अस्मिन्स्थाने यदेतत्सूत्रं स्थापितं तद्व्याख्यातमिदानीं कतिवारं कृतिकर्म कर्तव्यमिति यत्सूत्रं स्थापितं तद्व्याख्यानायाह–
चत्तारि पडिक्कमणे किदियम्मा तिण्णि होंति सजभकाए ।
पुव्वण्हे अवरण्हे किदियम्मा चोद्दसा होंति।।६०२।।
सामायिकस्तवपूर्वककायोत्सर्गश्चतुा\वशतितीर्थकरस्तवपर्यन्त: १कृतिकर्मेत्युच्यते। प्रतित्रâमणकाले चत्वारि तिर्यकमार्णिस्वाध्यायकाले च त्रीणि तिर्यकमार्णिभवंत्येवं पूर्वाण्हे तिर्यकमार्णिसप्त तथाऽपराण्हे च तिर्यकमार्णि सप्तैवं पूर्वाण्हेऽपराण्हे च तिर्यकमार्णिचतुर्दश भवंतीति। कथं तिर्यकमार्णिचत्वारि तिर्यकमार्णि, आलोचनाभक्तिकरणे कायोत्सर्ग एकं क्रियाकर्म तथा प्रतिक्रमणभक्तिकरणे कायोत्सर्ग: द्वितीयं क्रियाकर्म तथा२ वीरभक्तिकरणे ‘कायोत्सर्गस्तृतीयं तिर्यकमार्णितथा चतुा\वशतितीर्थकरभक्तिकरणे शांतिहेतो: कायोत्सर्गश्चतुर्थं कियाकर्म। कथं च स्वाध्याये त्रीणि तिर्यकमार्णि, श्रुतभक्तिकरणे कायोत्सर्ग एकं त्रिâयाकर्म तथाऽऽचार्यभक्ति-द्वितीयं तिर्यकमार्णि तथा स्वाध्यायोपसंहारे श्रुतभक्तिकरणे कायोत्सर्गस्तृतीयं क्रियाकर्मैवं जातिमपेक्ष्य त्रीणि तिर्यकमार्णि भवंति स्वाध्याये शेषाणां वंदनादित्रिâयाकर्मणामत्रैवान्तर्भावो द्रष्टव्य:। प्रधानपदोच्चारणं कृतं यत: पूर्वाह्वे दिवस इति एवमपराण्हे रात्रावपि द्रष्टव्यं भेदाभावात् अथवा पश्चिमरात्रौ तिर्यकमार्णितिर्यकमार्णिचत्वारि स्वाध्याये त्रीणि वंदनायां द्वे, सवितर्युदिते स्वाध्याये त्रीणि मध्याह्नवंदनायां द्वे एवं पूर्वाण्हतिर्यकमार्णि चतुदर्श भवन्ति; तथाऽपराण्हवेलायां स्वाध्याये त्रीणि तिर्यकमार्णि तिर्यकमार्णिचत्वारि वंदनायां द्वे योगभक्तिग्रहणोप-संहारकालयो: द्वे रात्रौ प्रथमस्वाध्याये त्रीणि। एवमपराण्हक्रियाकर्माणि चतुर्दश भवंति, प्रतित्रâमणस्वाध्यायकालयोरुपलक्षणत्वादिति, अन्यान्यपि त्रिâयाकर्माण्य-त्रैवान्तर्भवन्ति नाव्यापकत्वमिति संबन्ध:। पूर्वाण्हसमीपकाल: पूर्वाण्ह इत्युच्यते-ऽपराण्हसमीपकालोऽपराण्ह इत्युच्यते तस्मान्न दोष इति।।६०२।।
कत्यवनतिकरणमित्यादि यत्पृष्टं तदर्थमाह–
दोणदं तु जधाजादं बारसावत्तमेव य।
चदुस्सिरं तिसुद्धं च किदियम्मं पउंजदे।।६०३।।
दोणदं–द्वे अवनती पंचनमस्कारादावेकावनतिर्भूमिसंस्पर्शस्तथा चतुर्विंशति-स्तवादौ द्वितीयाऽवनति: शरीरनमनं द्वे अवनती जहाजादं-यथाजातं जातरूपसदृशं त्रâोधमानमायासंगादिरहितं। वारसावत्तमेव य द्वादशावर्त्ता एवं च पंचनमस्कारोच्चा-रणादौ मनोवचनकायानां संयमनानि शुभयोगवृत्तयस्त्रय आवर्त्तास्तथा पंचनमस्कार-समाप्तौ मनोवचनकायानां शुभवृत्तयस्रीण्यन्यान्यावर्त्तनानि तथा चतुर्विंशतिस्तवादौ मनोवचनकाया: शुभवृतस्त्रीण्यपराण्यावर्त्तनानि तथा चतुर्विंशतिस्तवसमाप्तौ शुभमनोवचनकायवृत्तयस्रीण्यावर्त्तनान्येवं द्वादशधा मनोवचनकायवृत्तयो द्वादशावर्त्ता भवति, अथवा चतसृषु दिक्षु चत्वार: प्रणामा एकस्मिन् भ्रमणे एवं त्रिषु भ्रमणेषु द्वादश भवंति, चदुस्सिरं चत्वारि शिरांसि पंचनमस्कारस्यादावंते च करमुकुलांकित- शिर:करणं तथा चतुा\वशतिस्तवस्यादावंते च करमुकुलांकितशिर:करणमेवं चत्वारि शिरांसि भवंति, त्रिशुद्धं मनोवचनकायशुद्धं तिर्यकरम प्रयुंक्ते करोति। द्वे अवनती यस्मिन्तत् द्व्यवनति तिर्यकरम द्वादशावर्त्ता: यस्ंिमस्तत् द्वादशावर्त्तं, मनोवचनकाय-शुद्ध्या चत्वारि शिरांसि यिंस्मन् तत् चतु:शिर:तिर्यकरम विशिष्टं यथाजातं तिर्यकरम प्रयुंजीतेति।।६०३।।
