-स्थापना-
तर्ज-मेरा नम्र प्रणाम है……
वंदन शत शत बार है,
शांतिसागराचार्यवर्य को, वंदन शत शत बार है।
जिनकी चरण शरण लेने से, होते भवदधि पार हैं।।
शांतिसागराचार्यवर्य को………।।
द्विविध रत्नत्रय धारण करके, वेष दिगंबर धारा था।
पिच्छि कमंडलु मात्र परिग्रह-धरा मोह को मारा था।।
विविध तपश्चर्या कर करके, भरा सुयश भंडार है।
शांतिसागराचार्यवर्य को, वंदन शत शत बार है।।१।।
आह्वानन स्थापन करके, गुरुवर का हम यजन करें।
हृदय कमल में आप विराजो, मोह तिमिर का हनन करें।।
सन्निधिकरण विधीपूर्वक हम, करें भक्ति साकार हैं।
शांतिसागराचार्यवर्य को, वंदन शत शत बार है।।२।।
ॐ ह्रीं चारित्रचक्रवर्तिन्! श्री शांतिसागराचार्यवर्य! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं चारित्रचक्रवर्तिन्! श्री शांतिसागराचार्यवर्य! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं चारित्रचक्रवर्तिन्! श्री शांतिसागराचार्यवर्य! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक (चाल नंदीश्वर पूजा)-
सरयूनदि को जलस्वच्छ, कंचन भृंग भरूँं।
त्रयधारा देते चर्ण, भव भव त्रास हरूँ।।
श्री शांतिसागराचार्य, पूजूँ भक्ती से।
चारित्रलब्धि को पाय, छूटूँ भवदुख से।।१।।
ॐ ह्रीं चारित्रचक्रवर्तिने श्रीशांतिसागराचार्यवर्याय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि चंदन गंध, गुरु के चरण जजूँ।
पाऊं निज अनुभव गंध, सूरी शरण भजूँ।।
श्री शांतिसागराचार्य, पूजूँ भक्ती से।
चारित्रलब्धि को पाय, छूटूँ भवदुख से।।२।।
ॐ ह्रीं चारित्रचक्रवर्तिने श्रीशांतिसागराचार्यवर्याय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
तंदुल अति धवल अखंड, धोकर थाल भरूँ।
होवे मुझ ज्ञान अमंद, तुम ढिग पुँज धरूँ।।
श्री शांतिसागराचार्य, पूजूँ भक्ती से।
चारित्रलब्धि को पाय, छूटूँ भवदुख से।।३।।
ॐ ह्रीं चारित्रचक्रवर्तिने श्रीशांतिसागराचार्यवर्याय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
वकुलादि सुगंधित पुष्प, लाऊँ चुन चुन के।
पाऊँ निज समरस सौख्य, गुरु चरणों धरके।।
श्री शांतिसागराचार्य, पूजूँ भक्ती से।
चारित्रलब्धि को पाय, छूटूँ भवदुख से।।४।।
ॐ ह्रीं चारित्रचक्रवर्तिने श्रीशांतिसागराचार्यवर्याय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
लाडू है मोतीचूर, अर्पूं तुम सन्मुख।
हो क्षुधा वेदनी दूर, पाऊँ आतम सुख।।
श्री शांतिसागराचार्य, पूजूँ भक्ती से।
चारित्रलब्धि को पाय, छूटूँ भवदुख से।।५।।
ॐ ह्रीं चारित्रचक्रवर्तिने श्रीशांतिसागराचार्यवर्याय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक की ज्योति प्रजाल, आरति करते ही।
नशे मोहतिमिर का जाल, ज्योती प्रगटे ही।।
श्री शांतिसागराचार्य, पूजूँ भक्ती से।
चारित्रलब्धि को पाय, छूटूँ भवदुख से।।६।।
ॐ ह्रीं चारित्रचक्रवर्तिने श्रीशांतिसागराचार्यवर्याय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दश गंध सुगंधित धूप, अग्नी में खेऊँ।
उड़ जावे चहुँ दिश धूम्र, तुम पद को सेवूँ।।
श्री शांतिसागराचार्य, पूजूँ भक्ती से।
चारित्रलब्धि को पाय, छूटूँ भवदुख से।।७।।
ॐ ह्रीं चारित्रचक्रवर्तिने श्रीशांतिसागराचार्यवर्याय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर सेव बादाम, फल से यजन करूँ।
हो निजपद में विश्राम, भव भव भ्रमण हरूँ।।
श्री शांतिसागराचार्य, पूजूँ भक्ती से।
चारित्रलब्धि को पाय, छूटूँ भवदुख से।।८।।
ॐ ह्रीं चारित्रचक्रवर्तिने श्रीशांतिसागराचार्यवर्याय फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल आदिक अर्घ्य बनाय, रत्न मिलाऊँ मैं।
गुरुवर के चरण चढ़ाय, गुणमणि पाऊँ मैं।।
श्री शांतिसागराचार्य, पूजूँ भक्ती से।
चारित्रलब्धि को पाय, छूटूँ भवदुख से।।९।।
