—दोहा—
नित्य निरंजन सिद्ध प्रभु, परम हंस भरतेश।
पुष्पांजलि से पूजते, पाऊँ निजगुण लेश।।१।।
।।अथ मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
—शंभु छंद—
निज आत्मा की उपलब्धि किया, संतत ही रहते उसमें ही।
मैं निज से निज में रम जाऊँ, इसलिये नमूँ तुमको नित ही।।
श्री भरत स्वामि की पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।१।।
ॐ ह्रीं स्वात्मोपलब्धिरतये श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज आत्मा का अनुभव करके, संपूर्ण कर्म को जला दिया।
निश्चय सम्यक्त्व मिले मुझको, इस हेतु प्रभू अर्चना किया।।
श्री भरत स्वामि की पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।२।।
ॐ ह्रीं स्वानुभूतिरताय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परमामृत मोक्षधाम जग में, उसमें रत आप सिद्धिपति हैं।
यह नाम मंत्र है परम रसायन, सर्व व्याधिहर औषधि है।।
श्री भरत स्वामि की पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।३।।
ॐ ह्रीं परमामृतरताय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परमामृत में संतुष्ट हुये, वे सिद्ध गुणों से पुष्ट रहें।
इस अमृत की इक बिंदु मुझे, मिल जावे जिससे तुष्टि लहें।।
श्री भरत स्वामि की पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।४।।
ॐ ह्रीं परमामृततुष्टाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज में ही प्रीति परम तुष्टी, इससे परिपुष्ट बलिष्ठ बनें।
परमात्मा में प्रीती प्रतिक्षण, स्थायि रहें तब सौख्य घने।।
श्री भरत स्वामि की पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।५।।
ॐ ह्रीं परमप्रीतये श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुक्तीकन्या के बल्लभ हो, अति श्रेष्ठ भुवन बल्लभ तुम ही।
इस भव में परभव में भी, बस मेरे साथ रहो तुम ही।।
श्री भरत स्वामि की पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।६।।
ॐ ह्रीं परमवल्लभभावाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नहिं प्रगट स्वभाव तुम्हारा है, बस योगी ही ध्या सकते हैं।
मेरे मन सरसिज में तिष्ठो, बस यही याचना करते हैं।।
श्री भरत स्वामि की पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।७।।
ॐ ह्रीं अव्यक्तस्वभावाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एकत्व स्वरूप तुम्हारा है, अणुमात्र न पर अपना होता।
एकत्व भावना मिल जावे, पूजा का लाभ यही होगा।।
श्री भरत स्वामि की पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।८।।
ॐ ह्रीं एकत्वस्वरूपाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एकत्व नाम का गुण अनुपम, इससे ही आप जगद्गुरु हैं।
मैं एक अकेला त्रिभुवन में, बस परमात्मा मेरे प्रभु हैं।।
श्री भरत स्वामि की पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।९।।
ॐ ह्रीं एकत्वगुणाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एकत्व भावना को भाकर, मुनिराज स्वात्मसुख पाते हैं।
फिर चित्स्वभाव में तन्मय हो, त्रिभुवन के गुरु बन जाते हैं।।
श्री भरत स्वामि की पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।१०।।
ॐ ह्रीं एकत्वभावाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नय प्रमाणादि का द्वित्व जहाँ, नहिं रहता है बस एकात्मा।
निर्विकल्प ध्यान ऐसा उत्तम, जिससे प्रगटित हो परमात्मा।।