गाथार्थ-तिर्यकरम में चार कृतिकर्म, स्वाध्याय में तीन ये पूर्वाण्ह और अपराण्ह से सम्बन्धित ऐसे चौदह कृतिकर्म होते हैं।।६०२।।
आचारवृत्ति-सामायिक स्तवपूर्वक कायोत्सर्ग (९ बार णमोकार मंत्र का जाप्य) करके चतुर्विंशति तीर्थंकरस्तवपर्यंत जो क्रिया है उसे ‘कृतिकर्म’ कहते हैं। प्रतिकर्मण में चार कृतिकर्म और स्वाध्याय में तीन कृतिकर्म इस तरह पूर्वाण्ह सम्बन्धी त्रियाक्रम सात होते हैं तथा अपराण्ह सम्बन्धी क्रियाकर्म भी सात होते हैं। ऐसे चौदह त्रियाकर्म होते हैं।
प्रतिकर्मण में चार कृतिकर्म कैसे होते हैं ?
आलोचना भक्ति (सिद्धभक्ति) करने में कायोत्सर्ग होता है वह एक त्रियाक्रम हुआ। प्रतिकर्मण भक्ति के करने में कायोत्सर्ग होता है वह दूसरा त्रियाक्रम हुआ। वीर भक्ति के करने में जो कायोत्सर्ग है वह तृतीय त्रियाक्रम हुआ तथा चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति के करने में शान्ति के लिए जो कायोत्सर्ग है वह चतुर्थ त्रियाक्रम हुआ।
स्वाध्याय में तीन कृतिकर्म कैसे हैं ?
स्वाध्याय के प्रारम्भ में श्रुतभक्ति के करने में कायोत्सर्ग होता है, वह एक कृतिकर्म है तथा आचार्य भक्ति की त्रिâया करने में जो कायोत्सर्ग है वह दूसरा कृतिकर्म है तथा स्वाध्याय की समाप्ति में श्रुतभक्ति करने में जो कायोत्सर्ग है वह तीसरा कृतिकर्म है। इस तरह जाति की अपेक्षा तीन त्रिâयाकर्म स्वाध्याय में होते हैं। शेष वन्दना आदि त्रिâयाओं का इन्हीं में अन्तर्भाव हो जाता है। प्रधान पद का ग्रहण किया है जिससे पूर्वाण्ह कहने से दिवस का और अपराण्ह कहने से रात्रि का भी ग्रहण हो जाता है क्योंकि पूर्वाण्ह से दिवस में और अपराण्ह से रात्रि में कोई भेद नहीं है।
अथवा पश्चिम रात्रि के प्रतित्रâमण में त्रिâयाकर्म चार, स्वाध्याय में तीन और वन्दना में दो, सूर्य उदय होने के बाद स्वाध्याय के तीन, मध्यान्ह वन्दना के दो इस प्रकार से पूर्वाण्ह सम्बन्धी त्रिâयाकर्म चौदह होते हैं तथा अपराण्हबेला में स्वाध्याय में तीन त्रिâयाकर्म, प्रतिक्रमण में चार, वन्दना में दो, योगभक्ति ग्रहण और उपसंहार में दो एवं रात्रि में प्रथम स्वाध्याय के तीन इस तरह अपराण्ह सम्बन्धी क्रियाकर्म चौदह होते हैं। गाथा में प्रतित्रâमण और स्वाध्याय काल उपलक्षण रूप हैं इससे अन्य भी त्रिâयाकर्म इन्हीं में अन्तर्भूत हो जाते हैं अत: अव्यापक दोष नहीं आता है। चूंकि पूर्वाण्ह के समीप का काल पूर्वाण्ह कहलाता है और अपराण्ह के समीप का काल अपराण्ह कहलाता है इसलिए कोई दोष नहीं है।
भावार्थ-मुनि के अहोरात्र सम्बन्धी अट्ठाईस कायोत्सर्ग कहे गये हैं उन्हीं का यहाँ वर्णन किया गया है। यथा दैवसिक-रात्रिक इन दो प्रतित्रâमण सम्बन्धी कायोत्सर्ग ८, त्रिकालदेव वन्दना सम्बन्धी ६, पूर्वाण्ह, अपराण्ह तथा पूर्वरात्रि और अपररात्रि इन चार काल में तीन बार स्वाध्याय सम्बन्धी १२, रात्रियोग ग्रहण और विसर्जन इन दो समयों में दो बार योगभक्ति सम्बन्धी २, कुल मिलाकर २८ होते हैं। अन्यत्र ग्रन्थों में भी इनका उल्लेख है यथा-
