-अथ स्थापना-नरेन्द्र छंद-
समवसरण में सप्तमभूमि, भवनभूमि मुनि कहते।
उनमें भवन बने अति ऊँचे, देव देवियाँ वहँ रहते।।
चारों गलियों में नव-नव, स्तूप बने मणियों के।
उनमें रत्नमयी जिनप्रतिमा, पूजूँ श्रद्धा करके।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितभवनभूमिसंबंधिनवनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनप्रतिमासमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितभवनभूमिसंबंधिनवनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनप्रतिमासमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितभवनभूमिसंबंधिनवनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनप्रतिमासमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-वसंततिलका छंद-
गंगा नदी सलिल उज्ज्वल भृंग में है।
धारा करूँ जिनपदाम्बुज में रुची से।।
अर्हंत सिद्ध प्रतिमा नित पूजहूँ मैं।
नौ लब्धिवत् नव नवों स्तूप में जो।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितभवनभूमिसंबंधिनवनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनप्रतिमाभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
काश्मीरि केशर घिसी भर के कटोरी।
चर्चन करूँ जिनपदाम्बुज में रुची से।।
अर्हंत सिद्ध प्रतिमा नित पूजहूँ मैं।
नौ लब्धिवत् नव नवों स्तूप में जो।।२।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितभवनभूमिसंबंधिनवनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनप्रतिमाभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
अक्षत धुले धवल लेकर थाल भर के।
मैं पुंज धर जिनपदाम्बुज में रुची से।।
अर्हंत सिद्ध प्रतिमा नित पूजहूँ मैं।
नौ लब्धिवत् नव नवों स्तूप में जो।।३।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितभवनभूमिसंबंधिनवनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनप्रतिमाभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
चंपा जुही वकुल केतकि पुष्प लेके।
अर्पूं सदा जिन पदाम्बुज में रुची से।।
अर्हंत सिद्ध प्रतिमा नित पूजहूँ मैं।
नौ लब्धिवत् नव नवों स्तूप में जो।।४।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितभवनभूमिसंबंधिनवनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनप्रतिमाभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
लड्डू सुहाल बरफी भर थाल में ले।
अर्पण करूँ जिन पदाम्बुज में रुची से।।
अर्हंत सिद्ध प्रतिमा नित पूजहूँ मैं।
नौ लब्धिवत् नव नवों स्तूप में जो।।५।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितभवनभूमिसंबंधिनवनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनप्रतिमाभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर ज्योति जलती दश दिश प्रकासे।
आर्ती उतार कर पूजूँ मैं रुची से।।
अर्हंत सिद्ध प्रतिमा नित पूजहूँ मैं।
नौ लब्धिवत् नव नवों स्तूप में जो।।६।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितभवनभूमिसंबंधिनवनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनप्रतिमाभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
खेऊं सुगंधि वर धूप सुधूप घट में।
हों कर्म भस्म उड़ती बहु धूम्र दीखे।।
अर्हंत सिद्ध प्रतिमा नित पूजहूँ मैं।
नौ लब्धिवत् नव नवों स्तूप में जो।।७।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितभवनभूमिसंबंधिनवनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनप्रतिमाभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
पिस्ता बदाम अखरोट भराय थाली।
अर्पण करूँ सुफल हेतु तुम्हें फलों को।।
अर्हंत सिद्ध प्रतिमा नित पूजहूँ मैं।
नौ लब्धिवत् नव नवों स्तूप में जो।।८।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितभवनभूमिसंबंधिनवनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनप्रतिमाभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीरादि अर्घ उसमें बहु रत्न ले के।
अर्पण करूँ रत्नत्रय फल लाभ हेतू।।
अर्हंत सिद्ध प्रतिमा नित पूजहूँ मैं।
नौ लब्धिवत् नव नवों स्तूप में जो।।९।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितभवनभूमिसंबंधिनवनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
पद्म सरोवर नीर ले, जिनपद धार करंत।
तिहुंजग में मुझमें सदा, करो शांति भगवन्त।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
श्वेत कमल नीले कमल, अति सुगंध कल्हार।
पुष्पांजलि अर्पण करत, मिले सौख्य भंडार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणसंबंधिस्तूपमध्यविराजमानसर्वजिनसिद्ध-प्रतिमाभ्यो नम:।
-दोहा-
परमब्रह्म परमातमा, परमपिता परमेश।
गाऊँ तुम गुण मालिका, मिटे सकल भवक्लेश।।१।।
-शंभु छंद-
जय जय जिनवर के समवसरण, सातवीं भवनभूमि प्यारी।
जय जय स्तूप जिन सिद्धबिंब, जय जय इनकी महिमा न्यारी।।
जय जय स्तूप पर छत्र फिरें, बहुवर्णध्वजायें फहरातीं।
जय मंगल द्रव्य वहां रक्खें, रत्नों की रचना मनभाती।।२।।
इन भवन भूमियों में ऊँचे, बहु महल बने सुर युगलों के।
संगीत नृत्य से देव वहां, अभिषेक करें जिनबिंबों के।।
कहिं स्वर्ण हिंडोले में बैठीं, देवी सब झूला झूल रहीं।
कहिं खिले कमल से हंसों से, वापी सब जन मन मोह रहीं।।३।।
प्रत्येक गली के मध्य बने, स्तूप विविध रत्नों के हैं।
उनके मधि मकराकार धरें, सौ-सौ तोरण रत्नों के हैं।।
ये अपने अपने जिनवर से, बारह गुणिते ऊँचे माने।
इनमें जिनबिंब बने मणिमय, उनकी पूजा भवदुख हाने।।४।।
वहं छत्र चंवर भृंगार कलश, पंखा ठोना ध्वज दर्पण हैं।
ये मंगल द्रव्य आठ मानें, प्रत्येक एक सौ आठ रहें।।
इन स्तूपों के आसपास, मुनियों के सभाभवन दिखते।
जो पूजें इन सब मुनियों को, उनके सब पाप अरी भगते।।५।।
जहाँ प्रभु का समवसरण रहता, षट्ऋतु के फल फल जाते हैं।
सब ऋतु के फूल खिले सुंदर, दश दिश को भी महकाते हैं।।
सब जात विरोधी क्रूर पशू, आपस में मिलकर रहते हैं।
सुर मनुज पुराने वैर छोड़ आपस में प्रीति करते हैं।।६।।
यह समवसरण का ही प्रभाव, वहाँ जाते भव्य कहाते हैं।
मिथ्यात्व हलाहल विष उगलें, सम्यक्त्व निधी पा जाते हैं।।
निज में ही निज को पा करके, निजआत्मा को ही ध्याते हैं।
फिर ‘ज्ञानमती’ पूरी करके, क्रम से शिवपद पा जाते हैं।।७।।
-दोहा-
धन्य धन्य जिनराज तुम, धन्य धन्य तुम भक्त।
धन्य तुम्हारी अर्चना, धन्य धन्य यह वक्त।।८।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितभवनभूमिसंबंधिसर्वस्तूपमध्य-विराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
—चौबोल छंद—
जो समवसरण स्तूपों के, जिन सिद्धबिम्ब का यजन करें।
वे सर्व अमंगल दूर करें, नित–नित नव मंगल प्राप्त करें।।
फिर समवसरण का दर्शन कर, प्रभु की दिव्यध्वनि श्रवण करें।
निज ‘ज्ञानमती’ केवल करके, निज सिद्धिरमा को वरण करें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।