—अथ स्थापना-गीता छंद—
गणधर बिना तीर्थेश की, वाणी न खिर सकती कभी।
निज पास में दीक्षा ग्रहें, गणधर भि बन सकते वही।।
तीर्थेश की ध्वनि श्रवण कर, उन बीज पद के अर्थ को।
जो ग्रथें द्वादश अंगमय, मैं जजूँ उन गणनाथ को।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवादिमहावीरस्वामितीर्थंकरगणधरसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवादिमहावीरस्वामितीर्थंकरगणधरसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवादिमहावीरस्वामितीर्थंकरगणधरसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टक—भुजंगप्रयात
पयोराशि का नीर निर्मल भराऊँ।
गुरू के चरण तीन धारा कराऊँ।।
जजूँ गणधरों के पदाम्भोज को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवादिमहावीरस्वामितीर्थंकरगणधरचरणेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
सुगंधीत चंदन लिये भर कटोरी।
जगत्तापहर चर्चहूँ हाथ जोरी।।
जजूँ गणधरों के पदाम्भोज को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवादिमहावीरस्वामितीर्थंकरगणधरचरणेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
धुले श्वेत अक्षत लिये थाल भर के।
धरूँ पुंज तुम पास बहु आश धर के।।
जजूँ गणधरों के पदाम्भोज को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवादिमहावीरस्वामितीर्थंकरगणधरचरणेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
जुही केतकी पुष्प की माल लाऊँ।
सभी व्याधि हर आप चरणों चढ़ाऊँ।।
जजूँ गणधरों के पदाम्भोज को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवादिमहावीरस्वामितीर्थंकरगणधरचरणेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
सरस मिष्ट पक्वान्न अमृत सदृश ले।
परमतृप्ति हेतू चढ़ाऊँ तुम्हें मैं।।
जजूँ गणधरों के पदाम्भोज को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवादिमहावीरस्वामितीर्थंकरगणधरचरणेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शिखा दीप की जगमगाती भली है।
जजत ही तुम्हें ज्ञानज्योती जली है।।
जजूँ गणधरों के पदाम्भोज को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवादिमहावीरस्वामितीर्थंकरगणधरचरणेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अगुरु धूप खेते उड़े धूम्र नभ में।
दुरित कर्म जलते गुरूभक्तिवश तें।।
जजूँ गणधरों के पदाम्भोज को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवादिमहावीरस्वामितीर्थंकरगणधरचरणेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अनन्नास नींबू बिजौरा लिये हैं।
तुम्हें अर्पते सर्व वांछित लिये हैं।।
जजूँ गणधरों के पदाम्भोज को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवादिमहावीरस्वामितीर्थंकरगणधरचरणेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
लिये थाल में अर्घ है भक्ति भारी।
गुरू अर्चना है सदा सौख्यकारी।।
जजूँ गणधरों के पदाम्भोज को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवादिमहावीरस्वामितीर्थंकरगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—दोहा—
गणधर पदधारा करूँ, चउसंघ शांती हेत।
शांतीधारा जगत में, आत्यंतिक सुख देत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
चंपक हरसिंगार बहु, पुष्प सुगंधित सार।
पुष्पांजलि से पूजते, होवे सौख्य अपार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
त्रिभंगी छंद
जय जय सब गणधर भूषित गुणमणि, मूलोत्तर गुण पूर्ण भरें।
जय नग्न दिगम्बर मुक्ति वधूवर, सुरपति नरपति चरण परें।।
मैं पूजूँ तुमको, नित सुमती दो, पाप पुंज अंधेर टले।
होवे सब साता, मिटे असाता, पुण्य राशि हो ढेर भले।।१।।
—नाराच छंद—
नमूँ नमूँ गणीश! आप पाद पद्म भक्ति से।
भवीक वृंद आप ध्याय कर्म पंक धोवते।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।२।।
अठाइसों हि मूलगुण धरें दया निधान हैं।
अठारहों सहस्र शील धारते महान हैं।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।३।।
चुरासि लाख उत्तरी गुणों कि आप खान हैं।
समस्त योग साधते अनेक रिद्धिमान हैं।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।४।।
समस्त अंगपूर्व ज्ञान सिंधु में नहावते।
निजात्म सौख्य अमृतैक पूर स्वाद पावते।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।५।।
अनेक विध तपश्चरण करो न खेद है तुम्हें।
अनंत ज्ञानदर्श वीर्य प्राप्ति कामना तुम्हें।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।६।।
सु तीन रत्न से महान आप रत्न खान हैं।
अनेक रिद्धि सिद्धि से सनाथ पुण्यवान हैं।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।७।।
परीषहादि आप से डरें न पास आवते।
तुम्हीं समर्थ काम मोह मृत्यु मल्ल मारते।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।८।।
बिहार हो जहाँ जहाँ सु आप तिष्ठते जहाँ।
सुभिक्ष क्षेम हो सदैव ईति भीति ना वहाँ।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।९।।
सुधन्य धन्य पुण्यभूमि आपसे हि तीर्थ हो।
सुरेंद्र चक्रवर्ति वंद्य भूमि भी पवित्र हो।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।१०।।
जयो जयो गणीश! आप भक्ति मोह को हरे।
जयो मुनीश! आप भक्त आत्मशक्ति को धरें।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।११।।
अपूर्व मोक्षमार्ग युक्ति पाय मुक्ति को वरें।
पुनर्भवों से छूट के सु पंचमी गती धरें।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।१२।।
मुनीश! आप पास आय स्वात्म तत्त्व पा लिया।
समस्त कर्म शून्य ज्ञान पुंज आत्म जानिया।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।१३।।
—दोहा—
छट्ठे गुणस्थान से, चौदहवें तक मान्य।
नमूँ नमूँ सब साधु को, मिले ‘ज्ञानमति’ साम्य।।१४।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवादिमहावीरस्वामिपर्यंत-प्रमत्तादि-अयोगिगुणस्थान-पर्यंतसर्वगणधरचरणेभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
शेर छंद
जो भव्य श्री गणधर गुरु की अर्चना करें।
सम्पूर्ण अमंगल व रोग शोक दुख हरें।।
अतिशायि पुण्य प्राप्त कर ईप्सित सफल करें।
वैâवल्य ‘‘ज्ञानमती’’ से जिनगुण सकल भरें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।