ऋषभदेव जिन अजित प्रभु, अभिनंदन भगवंत।
सुमतिनाथ व अनंतप्रभु, वंदत सौख्य अनंत।।१।।
कुंदकुंद आम्नाय में, गच्छ सरस्वती मान्य।
बलात्कारगण सिद्ध है, उनमें सूरि प्रधान।।२।।
सदी बीसवीं के प्रथम, शांतिसागराचार्य।
उनके पट्टाचार्य थे, वीरसागराचार्य।।३।।
देकर दीक्षा आर्यिका, दिया ज्ञानमती नाम।
गुरुवर कृपा प्रसाद से, सार्थ हुआ कुछ नाम।।४।।
वीर अब्द पच्चीस सौ, पैंतालिस अभिनंद्य।
चैत्र कृष्ण नवमी तिथी, त्रिभुवन से भी वंद्य।।५।।
ऋषभदेव प्रभु जन्म दिन, ऋषभजयंती मान्य।
महामहोत्सव हो रहा, तीर्थ अयोध्या धन्य।।६।।
‘तीर्थ अयोध्या अर्चना’, ‘संग्रह’ किया प्रपूर्ण।
स्वकृतकृती से संकलन, अतिशय महिमा पूर्ण।।७।।
जितने जिनमंदिर यहाँ, त्रिभुवन भविजन वंद्य।
उनकी पूजा भक्ति से, पावो सुख अभिनंद्य।।८।।
जिनमंदिर जिनमूर्तियाँ, इंद्रों से भी पूज्य।
गणधर मुनिगण वंद्य हैं, नमूँ त्रिजग के सूर्य।।९।।
जब तक जग में तीर्थ यह, रहे सर्वजग वंद्य।
‘पूजासंग्रह तीर्थ’ का, देवे सुख अभिनंद्य।।१०।।
तीर्थ तीर्थंकर अर्चना, करो करावो भव्य।
पुण्य सातिशयी करो, पावो निजसुख नव्य।।११।।
तीर्थ अयोध्या शाश्वती, नमूँ नमूँ शत बार।
तीर्थंकर प्रभु अर्चना, भरे सौख्य भंडार।।१२।।