अथ स्थापना—नरेन्द्र छंद
चैत्य प्रासाद नाम भू पहली, धूलिसाल अभ्यंतर।
पाँच पाँच प्रासाद एक इक, जिनमंदिर के अंतर।।
तीर्थंकर ऊँचाई से ये, बारह गुणिते ऊँचे।
जिनमंदिर जिन प्रतिमाओं को, आह्वानन कर पूजें।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितचैत्यप्रासादभूमिसंबंधिजिन-मंदिरजिनप्रतिमासमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रींचतुर्विंशतितीर्थंकररसमवसरणस्थितचैत्यप्रासादभूमिसंबंधिजिन-मंदिरजिनप्रतिमासमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितचैत्यप्रासादभूमिसंबंधिजिन-मंदिरजिनप्रतिमासमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टक—भुजंगप्रयात छंद
पयोराशि को नीर निर्मल भराके।
करूँ धार जिनपाद भक्ती बढ़ाके।।
जजूँ जैनमंदिर भवातापहारी।
नमूँ जैनप्रतिमा सदा सौख्यकारी।।१।।
ॐ ह्रीं चैत्यप्रासादभूमिसंबंधिजिनमंदिरजिनप्रतिमाभ्यो जलं निर्वपामीति स्वाहा।
घिसा गंध केशर लिया पात्र में है।
चरण चर्चते नाथ के सौख्य हो है।।
जजूँ जैनमंदिर भवातापहारी।
नमूँ जैनप्रतिमा सदा सौख्यकारी।।२।।
ॐ ह्रीं चैत्यप्रासादभूमिसंबंधिजिनमंदिरजिनप्रतिमाभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
धुले शालि तंदुल भरा थाल लाया।
चढ़ा पुंज सन्मुख प्रभू को रिझाया।।
जजूँ जैनमंदिर भवातापहारी।
नमूँ जैनप्रतिमा सदा सौख्यकारी।।३।।
ॐ ह्रीं चैत्यप्रासादभूमिसंबंधिजिनमंदिरजिनप्रतिमाभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
जुही केवड़ा मल्लिका मोगरा ले।
चढ़ाऊँ चरण में सुगुण कीर्ति पैâले।।
जजूँ जैनमंदिर भवातापहारी।
नमूँ जैनप्रतिमा सदा सौख्यकारी।।४।।
ॐ ह्रीं चैत्यप्रासादभूमिसंबंधिजिनमंदिरजिनप्रतिमाभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
जलेबी इमरती पुआ पात्र भर के।
चढ़ाऊँ तुम्हें स्वात्मसुख हेतु रुचि से।।
जजूँ जैनमंदिर भवातापहारी।
नमूँ जैनप्रतिमा सदा सौख्यकारी।।५।।
ॐ ह्रीं चैत्यप्रासादभूमिसंबंधिजिनमंदिरजिनप्रतिमाभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रजत पात्र में दीप घृत का जलाऊँ।
करूँ आरती मोह तम को भगाऊँ।।
जजूँ जैनमंदिर भवातापहारी।
नमूँ जैनप्रतिमा सदा सौख्यकारी।।६।।
ॐ ह्रीं चैत्यप्रासादभूमिसंबंधिजिनमंदिरजिनप्रतिमाभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशांगी सुरभि धूप खेऊँ अगनि में।
जले कर्म सब धूम्र पैâले गगन में।।
जजूँ जैनमंदिर भवातापहारी।
नमूँ जैनप्रतिमा सदा सौख्यकारी।।७।।
ॐ ह्रीं चैत्यप्रासादभूमिसंबंधिजिनमंदिरजिनप्रतिमाभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सरस संतरा आम अंगूर लाऊॅँ।
मधुर फल प्रभो आपको मैं चढ़ाउँâ।।
जजूँ जैनमंदिर भवातापहारी।
नमूँ जैनप्रतिमा सदा सौख्यकारी।।८।।
ॐ ह्रीं चैत्यप्रासादभूमिसंबंधिजिनमंदिरजिनप्रतिमाभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जलादी वसू द्रव्य ले अर्घ कीना।