श्री भरत स्वामि की पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।११।।
ॐ ह्रीं द्वित्वविनाशनाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निश्चय से आत्मा शाश्वत है, नहिं जन्म मरण होता उसको।
निज शुद्ध ध्यान से प्रगट किया, नित नमूँ सदा प्रभु तुम पद को।।
श्री भरत स्वामि की पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।१२।।
ॐ ह्रीं शाश्वताय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शाश्वत प्रकाश को पैâलाया, तीनों जग में अद्भुत रवि हो।
मेरा मन कमल विकास करो, सब मोह अंधेरा विघटित हो।।
श्री भरत स्वामि की पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।१३।।
ॐ ह्रीं शाश्वतप्रकाशाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शाश्वत उद्योत किया भगवन्, नहिं गमन कदाचित् करते हो।
मेरे मन में उद्योत करो, अज्ञान तुम्हीं हर सकते हो।।
श्री भरत स्वामि की पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।१४।।
ॐ ह्रीं शाश्वत-उद्योताय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शाश्वत धर्मामृत बरसाते, प्रभु आप एक अद्भुत शशि हो।
शुद्धात्म पियूष मुझे भी दो, जिससे मुझ आत्मा सुखमय हो।।
श्री भरत स्वामि की पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।१५।।
ॐ ह्रीं शाश्वतामृतचंद्राय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शाश्वत अमृत की मूर्ति तुम्हीं, नहिं मरण आपका हो सकता।
निज आत्म सुधारस मिल जावे, जिससे मुझ मरण विनश सकता।।
श्री भरत स्वामि की पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।१६।।
ॐ ह्रीं शाश्वत-अमृतमूर्तये श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब नाम कर्म को नष्ट किया, इससे प्रभु परमसूक्ष्म मानें।
मैं ध्यान धरूँ सूक्ष्मात्मा का, मेरे सब दुष्ट कर्म हानें।।
श्री भरत स्वामि की पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।१७।।
ॐ ह्रीं परमसूक्ष्माय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो सूक्ष्म गुणान्वित सब सिद्धों, को अवगाहन देने वाला।
इक सिद्ध में सिद्ध अनंतानंत, रहें सु अनंत गुणों वाला।।
श्री भरत स्वामि की पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।१८।।
ॐ ह्रीं सूक्ष्मावकाशाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन में सूक्ष्म अनंत गुणों, को युगपत् ही तुम जान रहे।
उन सूक्ष्म गुणान्वित प्रभु तुम को , वंदन करते शिव सौख्य लहें।।
श्री भरत स्वामि की पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।१९।।
ॐ ह्रीं सूक्ष्मगुणाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो परमरूप में लीन रहे, वे निजस्वरूप में गुप्ति धरें।
निज से निज को निज में पाकर, अतिशायि स्वस्थ शिवधाम वरें।।
श्री भरत स्वामि की पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।२०।।
ॐ ह्रीं परमस्वरूपगुप्तये श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मर्यादारहित पूर्ण सुख का, जो संतत अनुभव करते हैं।
ऐसे प्रभुवर को हृदय कमल, में मुनिगण धारण करते हैं।।
श्री भरत स्वामि की पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।२१।।
ॐ ह्रीं निरवधिसुखाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मर्यादा विरहित गुणमणि से, जो निज को भूषित कर शोभें।
