णमोक्कारपदे अरहंतपदे सिद्धपदे आइरियपदे उवज्झायपदे साहुपदे मंगलपदे लोगोत्तमपदे१ सरणपदे सामाइयपदे चउवीस-तित्थयरपदे२ वंदणपदे पडिक्कमणपदे पच्चक्खाणपदे काउसग्गपदे असीहियपदे णिसीहियपदे।
-पद्यानुवाद-
जो नमस्कारपद अर्हत् पद अरु सिद्धपदाचार्यपद में।
उपाध्यायपद साधूपद मंगलपद लोकोत्तम पद में।।२।।
शरणंपद सामायिकपद चौबिस तीर्थंकर पद वंदनपद में।
प्रतिक्रमण व प्रत्याख्यान रु कायोत्सर्ग असहि निसहि पद में।।३।।
अर्थ-णमो अरहंताणं इत्यादि पंचनमस्कारपद, अर्हंतपद, सिद्धपद, आचार्यपद, उपाध्यायपद, साधुपद, चत्तारिमंगलं इत्यादि मंगलपद, चत्तारि लोगोत्तमा इत्यादि लोकोत्तमपद, चत्तारिसरणं पव्वज्जामि इत्यादि शरण पद, करेमि भंते! सामाइयं इत्यादि सामायिकपद, उसहमजियं च वंदे इत्यादि चतुा\वशति तीर्थंकरपद, सिद्धानुद्धूत इत्यादि और जयति भगवान् इत्यादि वन्दनापद, पडिक्कमामि भंते इत्यादि प्रतिक्रमणपद, भन्ते पच्चक्खामि इत्यादि प्रत्याख्यानपद, नवसंख्या प्रमाण पंचनमस्कार का उच्चारण लक्षण तथा अठारह, सत्ताईस, छत्तीस, एक सौ आठ इत्यादि संख्या लक्षण कायोत्सर्गपद, असहि, निसहिपद इन सब पदों में अत्यासादनता होने पर प्रतिक्रमण करता हूँ।
इस प्रकरण से स्पष्ट है कि महामंत्र णमोकार मंत्र अनादि है। चत्तारिमंगल पाठ अनादि है।
षट्आवश्यक क्रियाएँ भी अनादि हैं फिर भी वर्तमान में श्री गौतम- स्वामी द्वारा रचित चैत्यभक्ति त्रिकाल सामायिक क्रिया में आती है एवं दैवसिक-रात्रिक प्रतिक्रमण तथा पाक्षिक के दण्डक सूत्र व वीरभक्ति श्रीगौतम- स्वामी द्वारा रचित हैं। शेष भक्तियाँ श्रीकुंदकुंददेवकृत व श्रीपूज्यपादस्वामी विरचित हैं। एक लघु आचार्यभक्ति (पाक्षिक प्रतिक्रमण में……..प्राज्ञ: प्राप्तसमस्त…….) श्री गुणभद्रसूरिकृत है।
षट्आवश्यक क्रियाएँ अनादि हैं विदेह क्षेत्र में भी ये ही नाम वाली हैं, ऐसा स्पष्ट है। यथा-
‘‘भरतैरावतापेक्षश्चतुर्विंशतिस्तव उक्त:। पूर्वविदेहापरविदेहापेक्षास्तु सामान्यतीर्थंकरस्तव इति कृत्वा न दोष इति१।।५४०।।