(सप्तविभक्ति समन्वित)
भरतश्चक्रवर्ती त्वं, षट्खंडविजयी महान्।
भरतेश्वरमहं नौमि, भेदविज्ञानप्राप्तये।।१।।
भरतेन सुकैवल्यं, प्राप्तं दीक्षाक्षणे त्वरं।
भरतेशाय मे नित्यं, नमो नमोस्त्वनंतश:।।२।।
भरतात् भारतं वर्षं, पुराणेषु प्रसिद्ध्यति।
भरतस्य त्विदं क्षेत्रं, सर्वदा क्षेममाप्नुयात्।।३।।
भरतेशे भवेद् भक्ति:, स्थिरा स्वपरज्ञानभाक्।
भो! भरतेश! सिद्धात्मन्! स्वात्मसिद्धिं प्रयच्छ मे।।४।।
-दोहा-
ज्ञानज्योति में तव दिखे, लोक अलोक समस्त।
नमूँ नमूँ अंजलि किये, मम पथ करो प्रशस्त।।१।।
-शंभु छंद-
श्री ऋषभदेव प्रभु तीर्थंकर, तुम ब्रह्मा विष्णु महेश्वर हो।
तुम कर्मजयी आदी जिनवर, तुम परमपिता परमेश्वर हो।।
प्रभु युगस्रष्टा असि मषि आदिक, किरिया उपदेशी जनता को।
त्रय वर्ण व्यवस्था राजनीति, गृहिधर्म बताया परजा को।।२।।
निज पुत्र पुत्रियों को विद्या अध्ययन करा निष्पन्न किया।
भरतेश्वर को साम्राज्य सौंप शिवपथ मुनिधर्म प्रशस्त किया।।
इक सहस वर्ष तप करके प्रभु वैâवल्यज्ञान को प्रकट किया।
अठरह कोड़ाकोड़ी सागर के बाद मुक्तिपथ प्रकट किया।।३।।
तुम ऋषभ पुत्र भरतेश प्रथम चक्रेश्वर हो षट्खंडजयी।
जिन भक्तों में थे प्रथम तथा अध्यात्म शिरोमणि गुणमणि ही।।
सब जन मन प्रिय थे सार्वभौम यह भारतवर्ष सनाथ किया।
दीक्षा लेते ही क्षण भर में निज केवलज्ञान प्रकाश किया।।४।।
-दोहा-
श्री ऋषभेश्वर पुत्र तुम, भरतराज चक्रीश।
मन वच तनु से भक्ति युत, नमूँ नमूँ नत शीश।।
।।अथ जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।