उनके गुण का जो कथन करें, वे स्वयं सिद्ध गुण से शोभें।।
श्री भरत स्वामि की पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।२२।।
ॐ ह्रीं निरवधिगुणाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अवधी विरहित निज के स्वरूप, में सुस्थित हुये अनंतावधि।
भरतेश्वर की स्तुति करते, मिल जावे निजस्वरूप निरवधि।।
श्री भरत स्वामि की पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।२३।।
ॐ ह्रीं निरवधिस्वरूपाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुलना से रहित ज्ञान पाकर, त्रिभुवन को युगपत् जान लिया।
तुलना से रहित सुयश पाकर, त्रिभुवन में कीर्ति बिखेर दिया।।
श्री भरत स्वामि की पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।२४।।
ॐ ह्रीं अतुलज्ञानाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उपमा से रहित सौख्य पाकर, जो काल अंनतों तक सुखमय।
जिनके पदकमल सतत मुनिगण, अपने मन में ध्याते गुणमय।।
श्री भरत स्वामि की पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।२५।।
ॐ ह्रीं अतुलसुखाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुलना से रहित भाव धरकर, लोकाग्र भाग पर राज रहें।
इनको मन में धारण करके, मुनिगण निजशुद्ध स्वभाव लहें।।
श्री भरत स्वामि की पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।२६।।
ॐ ह्रीं अतुलभावाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुलना से रहित अतुल गुण को, पाकर जो संतत तृप्त रहें।
उनके गुण का यश गाते ही, भविजन नितप्रति संतुष्ट रहें।।
श्री भरत स्वामि की पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।२७।।
ॐ ह्रीं अतुलगुणाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो अतुल प्रकाश धरें निज का , आत्मा की ज्योती अद्भुत है।
उन प्रभुवर को चित में धरते, अज्ञान अंधेरा विघटित है।।
श्री भरत स्वामि की पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।२८।।
ॐ ह्रीं अतुलप्रकाशाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—सखी छंद—
सुर आदि डिगाने आवें, फिर भी जो अचल रहावें।
जो ऐसा ध्यान लगाया, वे सिद्ध बनें मुनि ध्याया।।२९।।
ॐ ह्रीं अचलाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनने निश्चल गुण पाये, वे स्वात्मसुखास्पद पाये।
जो उनको नितप्रति पूजें, उनके सब पातक धूजें।।३०।।
ॐ ह्रीं अचलगुणाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो अचलस्वभाव धरें हैं, शिवकन्या वे हि वरे हैं।
जो उनकी भक्ति करेंगे, वे निज की तृप्ति करेंगे।।३१।।
ॐ ह्रीं अचलस्वभावाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो अचलस्वरूप धरंता, वे सिद्धिवधू के कंता।
उनको हम वंदन करते, संपूर्ण उपद्रव टलते।।३२।।
ॐ ह्रीं अचलस्वरूपाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन में ख्यात हुये हैं, अवलंबन रहित हुये हैं।
श्री भरतेश्वर का अर्चन, कर देता पाप निकंदन।।३३।।
ॐ ह्रीं निरालंबाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पर के अवलंबन विरहित, सब परिग्रह संग विवर्जित।
ऐसे जिनव्ार की भक्ती, इससे शिवपथ की युक्ती।।३४।।
ॐ ह्रीं आलंबरहिताय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब कर्म लेप से हीना, गुणमणि युत निज में लीना।
ऐसे जिनवर की अर्चा, जिससे निज की हो चर्चा।।३५।।
