-अथ स्थापना-शंभु छंद-
तीर्थंकरों के समवसृति में आर्यिकायें मान्य हैं।
ब्राह्मी प्रभृति से चंदना तक सर्व में हि प्रधान हैं।।
व्रतशील गुण से मंडिता इंद्रादि से पूज्या इन्हें।
आह्वान करके पूजहूँ त्रयरत्न से युक्ता तुम्हें।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितब्राह्मीगणिनीप्रमुखसर्वार्यिका-समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितब्राह्मीगणिनीप्रमुखसर्वार्यिका-समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितब्राह्मीगणिनीप्रमुखसर्वार्यिका-समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टक—गीता छंद
गंगा नदी का नीर शीतल, स्वर्ण झारी में भरूँ।
निज कर्ममल को धोवने हित, मात पद धारा करूँ।।
सद्धर्म कन्या आर्यिकाओं, की सदा पूजा करूँ।
माता चरण वंदन करूँ, निज आत्म की रक्षा करूँ।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितब्राह्मीगणिनीप्रमुखसर्वार्यिका-चरणेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरी चंदन सुगंधित, घिस कटोरी में भरूँ।
तुम पाद पंकज चर्चते, भवताप की बाधा हरूँ।।
सद्धर्म कन्या आर्यिकाओं, की सदा पूजा करूँ।
माता चरण वंदन करूँ, निज आत्म की रक्षा करूँ।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितब्राह्मीगणिनीप्रमुखसर्वार्यिका-चरणेभ्य: चंदनंं निर्वपामीति स्वाहा।
उज्ज्वल अखंडित शालि तंदुल, धोय थाली में भरूँ।
तुम पाद सन्निध पुंज धरते, सर्व दुख का क्षय करूँ।।
सद्धर्म कन्या आर्यिकाओं, की सदा पूजा करूँ।
माता चरण वंदन करूँ, निज आत्म की रक्षा करूँ।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितब्राह्मीगणिनीप्रमुखसर्वार्यिका- चरणेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
चंपा चमेली केवड़ा, अरविंद सुरभित पुष्प से।
तुम पाद कुसुमावलि किये, यश सुरभि पैâले चहुँ दिसे।।
सद्धर्म कन्या आर्यिकाओं, की सदा पूजा करूँ।
माता चरण वंदन करूँ, निज आत्म की रक्षा करूँ।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितब्राह्मीगणिनीप्रमुखसर्वार्यिका-चरणेभ्य: पुष्पंं निर्वपामीति स्वाहा।
मोदक इमरती सेमई, पायस पुआ पकवान से।
तुम पाद पंकज पूजते, क्षुध रोग मुझ तुरतहिं नशे।।
सद्धर्म कन्या आर्यिकाओं, की सदा पूजा करूँ।
माता चरण वंदन करूँ, निज आत्म की रक्षा करूँ।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितब्राह्मीगणिनीप्रमुखसर्वार्यिका-चरणेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर ज्योती रजत दीपक, में जला आरति करूँ।
अज्ञानतम को दूर कर, निज ज्ञान की ज्योती भरूँ।।
सद्धर्म कन्या आर्यिकाओं, की सदा पूजा करूँ।
माता चरण वंदन करूँ, निज आत्म की रक्षा करूँ।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितब्राह्मीगणिनीप्रमुखसर्वार्यिका-चरणेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशगंध धूप सुगंध खेकर, कर्म अरि भस्मी करूँ।
तुम पाद पंकज पूजते, निज आत्म की शुद्धी करूँ।।
सद्धर्म कन्या आर्यिकाओं, की सदा पूजा करूँ।
माता चरण वंदन करूँ, निज आत्म की रक्षा करूँ।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितब्राह्मीगणिनीप्रमुखसर्वार्यिका-चरणेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर सेव अनार केला, आम फल को अर्पते।
निज आत्म अनुभव सुख सरस, फल प्राप्त हो तुम पूजते।।
सद्धर्म कन्या आर्यिकाओं, की सदा पूजा करूँ।
माता चरण वंदन करूँ, निज आत्म की रक्षा करूँ।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितब्राह्मीगणिनीप्रमुखसर्वार्यिका-चरणेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंध तंदुल पुष्प नेवज, दीप धूप फलादि से।
मैं अर्घ अर्पण करूँ माता!, आपको अति भक्ति से।।
सद्धर्म कन्या आर्यिकाओं, की सदा पूजा करूँ।
माता चरण वंदन करूँ, निज आत्म की रक्षा करूँ।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितब्राह्मीगणिनीप्रमुखसर्वार्यिका-चरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—दोहा—
व्रत गुण मंडित मात के, चरणों में त्रय बार।
शांतीधारा मैं करूँ, होवे शांति अपार।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
