णमो जिणाणं ३, णमो णिस्सिहीए ३, णमोत्थु दे ३।
अनेक भवगहनविषमव्यसनप्रापणहेतून् कर्मारातीन् जयंतीति जिना: साकल्येन घातिकर्मक्षयात्प्राप्तकेवलज्ञानादिचतुष्टया अर्हन्त:। तेषां नमो नमस्कारोऽस्तु।
जिन को-अर्हंतों को नमस्कार हो, नमस्कार हो, नमस्कार हो।
अनेक भवों में गहन-कठिन ऐसे विषम-भयंकर जो व्यसन-दु:ख हैं उनको प्राप्त कराने में हेतु ऐसे जो कर्म-ज्ञानावरण आदि हैं वे ही आत्मा के शत्रु, इन कर्मशत्रुओं को जो जीतते हैं, उन्हें नष्ट कर देते हैं, वे ‘जिन’ कहलाते हैं। वे सम्पूर्णरूप से घातिया कर्मों के क्षय से केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसौख्य और केवलवीर्य अर्थात् अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख और अनंतवीर्य ऐसे अनंतचतुष्टय को प्राप्त कर चुके हैं, वे ‘अर्हंत’ कहलाते हैं उन अर्हंत भगवन्तों को नमस्कार हो, नमस्कार हो, नमस्कार हो।
निषीधिकाओं को नमस्कार हो, नमस्कार हो, नमस्कार हो।
‘णमोत्थु’ दे ३-आपको नमस्कार हो, आपको नमस्कार हो, आपको नमस्कार हो।
टीकाकार ने निषीधिका के १७ अर्थ किये हैं। जिनमें जिन और सिद्धों की कृत्रिम-अकृत्रिम प्रतिमाएं और उनके आलय अर्थात् जिनमंदिरों को नमस्कार किया है। पुनश्च अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानियों को भी नमस्कार किया है।अयोध्या तीर्थ में जन्में श्री ऋषभदेव भगवान मति, श्रुत व अवधिज्ञान के धारी थे। श्री अजितनाथ, श्री अभिनंदननाथ, श्री सुमतिनाथ व श्री अनंतनाथ, ये चारों तीर्थंकर मति, श्रुत व अवधिज्ञानी थे ही। यहीं पर दीक्षाकल्याणक होने से मन:पर्ययज्ञान एवं यहीं पर केवलज्ञान कल्याणक होने से केवलज्ञान के धारी भी हुए हैं। अत: इन पाँचों तीर्थंकरों को नमस्कार होवे तथा च उनके समवसरण में गणधरदेव भी चार ज्ञानधारी व अनेक ऋद्धियों से समन्वित हुए हैं, उन्हें भी नमस्कार होवे।
जैनधर्म के अनुसार ‘अयोध्या’ शाश्वत तीर्थ है। युग की आदि में यहाँ प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव ने जन्म लिया है। इंद्रों ने, असंख्य देवों ने आकर नगरी की तीन प्रदक्षिणा देकर प्रभु का जन्मकल्याणक महोत्सव मनाया है।यहीं पर द्वितीय तीर्थंकर श्री अजितनाथ, चतुर्थ तीर्थंकर श्री अभिनंदननाथ, पंचम तीर्थंकर श्री सुमतिनाथ एवं चौदहवें तीर्थंकर श्री अनंतनाथ जन्मे हैं। उनके-उनके जन्मस्थल पर प्राचीन चरण चिन्ह बने हुए परम्परा से चले आये है। अभी वहाँ विशाल जिनमंदिर बन गये हैं।
ऐसी अयोध्यापुरी सभी का मंगल करे, ऐसी प्रार्थना है।