ॐ ह्रीं निर्लेपाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब कर्म कलंक विहीना, प्रभु निष्कलंक गुण लीना।
इन भरतेश्वर को वंदूूं, यमराज दु:ख को खंडूँ।।३६।।
ॐ ह्रीं निष्कलंकाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु निज स्वरूप में गुप्ती, इससे ही पायी मुक्ती।
मैं भरत गुणों को ध्याऊँ, निज में समरससुख पाऊँ।।३७।।
ॐ ह्रीं स्वरूपगुप्तये श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज शुद्ध द्रव्य के स्वामी, त्रिभुवन के अंतर्यामी।
आठों कर्मों से विरहित, भरतेश्वर को पूजूँ नित।।३८।।
ॐ ह्रीं शुद्धद्रव्याय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पाँचों परिवर्तन शून्या, संसार भ्रमण दुख शून्या।
श्री भरत प्रभू का वंदन, मिट जावे भवभय क्रन्दन।।३९।।
ॐ ह्रीं असंसाराय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज आनंदामृत प्रीती, परभाव विरागी नीती।
प्रभु भरत शरण में आयो, परमानंदामृत पायो।।४०।।
ॐ ह्रीं स्वानंदरतये श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज का आनंद महाना, जिन भाव स्वरूप निधाना।
भरतेश चरण की श्रद्धा, करती धन धान्य समृद्धा।।४१।।
ॐ ह्रीं स्वानंदभावाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आनंदस्वरूप हमेशा, भव दु:ख रहित परमेशा।
मैं भरत शरण में आके, निज सुख पायो हर्षाके।।४२।।
ॐ ह्रीं स्वानंदस्वरूपाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज परमानंद गुणान्वित, संपूर्ण विभाव विवर्जित।
श्री भरतेश्वर की भक्ती, प्रगटावे आतम शक्ती।।४३।।
ॐ ह्रीं स्वानंदगुणाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज आनंदामृत तुष्टी, निज गुण से ही परिपुष्टी।
श्री भरतेश्वर की अर्चा, मेटे भव भव दुख चर्चा।।४४।।
ॐ ह्रीं स्वानंदसंतोषाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब ही विभाव पर्यायें, हो गई शुद्ध मन भायें।
भरतेश प्रभू को वंदूँ, निज को गुणमणि से मंडूं।।४५।।
ॐ ह्रीं शुद्धभावपर्यायाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब पराधीनता विरहित, प्रभु पूर्ण स्वतंत्र गुणों युत।
मैं जजूँ भक्ति से तुमको, पाऊँ स्वतंत्रता गुण जो।।४६।।
ॐ ह्रीं स्वतंत्रधर्माय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज आत्म स्वभाव अनूपा, परमाल्हादक गुणरूपा।
ऐसे प्रभुवर को वंदूूं, कर्मारिशत्रु को खंडूं।।४७।।
ॐ ह्रीं आत्मस्वभावाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चित् भाव चिदानंद दाता, निज शुद्धों की है माता।
ऐसे गुरुवर का अर्चन, संपूर्ण दुखों का मर्दन।।४८।।
ॐ ह्रीं परमचित्परिणामाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चिद्रूप ज्ञानगुण धारी, चैतन्य स्वरूप विहारी।
मैं नमूँ आप गुण गाऊँ, परमानंदामृत पाऊँ।।४९।।
ॐ ह्रीं चिद्रूपस्वरूपाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चिद्रूप चिदानंद स्वामी, त्रिभुवन के अंतर्यामी।
मैं जजूँ परम श्रद्धा से, तृप्ती हो ज्ञान सुधा से।।५०।।
ॐ ह्रीं चिद्रूपगुणाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्नातक परम तुम्हीं हो, वैâवल्यज्ञान संयुत हो।
मैं पूजूँ अर्घ्य चढ़ा के, निज सुख पाऊँ गुण गाके।।५१।।
ॐ ह्रीं परमस्नातकाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संपूर्ण भुवन अवलोका, निज स्वात्म स्वरूप विलोका।
मैं नमूँ शीश को नाऊँ, परमानंदामृत पाऊँ।।५२।।
