जं तं किरियाकम्मं णाम।।२७।।
तस्स अत्थविवरणं कस्सामो-
तमादाहीणं पदाहीणं तिक्खुत्तं तियोणदं चदुसिरं बारसावत्तं तं सव्वं किरियाकम्मं णाम।।२८।।
तं किरियाकम्मं छव्विहं आदाहीणादिभेदेण । तत्थ किरियाकम्मे कीरमाणे अप्पायत्तत्तं अपरवसत्तं आदाहीणं णाम। पराहीणभावेण किरियाकम्मं किण्ण कीरदे ? ण ; तहा किरियाकम्मं कुणमाणस्स कम्मक्खयाभावादो जिणिंदादिअच्चासणदुवारेण कम्म च। वंदणकाले गुरुजिणजिणहराणं पदक्खिणं काऊण णमंसणं पदाहीणं णाम। पदाहिणणमंसणादिकिरियाणं तिण्णिवारकरणं तिक्खुत्तं णाम। अधवा एक्कम्हि चेव दिवसे जिणगुरुरिसिवंदणाओ तिण्णिवारं किज्जंति त्ति तिक्खुत्तं णाम। तिसंज्झासु चेव वंदणा कीरदे अण्णत्थ किण्ण कीरदे ? ण; अण्णत्थ वि तप्पडिसेहणियमाभावादो । तिसंज्झासु वंदणणियम-परूवणट्ठं तिक्खुत्तमिदि भणिदं । ओणदं अवनमनं भूमावासनमित्यर्थ:। तं च तिण्णिवारं कीरदे त्ति तियोणदमिदि भणिदं । तं जहा-सुद्धमणो धोदपादो जिणिंददंसण-जणिदहरिसेण पुलइदंगो संतो जं जिणस्स अग्गे बइसदि तमेगमोणदं। जमुट्ठिऊण जिणिंदादीणं विण्णत्तिं कादूण बइसणं तं बिदियमोणदं। पुणो उट्ठिय सामाइयदंडएण अप्पसुद्धिं काऊण सकसायदेहुस्सग्गं करिय जिणाणंतगुणे ज्झाइय चउवीसतित्थयराणं वंदणं काऊण पुणो जिणजिणालयगुरवाणं संथवं काऊण जं भूमीए बइसणं तं तदियमोणदं। एवं एक्केक्कम्हि किरियाकम्मे कीरमाणे तिण्णि चेव ओणमणाणि होंति । सव्वकिरियाकम्मं चदुसिरं होदि। तं जहा-सामाइयस्स आदीए जं जिणिंदं पडि सीसणमणं तमेगं सिरं । तस्सेव अवसाणे जं सीसणमणं तं विदियं सीसं। त्थोस्सामिदंडयस्स आदीए जं सीसणमणं तं तदियं सिरं। तस्सेव अवसाणे जं णमणं तं चउत्थं सिरं । एवमेगं किरियाकम्मं चदुसिरं होदि। ण अण्णत्थ णवणपडिसेहो एदेण कदो, अण्णत्थणवणणियमस्स पडिसेहाकरणादो । अधवा सव्वं पि किरियाकम्मं चदुसिरं चदुप्पहाणं होदि ; अरहंतसिद्धसाहुधम्मे चेव पहाणभूदे कादूण सव्वकिरियाकम्माणं पउत्ति-दंसणादो। सामाइयत्थोस्सामिदंडयाणं आदीए अवसाणे च मणवयणकायाणं विसुद्धिपरावत्तणवारा बारम हवंति। तेण एगं किरियाकम्मं बारसावत्तमिदि भणिदं । एदं सव्वं पि किरियाकम्मं णाम।
अब क्रिया कर्म का अधिकार है ।।२७।।
इसके अर्थ का खुलासा अगले सूत्र में करते हैं-
आत्माधीन होना, प्रदक्षिणा करना, तीन बार करना, तीन बार अवनति, चार बार सिर नवाना और बारह आवर्त, यह सब क्रियाकर्म-कृतिकर्म है।।२८।।
आत्माधीन होना आदि के भेद से वह क्रियाकर्म छह प्रकार का है। उनमें से क्रियाकर्म करते समय आत्माधीन होना अर्थात् परवश न होना आत्माधीन होना कहलाता है।
शंका-पराधीनभाव से क्रियाकर्म क्यों नहीं किया जाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, उस प्रकार क्रियाकर्म करने वाले के कर्मों का क्षय नहीं होता और जिनेंद्रदेव आदि की आसादना होने से कर्मों का बन्ध होता है।
