हूँ चैतन्य अनंत गुणी, जड़ ही जड़ के निर्माता हैं।।३।।
यह निश्चयनय जब निश्चय से, ध्यानस्थ अवस्था पाता है।
तब कर्मों का कर्त्ता भोक्ता, नहिं होता बंध नशाता है।।
भगवन् ! तव चरण कमल सेवा, करते-करते यह फल पाऊँ।
अनुपम अनंत गुण के सागर, ‘वैâवल्यज्ञानमति’ पा जाऊँ।।४।।