ॐ ह्रीं सर्वविलोकनाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रैलोक्य शिखर पर तिष्ठे, परिवर्तन पाँच मिटाके।
मैं जजूँ युगल कर जोड़े, नानाविधि संपत दौड़े।।५३।।
ॐ ह्रीं लोकाग्रस्थिताय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु लोक अलोक सुव्यापी, निज ज्ञान किरण से व्यापी।
भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ, निज ज्ञान सूर्य प्रगटाऊँ।।५४।।
ॐ ह्रीं लोकालोकव्यापकाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—विष्णुपद छंद—
प्रभु ‘निरक्ष’ इंद्रिय से विरहित सौख्य अतीन्द्रिय हैं।
इंद्रिय निग्रहकर जो ध्याते वे निज सुखमय हैं।।
भरत सिद्ध प्रभु को मैं पूजूँ, भक्ती मन धरके।
पाऊँ निज गुण संपत्ती मैं, स्वपर भेद करके।।५५।।
ॐ ह्रीं निरक्षाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘पुण्डरीकाक्ष’ कहाये नेत्र कमलसम हैं।
नासादृष्टि सौम्य छवि लखते नेत्र प्रफुल्लित हैं।।
भरत सिद्ध प्रभु को मैं पूजूँ, भक्ती मन धरके।
पाऊँ निज गुण संपत्ती मैं, स्वपर भेद करके।।५६।।
ॐ ह्रीं पुण्डरीकाक्षाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पुष्कल’ आत्मगुणों से भगवन्! तुम परिपुष्ट हुये।
भक्तजनों का पोषण करते जो तुम शरण भये।।
भरत सिद्ध प्रभु को मैं पूजूँ, भक्ती मन धरके।
पाऊँ निज गुण संपत्ती मैं, स्वपर भेद करके।।५७।।
ॐ ह्रीं पुष्कलाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभू ‘पुष्करेक्षण’ पंकज दल सदृश नेत्र लम्बे।
निजमन कमल खिलाने हेतू भवि तुम अवलंबे।।
भरत सिद्ध प्रभु को मैं पूजूँ, भक्ती मन धरके।
पाऊँ निज गुण संपत्ती मैं, स्वपर भेद करके।।५८।।
ॐ ह्रीं पुष्करेक्षणाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘सिद्धिदा’ स्वात्मलब्धि मुक्ती के दायक हो।
भक्तों के सब कार्यसिद्धि हित तुमही लायक हो।।
भरत सिद्ध प्रभु को मैं पूजूँ, भक्ती मन धरके।
पाऊँ निज गुण संपत्ती मैं, स्वपर भेद करके।।५९।।
ॐ ह्रीं सिद्धिदाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘सिद्धसंकल्प’ सर्व संकल्प सिद्ध कीना।
भक्तों के भी सकल मनोरथ पूरे कर दीना।।
भरत सिद्ध प्रभु को मैं पूजूँ, भक्ती मन धरके।
पाऊँ निज गुण संपत्ती मैं, स्वपर भेद करके।।६०।।
ॐ ह्रीं सिद्धसंकल्पाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सिद्धात्मा’ प्रभु तुम आत्मा ने सिद्ध अवस्था ली।
सिद्ध शिला पर आप विराजे अनवधि गुणशाली।।
भरत सिद्ध प्रभु को मैं पूजूँ, भक्ती मन धरके।
पाऊँ निज गुण संपत्ती मैं, स्वपर भेद करके।।६१।।
ॐ ह्रीं सिद्धात्मने श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाम! ‘सिद्धसाधन’ शिवसाधन रत्नत्रय धारा।
जिनने आप चरण को पूजा उन्हें शीघ्र तारा।।
भरत सिद्ध प्रभु को मैं पूजूँ, भक्ती मन धरके।
पाऊँ निज गुण संपत्ती मैं, स्वपर भेद करके।।६२।।
ॐ ह्रीं सिद्धसाधनाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञेयवस्तु सब जान लिया है नहीं शेष कुछ भी।
‘बुद्धबोध्य’ अतएव कहाये, लिया सर्वसुख भी।।
भरत सिद्ध प्रभु को मैं पूजूँ, भक्ती मन धरके।
पाऊँ निज गुण संपत्ती मैं, स्वपर भेद करके।।६३।।
ॐ ह्रीं बुद्धबोध्याय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रत्नत्रय गुण विभव प्रशंसित सब जग में प्रभु का।
‘महाबोधि’ अतएव आप ही हरो सर्व विपदा।।
भरत सिद्ध प्रभु को मैं पूजूँ, भक्ती मन धरके।