ॐ ह्रीं चारित्रचक्रवर्तिने श्रीशांतिसागराचार्यवर्याय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-स्रग्विणी छंद-
नीर गंगानदी का भरा भृंग में।
आपके पाद में तीन धारा करूँ।।
संघ में शांति हो सर्व बाधा टलें।
धर्म पीयूष मिल जाय गुरु भक्ति से।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
मल्लिका केवड़ा पुष्प सुरभित लिये।
आपके पाद पंकज चढ़ाऊँ अबे।।
सौख्य भंडार पूरो मिटें व्याधियां।
रत्नत्रय निधि मिले आश पूरो यही।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य–ॐ ह्रीं चारित्रचक्रवर्तिने श्रीशांतिसागराचार्यपरमेष्ठिने नमः।
दोहा-
शांतिसागराचार्यगुरु,मोक्षमार्ग के रूप।
गाऊँ गुणमाला अबे, पाऊँ स्वात्म स्वरूप।।१।।
जय जय आचार्य शांतिसागर, अठबीस साधु गुण से मंडित।
जय जय चारित्र चक्रवर्ती, पाठक के पच्चिस गुण अन्वित।।
बीसवीं सदी के आप प्रथम, आचार्य दिगंबर हुए प्रथित।
शिष्यों का संग्रह किया अनुग्रह-निग्रह गुण से भी संयुत।।२।।
नाना विध तपश्चरण करके, अद्भुत महिमा पायी जग में।
इस युग में यद्यपि ऋद्धि न हों, फिर भी कुछ अंश दिखा तुममें।।
बहुतेक भव्य तुम भक्ती से, नाना विध कष्ट निवारे थे।
तुम चरणोदक मस्तक धरकर, कुष्ठादि रोग भी टारे थे।।३।।
सर्पादिक के उपसर्गों को, धीरज से सहन किया तुमने।
उपसर्ग आदि करने वाले, दुष्टों को क्षमा किया तुमने।।
पैंतिस वर्षों तक मुनी रहे, बहुविध उपवास किये तुमने।
साढ़े पचीस वर्षों की जो, गणना गायी विद्वत्गण ने।।४।।
चारित्रशुद्धिव्रत-बारह सौ, चौंतिस उपवास किये तुमने।
पुनरपि तीस चौबीसी व्रत, जो सात शतक बीस गिनने।।
शुभ कर्मदहनव्रत तीन बार, करके कर्मोंे को क्षीण किया।
तीर्थंकरप्रकृतिकारण षोडश-कारण व्रत सोलह बार किया।।५।।
अति घोर सिंहनिष्क्रीडितव्रत, विधिवत् गुरु ने त्रयबार किये।
दशलक्षण आष्टान्हिक व्रत भी, उपवास विधी से पूर्ण किये।।
गुरुवर के सब नव हजार तीन सौ-अड़तिस दिन उपवासों में।
फिर भी शरीर में शक्ती थी, त्ाुम कायबली सम थे जग में।।६।।
चारों अनुयोगों को पढ़कर, निज मनुज जन्म का सार लिया।
फिर समयसार पढ़कर आत्मा को, समयसारमय बना लिया।।
वर ग्रन्थ भगवती आराधन, छत्तीस बार पढ़कर तुमने।
स्वातम आराधन कर अंतिम, सुसमाधिमरण पाया तुमने।।७।।
इस दुषमकाल में हीन संहनन, धारी नर नारी मानें।
उनमें से एक आप ही तो, उत्तम शक्ती युत सब जानें।।
तीर्थों की तीर्थकरों की भी, भक्ती अतिशायी दिखलायी।
जिनआगम की भक्ती से तो, आगम भी हुआ अति स्थायी।।८।।
गुरुओं की भक्ती स्वयं किया, बहुते गुरुवों का सृजन किया।
इन देव शास्त्र गुरु भक्ती से, निज का रत्नत्रय शुद्ध किया।।
हे शांतिसागराचार्य वर्य! मैं नमूँ सहस्रों बार नमूँ।
चारित्रचक्रवर्तिन् गुरुवर! मैं निज रत्नत्रय हेतु नमूँ।।९।।
गुरु भक्ती से सम्यक्त्वरत्न, निर्दोष सुरक्षित अविचल हो।
गुरु भक्ती से सज्ज्ञानरत्न, निजभासे नित वृद्धिंगत हो।।
गुरु भक्ती से चारित्ररत्न, अंतिम क्षण तक मुझ साथ रहे।
गुरुभक्ती से तप आराधन, करने में उत्सुक चित्त रहे।।१०।।
हे गुरुवर! तव प्रसाद से ही, श्रीवीरसागराचार्य मिले।
जिनके प्रसाद से रत्नत्रय का, लाभ मिला गुण पुष्प खिले।।
तब तक मन में गुरुभक्ति रहे, जब तक नहिं आत्मा सिद्ध बने।
वैâवल्य ‘ज्ञानमति’ पाने तक, गुरुभक्ती भवदधि नाव बने।।११।।
-दोहा-
त्रिभुवन के भी पूज्य गुरु, जिनमुद्रा से वंद्य!
नमूँ नमूँ नत शीश कर, पाऊं परमानंद।।१२।।
ॐ ह्रीं चारित्रचक्रवर्तिने श्रीशांतिसागराचार्यमहामुनीन्द्राय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।
-गीताछंद-
जो भव्यजन श्री शांतिसागरसूरि की अर्चा करें।
वे शांतिप्रद चारित्रगुण से, स्वात्म की चर्चा करें।।
सम्यक्त्व ज्ञान चरित्र से निज, आत्मनिधि प्रगटित करें।
‘सज्ज्ञानमति’ रविकिरण से, अज्ञानतम विघटित करें।।१।।