वकुल मल्लिका केवड़ा, सुरभित हरसिंगार।
पुष्पांजलि चरणों करत, करूँ स्वात्म शृंगार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
—पूर्णार्घ्य (शंभु छंद)—
ऋषभदेव के समवसरण में, ‘ब्राह्मी’ गणिनी मानी हैं।
सर्व आर्यिका तीन लाख, पच्चास हजार बखानी हैं।।
रत्नत्रय गुणमणि से भूषित, शुभ्र वस्त्र को धारे हैं।
इनकी पूजा वंदन भक्ती, भवि को भवदधि तारे हैं।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य ब्राह्मीगणिनीप्रमुखत्रयलक्षपंचाशत्सहस्र-आर्यिकाभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—दोहा—
लाख पचास छप्पन सहस, दो सौ तथा पचास।
समवसरण की साध्वियां, और अन्य भी खास।।
अट्ठाइसों मूलगुण, उत्तर गुण बहुतेक।
धारें सबहीं आर्यिका, नमूँ नमूँ शिर टेक।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितब्राह्मीगणिनीप्रमुखपंचाशल्लक्ष-षट्पंचाशत्सहस्रद्वयशतपंचाशत्-आर्यिकाचरणेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—शंभु छंद—
जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में, चतुर्थ काल से लेकर भी।
इस पंचमकाल के अंतिम तक, सर्वश्री संयतिका होंगी।।
ब्राह्मी माता से सर्वश्री, माता तक जितनी संयतिका।
जो हुईं हो रहीं होवेंगी, मैं जजूँ भक्ति भवदधि नौका।।३।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थचतुर्थकालादिपंचमकालान्त्यपर्यंतब्राह्मी-गणिनीप्रमुखप्रभृतिसर्वश्री-आर्यिकापर्यंतसर्वार्यिकाभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
—त्रिभंगी छंद—
जय जय जिन श्रमणी, गुणमणि धरणी, नारि शिरोमणि सुरवंद्या।
जय रत्नत्रयधनि, परम तपस्विनि, स्वात्मचिंतवनि त्रय संध्या।।
मुनि सामाचारी, सर्व प्रकारी, पालनहारी अहर्निशी।
मैं पूूजूँ ध्याऊँ, तुम गुण गाऊँ, निजपद पाऊँ ऊर्ध्वदिशी।।१।।
—स्रग्विणी छंंद—
धन्य धन्या मही आर्यिकायें जहाँ।
मैं करूं मात! वंदामि तुमको यहाँ।।
आप सम्यक्त्व से शुद्ध निर्दोष हो।
शास्त्र के ज्ञान से पूर्ण उद्योत हो।।२।।
शुद्ध चारित्र संयम धरा आपने।
श्रेष्ठ बारह विधा तप चरा आपने।।धन्य.।।३।।
एक साड़ी परिग्रह रहा शेष है।
केश लुुंचन करो आर्यिका वेष है।।धन्य.।।४।।
आतपन आदि बहु योग को धारतीं।
क्रोध कामारि शत्रु सदा मारतीं।।।धन्य.।।५।।
अंग ग्यारह सभी ज्ञान को धारतीं।
मात! हो आप ही ज्ञान की भारती।।धन्य.।।६।।
भक्तजनवत्सला धर्म की मूर्ति हो।
जो जजें आपको आश की पूर्ति हो।।धन्य.।।७।।
मात ब्राह्मी प्रभृति चंदना साध्वियाँ।
अन्य भी जो हुई हैं महासाध्वियाँ।।धन्य.।।८।।
मात सीतासती सुलोचना द्रौपदी।
रामचंद्रादि इंद्रादि से वंद्य भी।।धन्य.।।९।।
चंद्र समकीर्ति उज्ज्वल दिशा व्यापती।
सूर्य सम तेज से पाप तम नाशतीं।।धन्य.।।१०।।
िंसधुसम आप गांभीर्य गुण से भरीं।
मेरु सम धैर्य भू-सम क्षमा गुण भरीं।।धन्य.।।११।।
बर्फ सम स्वच्छ शीतलवचन आपके।
श्रेष्ठ लज्जादि गुण यश कहें आपके।।धन्य.।।१२।।
आर्यिका वेष से मुक्ति होवे नहीं।
संहनन श्रेष्ठ बिन कर्म नशते नहीं।।धन्य.।।१३।।
सोलवें स्वर्ग तक इंद्र पद को लहें।
फेर नर तन धरें साधु हों शिव लहें।।धन्य.।।१४।।
जैन सिद्धांत की मान्यता है यही।
संहनन श्रेष्ठ बिन शुक्ल ध्यानी नहीं।।धन्य.।।१५।।
अंबिके! आपके नाम की भक्ति से।
शील सम्यक्त्व संयम पलें शक्ति से।।धन्य.।।१६।।
आत्मगुण पूर्ति हेतू जजूँ मैं सदा।
नित्य वंदामि करके नमूँ मैं मुदा।।धन्य.।।१७।।
‘ज्ञानमति’ पूर्ण हो याचना एक ही।
अंब! पूरो अबे देर कीजे नहीं।।धन्य.।।१८।।
—घत्ता—
जय जय जिन साध्वी, समरस माध्वी, तुममें गुणमणि रत्न भरें।
तुम अतुलित महिमा, पुण्य सु गरिमा, हम पूजें निज सौख्य भरें।।१९।।
ॐ ह्रीं श्रीचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितगणिनीप्रमुखसर्वार्यिकाचरणेभ्य: जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
-शेर छंद-
जो भव्य गणिनी आर्यिका, की अर्चना करें।
वे सर्व सुगुण रत्न से, निज संपदा भरें।।
साक्षात् प्रभू दर्श करें, स्वात्म सुख भरें।
‘सज्ज्ञानमती’ से निजात्म, का दरश करें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।