पाऊँ निज गुण संपत्ती मैं, स्वपर भेद करके।।६४।।
ॐ ह्रीं महाबोधये श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परम श्रेष्ठ अतिशायी पूजा ज्ञान लहा तुमने।
सदा गुणों से बढ़ते रहते ‘वर्द्धमान’ जग में।।
भरत सिद्ध प्रभु को मैं पूजूँ, भक्ती मन धरके।
पाऊँ निज गुण संपत्ती मैं, स्वपर भेद करके।।६५।।
ॐ ह्रीं वर्द्धमानाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बड़ी-बड़ी ऋद्धी के धारक आप ‘महर्द्धिक’ हो।
मुनिगण सुरगण वंदित चरणा आप सौख्यपद हो।।
भरत सिद्ध प्रभु को मैं पूजूँ, भक्ती मन धरके।
पाऊँ निज गुण संपत्ती मैं, स्वपर भेद करके।।६६।।
ॐ ह्रीं महर्द्धिकाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वेद-चार अनुयोग ज्ञान के अंग-उपाय तुम्हीं।
अत: आप ‘वेदांग’ ज्ञानप्राप्ती के हेतु तुम्हीं।।
भरत सिद्ध प्रभु को मैं पूजूँ, भक्ती मन धरके।
पाऊँ निज गुण संपत्ती मैं, स्वपर भेद करके।।६७।।
ॐ ह्रीं वेदांगाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वेद-आत्मविद्या शरीर से भिन्न आतमा है।
इसके ज्ञाता भिन्न किया तनु अत: ‘वेदविद्’ हैं।।
भरत सिद्ध प्रभु को मैं पूजूँ, भक्ती मन धरके।
पाऊँ निज गुण संपत्ती मैं, स्वपर भेद करके।।६८।।
ॐ ह्रीं वेदविदे श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘वेद्य’ आप ऋषिगण के द्वारा ज्ञान योग्य माने।
स्वसंवेद्य ज्ञान वो पाते जो पूजन ठाने।।
भरत सिद्ध प्रभु को मैं पूजूँ, भक्ती मन धरके।
पाऊँ निज गुण संपत्ती मैं, स्वपर भेद करके।।६९।।
ॐ ह्रीं वेद्याय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जातरूप’ तुम जन्में जैसे रूप दिगंबर है।
प्रकृतरूप निर्दोष आपका भविजन सुखप्रद है।।
भरत सिद्ध प्रभु को मैं पूजूँ, भक्ती मन धरके।
पाऊँ निज गुण संपत्ती मैं, स्वपर भेद करके।।७०।।
ॐ ह्रीं जातरूपाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विद्वानों में श्रेष्ठ ‘विदांवर’ आप पूर्णज्ञानी।
तुमपद पंकज भक्त शीघ्र ही वरते शिवरानी।।
भरत सिद्ध प्रभु को मैं पूजूँ, भक्ती मन धरके।
पाऊँ निज गुण संपत्ती मैं, स्वपर भेद करके।।७१।।
ॐ ह्रीं विदांवराय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘वेदवेद्य’ प्रभु आगम से तुम जानन योग्य कहे।
केवलज्ञान से हि या प्रभु जानन योग्य रहे।।
भरत सिद्ध प्रभु को मैं पूजूँ, भक्ती मन धरके।
पाऊँ निज गुण संपत्ती मैं, स्वपर भेद करके।।७२।।
ॐ ह्रीं वेदवेद्याय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘स्वसंवेद्य’ प्रभु स्वयं सुअनुभव गम्य आप ही हैं।
स्वयं स्वयं का अनुभव करके हुये केवली हैं।।
भरत सिद्ध प्रभु को मैं पूजूँ, भक्ती मन धरके।
पाऊँ निज गुण संपत्ती मैं, स्वपर भेद करके।।७३।।
ॐ ह्रीं स्वसंवेद्याय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘विवेद’ वेदत्रय विरहित स्त्री पुरुषादी।
हो विशिष्ट विज्ञानी भगवन्! आतम सुखस्वादी।।
भरत सिद्ध प्रभु को मैं पूजूँ, भक्ती मन धरके।
पाऊँ निज गुण संपत्ती मैं, स्वपर भेद करके।।७४।।
ॐ ह्रीं विवेदाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘वदताम्बर’ प्रभु वक्तागण में सर्वश्रेष्ठ तुम ही।
सब भाषामय दिव्यध्वनी से उपदेशा तुम ही।।
भरत सिद्ध प्रभु को मैं पूजूँ, भक्ती मन धरके।
पाऊँ निज गुण संपत्ती मैं, स्वपर भेद करके।।७५।।
ॐ ह्रीं वदताम्बराय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—दोहा—