वंदना करते समय गुरु, जिन और जिनगृह की प्रदक्षिणा करके नमस्कार करना प्रदक्षिणा है। प्रदक्षिणा और नमस्कार आदि क्रियाओं का तीन बार करना त्रि:कृत्वा है अथवा एक ही दिन में जिन, गुरु और ऋषियों की वदंना तीन बार की जाती है, इसलिये इसका नाम त्रि:कृत्वा है।
शंका-तीनों ही संध्याकालों में वंदना की जाती है, अन्य समय में क्यों नहीं की जाती है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, अन्य समय में भी वंदना के प्रतिषेध का कोई नियम नहीं है।
तीनों सन्ध्या कालों में वंदना के नियम का कथन करने के लिये ‘त्रि:कृत्वा’ ऐसा कहा है।
‘ओणद’ का अर्थ अवनमन अर्थात् भूमि में बैठना है। वह तीन बार किया जाता है इसलिये तीन बार अवनमन करना कहा है। यथा-शुद्धमन, धौतपाद और जिनेंद्र के दर्शन से उत्पन्न हुये हर्ष से पुलकित बदन होकर जो जिनदेव के आगे बैठना, यह प्रथम अवनति है तथा जो उठकर जिनेंद्र आदि के सामने विज्ञप्ति कर बैठना, यह दूसरी अवनति है। फिर उठकर सामायिक दण्डक के द्वारा आत्मशुद्धि करके, कषायसहित देह का उत्सर्ग (कायोत्सर्ग) करके, जिनदेव के अनन्त गुणों का ध्यान करके, चौबीस तीर्थंकरों की वंदना करके फिर जिन, जिनालय और गुरु की स्तुति करके जो भूमि में बैठना, वह तीसरी अवनति है। इस प्रकार एक-एक क्रियाकर्म करते समय तीन ही अवनति होती हैं।सब क्रियाकर्म चतु:शिर होता है। यथा-सामायिक के आदि में जो जिनेंद्रदेव को सिर नवाना वह एक सिर है। उसी के अन्त में जो सिर नवाना वह दूसरा सिर है। ‘त्थोस्सामि’ दण्डक के आदि में जो सिर नवाना वह तीसरा सिर है तथा उसी के अन्त में जो नमस्कार करना वह चौथा सिर है। इस प्रकार एक क्रियाकर्म चतु:शिर होता है। इससे अन्यत्र नमन का प्रतिषेध नहीं किया गया है क्योंकि शास्त्र में अन्यत्र नमन करने के नियम का कोई प्रतिषेध नहीं है अथवा सभी क्रियाकर्म चतु:शिर अर्थात् चतु:प्रधान होता है क्योंकि अरिहंत, सिद्ध, साधु और धर्म को प्रधान करके सब क्रियाकर्मों की प्रवृत्ति देखी जाती है। सामायिक और थोस्सामि दण्डक के आदि और अन्त में मन , वचन और काय की विशुद्धि के परावर्तन वार बारह होते हैं इसलिये एक क्रियाकर्म बारह आवर्त से युक्त कहा है। यह सब ही क्रियाकर्म है।
विशेष-यहाँ मूल पंक्ति में ‘‘सामइियदंडएण अप्पसुद्धिं काऊण सकसायदेहुस्सग्गं करिय’’ सामायिकदण्डक के द्वारा आत्मशुद्धि करके कषायसहित देह का उत्सर्ग-कायोत्सर्ग करना। यहाँ कायोत्सर्ग से
२७ श्वासोच्छ्वास में ९ बार णमोकार मंत्र का जाप्य करना यह कायोत्सर्ग कहलाता है।