चढ़ाऊँ तुम्हें हों अशुभ कर्म छीना।।
जजूँ जैनमंदिर भवातापहारी।
नमूँ जैनप्रतिमा सदा सौख्यकारी।।९।।
ॐ ह्रीं चैत्यप्रासादभूमिसंबंधिजिनमंदिरजिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—सोरठा—
सीतानदि को नीर, सुवरण झारी में भरूँ।
मिले भवोदधि तीर, शांतिधारा त्रय किये।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
बेला वकुल गुलाब, चंप चमेली ले घने।
पुष्पांजलि को आप, चरण चढ़ाते यश बढ़े।।११।।
दिव्य पुष्पाँजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं समवसरणस्थितचैत्यप्रासादभूमिसंबंधिसर्वजिनमंदिरजिन-प्रतिमाभ्यो नम:।
—दोहा—
स्वात्म सुधारस सौख्यप्रद, परमाह्वाद करंत।
गाऊँ जिनगुणमालिका, हो मुझ शांति अनंत।।१।।
—स्त्रग्विणी छंद—
मैं नमूँ मैं नमूँ सर्व तीर्थेश को।
सर्व जिनबिंब युत सर्व जिनगेह को।।
नाथ मेरी सुनो एक ही प्रार्थना।
फेर होवे न संसार में आवना।।२।।
जिन समोसर्ण में सर्व मन मोहती।
चैत्य प्रासाद भू चौतरफ शोभती।।
नाथ मेरी सुनो एक ही प्रार्थना।
फेर होवे न संसार में आवना।।३।।
चउदिशी वीथि में नाट्यशाला बनी।
दो तरफ दोय दो नृत्य से सोहनी।।
नाथ मेरी सुनो एक ही प्रार्थना।
फेर होवे न संसार में आवना।।४।।
एक इक में बतीसों हि रंग भूमियाँ।
एक इक में बतीसों भवन देवियाँ।।
नाथ मेरी सुनो एक ही प्रार्थना।
फेर होवे न संसार में आवना।।५।।
नृत्य करती हुई नाथ गुण गावतीं।
पुष्प अंजलि बिखेरंत मन भावतीं।।
नाथ मेरी सुनो एक ही प्रार्थना।
फेर होवे न संसार में आवना।।६।।
एक इक जिनभवन शिखर से तुंग हैं।
उन सभी बीच सुरमहल पण पंच हैं।।
नाथ मेरी सुनो एक ही प्रार्थना।
फेर होवे न संसार में आवना।।७।।
देवघर बावड़ी उपवनों युक्त हैं।
देव क्रीड़ा करें नाथ पद भक्त हैं।।
नाथ मेरी सुनो एक ही प्रार्थना।
फेर होवे न संसार में आवना।।८।।
दोय दो धूप घट दो तरफ शोभते।
धूप खेवें सभी पाप मल धोवते।।
नाथ मेरी सुनो एक ही प्रार्थना।
फेर होवे न संसार में आवना।।९।।
धन्य यह शुभ घड़ी धन्य है धन्य है।
धन्य मेरा जनम आप पद वंद्य हैं।।
नाथ मेरी सुनो एक ही प्रार्थना।
फेर होवे न संसार में आवना।।१०।।
आप पद पूजते सर्व विपदा टलें।
सर्व इच्छित फलें सर्व संपत् मिले।।
नाथ मेरी सुनो एक ही प्रार्थना।
फेर होवे न संसार में आवना।।११।।
—घत्ता—
जय जय जिनप्रतिमा, अनुपम महिमा, जय तीर्थंकर गुणराशी।
जय ‘ज्ञानमती’ को, निजगुण दे दो, दूर करो मम यम फांसी।।१२।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितचैत्यप्रासादभूमिसंबंधिसर्वजिन-मंदिरजिनप्रतिमाभ्यो जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
—गीता छंद—
जो भव्य श्रद्धा भक्ति से यह ‘‘समवसरण’’ पूजा करें।
मांगे बिना ही वे नवों निधि रत्न चौदह वश करें।।
फिर पंचकल्याणक अधिप हो धर्मचक्र चलावते।
निज ‘ज्ञानमती’ केवल करें जिनगुण अनंतों पावते।।
।।इत्याशीर्वाद:।।