भरत! ‘अनादिनिधन’ तुम्हीं, आदि अंत से हीन।
अतिशय लक्ष्मीयुत तुम्हीं, पूजूँ भक्ति अधीन।।७६।।
ॐ ह्रीं अनादिनिधनाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘व्यक्त’ आप सुज्ञान से, प्रगट सर्वथा मान्य।
सर्व अर्थ प्रकटित किया, जजत मिले धन धान्य।।७७।।
ॐ ह्रीं व्यक्ताय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘व्यक्तवाक्’ प्रभु तुम वचन, सर्व प्राणि को गम्य।
सभी अर्थ स्पष्ट हो, नमत जन्म हो धन्य।।७८।।
ॐ ह्रीं व्यक्तवाचे श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘व्यक्तशासन’ तुम्हीं, त्रिभुवन में स्पष्ट।
सब विरोधविरहित सुमत, नमूँ नमूँ अति इष्ट।।७९।।
ॐ ह्रीं व्यक्तशासनाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘युगादिकृत्’ कर्मभू, युग के चक्री आप।
ऋषभदेव से प्राप्त सब, कला नमूूँ निष्पाप।।८०।।
ॐ ह्रीं युगादिकृते श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘युगाधार’ युग की सभी, किया व्यवस्था आप।
राजनीति अरु धर्मद्वय, धरा नमूँ नित आप।।८१।।
ॐ ह्रीं युगाधाराय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भरत ‘युगादि’ तुम कर्मभू युग के हो चक्रेश।
प्रभु से पाई सब क्रिया, नमूँ तुम्हें भरतेश।।८२।।
ॐ ह्रीं युगादये श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जगदादिज’ युग में प्रथम, आप हुये उत्पन्न।
तीर्थंकर सुत हो प्रथम, पूजूँ चित्त प्रसन्न।।८३।।
ॐ ह्रीं जगदादिजाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज प्रभाव से इंद्रगण को भी कर अतिक्रांत।
प्रभु ‘अतीन्द्रि’ तुमको जजूँ, मिले सौख्य निर्भ्रांत।।८४।।
ॐ ह्रीं अतीन्द्राय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘अतीन्द्रिय’ ज्ञानसुख, आप अतीन्द्रिय मान्य।
इंद्रिय के गोचर नहीं, नमूँ मिले सुख साम्य।।८५।।
ॐ ह्रीं अतीन्द्रियाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘धीन्द्र’ पूर्ण वैâवल्यमय, बुद्धी के हो ईश।
शुद्ध बुद्धि मेरी करो जजूँ नमाकर शीश।।८६।।
ॐ ह्रीं धीन्द्राय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परम मोक्ष ऐश्वर्य का, अनुभव करते आप।
प्रभु ‘महेन्द्र’ तुमको नमॅँॅू, हरो सकल संताप।।८७।।
ॐ ह्रीं महेन्द्राय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सूक्ष्म अंतरित दूर के, अतीन्द्रिय सुपदार्थ।
एक समय में देखते, ‘अतीन्द्रियार्थदृक्’ नाथ।।८८।।
ॐ ह्रीं अतीन्द्रियार्थदृशे श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इंद्रिय विरहित आप हैं आत्म सौख्य परिपूर्ण।
अत: ‘अनिंद्रिय’ मुनि कहे, नमत सर्व दुखचूर्ण।।८९।।
ॐ ह्रीं अनिंद्रियाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अहमिंद्रों से पूज्य प्रभु, ‘अहमिन्द्रार्च्य’ महान।
अहं अहं कह संपदा, मिले जजत ही आन।।९०।।
ॐ ह्रीं अहमिन्द्रार्च्याय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बड़े-बड़े सब इंद्र से, पूजित प्रभु भरतेश।
सभी ‘महेन्द्रमहित’ कहें नमूूँ हरो भवक्लेश।।९१।।
ॐ ह्रीं महेन्द्रमहिताय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चउविध पूजा से महित, त्रिभुवन पूज्य ‘महान्’।
नमूँ सदा मैं भाव से, करो स्वात्म धनवान्।।९२।।
ॐ ह्रीं महते श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सबसे ऊँचे उठ चुके, ‘उद्भव’ जगत्प्रसिद्ध।
