स्थापना-चौबोल छंद
हे इस युग के आदि विधाता, ऋषभदेव पुरुदेव प्रभो।
हे युगस्रष्टा तुम्हें बुलाऊँ, आवो आवो यहाँ विभो।।
आदिनाथ सुत हे भरतेश्वर! हे बाहूबलि! आज यहाँ।
आवो तिष्ठो हृदय विराजो, जग में मंगल करो यहाँ।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरऋषभदेव-भरत-बाहुबलि-स्वामिन:। अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरऋषभदेव-भरत-बाहुबलि-स्वामिन:। अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरऋषभदेव-भरत-बाहुबलि-स्वामिन:। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अष्टक-चौबोल छंद-
कमलरेणु से सुरभित निर्मल, कनक पात्र जल पूर्ण भरें।
उभय लोक के ताप हरन को, त्रिभुवन गुरु पद धार करें।।
श्रीवृषभेश भरत बाहूबलि, तीनों के पद कमल जजूँ।
निज के तीन रत्न को पाकर, भव भव दु:ख से शीघ्र बचूँ।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरवृषभदेव-तत्सुत-भरत-बाहुबलि-चरणेभ्यो जलं निर्वपामीति स्वाहा।
कंचन रस सम पीत सुगंधित, चंदन तन की ताप हरे।
यम संताप हरन हेतू प्रभु, तुम पद चर्चूं भक्ति भरे।।
श्रीवृषभेश भरत बाहूबलि, तीनोें के पद कमल जजूँ।
निज के तीन रत्न को पाकर, भव भव दु:ख से शीघ्र बचूँ।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरवृषभदेव-तत्सुत-भरत-बाहुबलि-चरणेभ्यो चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
देवजीर शाली भर थाली, उदधि फेन सम पुंज करें।
कर्म पुंज के खंडखंड कर, निज अखंड पद शीघ्र वरें।।
श्रीवृषभेश भरत बाहूबलि, तीनोें के पद कमल जजूँ।
निज के तीन रत्न को पाकर, भव भव दु:ख से शीघ्र बचूँ।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरवृषभदेव-तत्सुत-भरत-बाहुबलि-चरणेभ्यो अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मधुकर चुंबित कुंद कमल ले, कामजयी तुम चरण जजें।
तुम निष्काम कामना पूरक, जजत कामभट तुरत भजें।।
श्रीवृषभेश भरत बाहूबलि, तीनोें के पद कमल जजूँ।
निज के तीन रत्न को पाकर, भव भव दु:ख से शीघ्र बचूँ।।४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरवृषभदेव-तत्सुत-भरत-बाहुबलि-चरणेभ्यो पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
घृतबाटी सोहाल समोसे, कुुंडलनी ले थाल भरें।
क्षुधा नागिनी विष अपहरने, तुम सन्मुख चरु भेंट करें।।
श्रीवृषभेश भरत बाहूबलि, तीनोें के पद कमल जजूँ।
निज के तीन रत्न को पाकर, भव भव दु:ख से शीघ्र बचूँ।।५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरवृषभदेव-तत्सुत-भरत-बाहुबलि-चरणेभ्यो नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कनक दीप कर्पूर जलाकर, जिनमंदिर उद्योत करें।
मोह निशाचर दूर भगाकर, निज आतम उद्योत करें।।
श्रीवृषभेश भरत बाहूबलि, तीनोें के पद कमल जजूँ।
निज के तीन रत्न को पाकर, भव भव दु:ख से शीघ्र बचूँ।।६।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरवृषभदेव-तत्सुत-भरत-बाहुबलि-चरणेभ्यो दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप सुगंधित धूपायन में, खेते दश दिश धूम्र उड़े।
तुम पद सन्मुख तुरत भस्म हो, निज की सुख संपत्ति बढ़े।।
श्रीवृषभेश भरत बाहूबलि, तीनोें के पद कमल जजूँ।