जन्म श्रेष्ठ जग में धरा, पूजत करो समृद्ध।।९३।।
ॐ ह्रीं उद्भवाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शिवपथ रत्नत्रय धरा, ‘कारण’ आप प्रसिद्ध।
भविजन मुक्ती हेतु हो, नमत कार्य सब सिद्ध।।९४।।
ॐ ह्रीं कारणाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शिवमारग की सृष्टि के ‘कर्ता’ स्वयं जिनेश।
रत्नत्रय की सब क्रिया उपदेशी परमेश।।९५।।
ॐ ह्रीं कर्त्रे श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भवसमुद्र के पार को, पहँुचे ‘पारग’ नाथ।
मुझको पार उतारिये, नमूँ नमूँ नत माथ।।९६।।
ॐ ह्रीं पारगाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भव-सागर सु पांचविध, इससे तारणहार।
‘भवतारग’ तुमको जजूँ, भरो सौख्य भण्डार।।९७।।
ॐ ह्रीं भवतारगाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘अगाह्य’ नहिं अन्य के, अवगाहन के योग्य।
तुम गुण पार न पा सकें, पूजत सौख्य मनोज्ञ।।९८।।
ॐ ह्रीं अगाह्याय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
योगिगम्य प्रभु अति गहन, आप अलक्ष्य स्वरूप।
जजूँ ‘गहन’ अतिशय कठिन, आप रूप चिद्रूप।।९९।।
ॐ ह्रीं गहनाय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘गुह्य’ योगि गोचर तुम्हीं, सर्वजनों से गुप्त।
नमूँ नमूँ मुझ मन बसो, करो मोह अरि सुप्त।।१००।।
ॐ ह्रीं गुह्याय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—उपजाति छंद—
‘परार्घ्य’ स्वामी सबमें प्रधाना।
उत्कृष्ट ऋद्धी सुख के निधाना।।
पूजॅूँ भरत नाम सुमंत्र गाऊँ।
स्वात्मैक सिद्धी प्रभु शीघ्र पाऊँ।।१०१।।
ॐ ह्रीं पराघ्यार्य श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! ‘परमेश्वर’ आप ही हैं।
उत्कृष्ट मुक्ती श्रीनाथ ही हैं।।
पूजॅूँ भरत नाम सुमंत्र गाऊँ।
स्वात्मैक सिद्धी प्रभु शीघ्र पाऊँ।।१०२।।
ॐ ह्रीं परमेश्वराय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनंत ऋद्धी प्रभु आप में हैं।
अत: ‘अनंतर्द्धि’ प्रभो! तुम्हीं हो।।
पूजॅूँ भरत नाम सुमंत्र गाऊँ।
स्वात्मैक सिद्धी प्रभु शीघ्र पाऊँ।।१०३।।
ॐ ह्रीं अनंतर्द्धये श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अमेय ऋद्धी मर्याद हीना।
अत: ‘अमेयर्द्धि’ भरत! तुम्हीं हो।।
पूजॅूँ भरत नाम सुमंत्र गाऊँ।
स्वात्मैक सिद्धी प्रभु शीघ्र पाऊँ।।१०४।।
ॐ ह्रीं अमेयर्द्धये श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अचिन्त्य ऋद्धी नहिं सोच सकते।
अत: ‘अचिन्त्यर्द्धि’ प्रभो! तुम्हीं हो।।
पूजॅूँ भरत नाम सुमंत्र गाऊँ।
स्वात्मैक सिद्धी प्रभु शीघ्र पाऊँ।।१०५।।
ॐ ह्रीं अचिन्त्यर्द्धये श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘समग्रधी’ ज्ञेयप्रमाण बुद्धी।
वैâवल्यज्ञानी प्रभु आप ही हो।।
पूजॅूँ भरत नाम सुमंत्र गाऊँ।
स्वात्मैक सिद्धी प्रभु शीघ्र पाऊँ।।१०६।।
ॐ ह्रीं समग्रधिये श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! तुम मुख्य सभी जनों में।
हो ‘प्राग्र्य’ इससे मैं नित्य वंदूँ।।
पूजॅूँ भरत नाम सुमंत्र गाऊँ।
स्वात्मैक सिद्धी प्रभु शीघ्र पाऊँ।।१०७।।
ॐ ह्रीं प्राग्र्याय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोकाग्र के अग्र विराजते हो।
‘अभ्यग्र’ इससे मुनिनाथ कहते।।
पूजॅूँ भरत नाम सुमंत्र गाऊँ।
स्वात्मैक सिद्धी प्रभु शीघ्र पाऊँ।।१०८।।
ॐ ह्रीं अभ्यग्राय श्रीभरतसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।