निज के तीन रत्न को पाकर, भव भव दु:ख से शीघ्र बचूँ।।७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरवृषभदेव-तत्सुत-भरत-बाहुबलि-चरणेभ्यो धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीफल पूग अनार आमला, सेव आम्र अंगूर भले।
सरस मधुर निज आतम रसमय, सत्फल पूजन करत फले।।
श्रीवृषभेश भरत बाहूबलि, तीनोें के पद कमल जजूँ।
निज के तीन रत्न को पाकर, भव भव दु:ख से शीघ्र बचूँ।।८।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरवृषभदेव-तत्सुत-भरत-बाहुबलि-चरणेभ्यो फलं निर्वपामीति स्वाहा।
वारि गंध अक्षत कुसुमादिक, उसमें बहुरत्नादि मिले।
अर्घ चढ़ाकर तुम गुण गाऊँ, सम्यक् ज्ञान प्रसून खिले।।
श्रीवृषभेश भरत बाहूबलि, तीनोें के पद कमल जजूँ।
निज के तीन रत्न को पाकर, भव भव दु:ख से शीघ्र बचूँ।।९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरवृषभदेव-तत्सुत-भरत-बाहुबलि-चरणेभ्यो अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
त्रिभुवन पति त्रिभुवनधनी, त्रिभुवन के गुरु आप।
त्रयधारा चरणों करूँ, मिटे जगत त्रय ताप।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
ज्ञानदरश सुख वीर्यमय, गुण अनन्त विलसंत।
पुष्पांजलि से पूजहूँ, हरूँ सकल जग फंद।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
ज्ञान ज्योति में तव दिखे, लोक अलोक समस्त।
मैं गाऊँ गुणमालिका, मम पथ करो प्रशस्त।।१।।
-शंभु छंद-
जय जय आदीश्वर तीर्थंकर, तुम ब्रह्मा विष्णु महेश्वर हो।
जय जय कर्मारिजयी जिनवर, तुम परमपिता परमेश्वर हो।।
जय युगस्रष्टा असि मषि आदिक, किरिया उपदेशी जनता को।
त्रय वर्ण व्यवस्था राजनीति, गृहिधर्म बताया परजा को।।२।।
निज पुत्र पुत्रियों को विद्या-अध्ययन करा निष्पन्न किया।
भरतेश्वर को साम्राज्य सौंप, शिवपथ मुनिधर्म प्रशस्त किया।।
इक सहस वर्ष तप करके प्रभु, वैâवल्यज्ञान को प्रकट किया।
अठरह कोड़ाकोड़ी सागर के, बाद मुक्ति पथ प्रकट किया।।३।।
तुम प्रथम पुत्र भरतेश प्रथम, चक्रेश्वर हो षट्खंडजयी।
जिन भक्तों में थे प्रथम तथा, अध्यात्म शिरोमणि गुणमणि ही।।
सब जन मन प्रिय थे सार्वभौम, यह भारतवर्ष सनाथ किया।
दीक्षा लेते ही क्षण भर में, निज केवलज्ञान प्रकाश किया।।४।।
हे ऋषभदेव सुत बाहुबली, तुम कामदेव होकर प्रगटे।
सुत थे द्वितीय पर अद्वितीय, चक्रेश्वर को भी जीत सके।।
तुमने दीक्षा ले एक वर्ष का, योग लिया ध्यानस्थ हुए।
वन लता भुजाओं तक पैâली, सर्पों ने वामी बना लिये।।५।।
इक वर्ष पूर्ण होते ही तो, भरतेश्वर ने आ पूजा की।
उस ही क्षण तुम हुए निर्विकल्प, तब केवलज्ञान की प्राप्ती की।।
वैâलाशगिरी से मुक्ति वरी, ऋषभेश भरत बाहूबलि ने।
उस मुक्तिथान को मैं प्रणमूँ, मेरे मनवांछित कार्य बनें।।६।।
जय जय हे आदिनाथ स्वामिन्! जय जय भरतेश्वर मुक्तिनाथ।
जय जय योगेश्वर बाहुबली! मुझ को भी निज सम करो नाथ।।
तुम भक्ती भववारिधि नौका, जो भव्य इसे पा लेते हैं।
वे ‘ज्ञानमती’ के साथ-साथ, अर्हंत श्री वर लेते हैं।।७।।
दोहा- परम चिदंबर चित्पुरुष, चििंच्चतामणि देव।
नमूँ नमूँ अंजलि किये, करूँ सतत तुम सेव।।८।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरवृषभदेवतत्सुतभरतबाहुबलिस्वामिभ्यो जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
सोरठा– नित्य निरंजनदेव, परमहंस परमातमा।
तुम पद युग की सेव, करते ही सुख संपदा।।९।।
।।इत्याशीर्वाद:।।