स्वाध्याये द्वादशेष्टा षड्वन्दनेऽष्टौ प्रतित्रâमे।
कायोत्सर्गो योगभक्तौ द्वौ चाहोरात्रगोचरा:१।।७५।।
अर्थ–स्वाध्याय के बारह, वन्दना के छह, प्रतिक्रमण के आठ और योगभक्ति के दो ऐसे अहोरात्र सम्बन्धी अट्ठाईस कायोत्सर्ग होते हैं।
‘कितनी अवनति करना ?’ इत्यादि रूप जो प्रश्न हुए थे उन्हीं का उत्तर देते हैं-
गाथार्थ-जातरूप सदृश दो अवनति, बारह आवर्त, चार शिरोनति और तीन शुद्धि सहित कृतिकर्म का प्रयोग करें।।६०३।।
आचारवृत्ति-दो अवनति-पंच नमस्कार के आदि में एक बार अवनति अर्थात् भूमि स्पर्शनात्मक नमस्कार करना तथा चतुर्विंशति स्तव के आदि में दूसरी बार अवनति-शरीर का नमाना अर्थात् भूमिस्पर्शनात्मक नमस्कार करना ये दो अवनति हैं। यथाजात-जातरूप सदृश त्रâोध, मान, माया और संग-परिग्रह या लोभ आदि रहित कृतिकर्म को मुनि करते हैं। द्वादश आवर्त-पंच नमस्कार के उच्चारण के आदि में मन-वचन-काय के संयमन रूप शुभ योगों की प्रवृत्ति होना, ये तीन आवर्त पंचनमस्कार की समाप्ति में मन-वचन-काय की शुभ वृत्ति होना, ये तीन आवर्त तथा चतुर्विंशति स्तव की समाप्ति में शुभ मन-वचन-काय की प्रवृत्ति होना ये तीन आवर्त-ऐसे मन-वचन-काय की शुभ प्रवृत्ति रूप बारह आवर्त होते हैं अथवा चारों ही दिशाओं में चार प्रणाम एक भ्रमण में ऐसे तीन बार के भ्रमण में बारह हो जाते हैं।
चतु:शिर-पंच नमस्कार के आदि और अन्त में कर मुकुलित करके अंजलि जोड़कर माथे से लगाना तथा चतुर्विंशति स्तव के आदि और अन्त में कर मुकुलित करके माथे से लगाना ऐसे चार शिर-शिरोनति होती हैं।इस तरह इसे एक कृतिकर्म में दो अवनति, बारह आवर्त और चार शिरोनमन होते हैं। मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक मुनि इस विधानयुक्त यथाजात कृतिकर्म का प्रयोग करें।
विशेषार्थ-एक बार के कायोत्सर्ग में यह उपर्युक्त विधि की जाती है। उसी का नाम कृतिकर्म है। यह विधि देववन्दना, प्रतिक्रमण आदि सर्व त्रिâयाओं मे भक्तिपाठ के प्रारम्भ में की जाती है। जैसे-देववन्दना में चैत्यभक्ति के प्रारम्भ में-
‘अथ त्रियाक्रम -देववन्दनायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावन्दनास्तवसमेतं श्री चैत्यभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं।’
यह प्रतिज्ञा हुई, इसको बोलकर भूमि स्पर्शनात्मक पंचाग नमस्कार करें। यह एक अवनति हुई। अनन्तर ताrन आवर्त और एक शिरोनति करके ‘णमो अरिहंताणं……..चत्तारिमंगलंंं……अड्ढाइज्जदीव….. इत्यादि पाठ बोलते हुए …..दुच्चरियं वोस्सरामि’ तक पाठ बोले, यह सामायिकस्तव’ कहलाता है। पुन: तीन-तीन आवर्त और एक-एक शिरोनति होने से छह आवर्त और दो शिरोनति हुई। पुन: नौ बार णमोकार मन्त्र को सत्ताईस श्वासोच्छ्वास में जपकर भूमिस्पर्शनात्मक नमस्कार करें। इस तरह प्रतिज्ञा के अनन्तर और कायोत्सर्ग ऐसे दो बार अवनति हो गयीं।बाद में तीन आवर्त,एक शिरोनति करके ‘थोस्सामि स्तव’ पढ़कर अन्त में पुन: तीन आवर्त, एक शिरोनति करें। इस तरह चतुर्विंशति स्तव के आदि और अन्त में तीन -तीन आवर्त और एक-एक शिरोनति हो गयीं। ये सामायिक स्तव सम्बन्धी छह आवर्त, दो शिरोनति तथा चतुर्विंशतिस्तव सम्बन्धी छह आवर्त, दो शिरोनति मिलकर बारह आवर्त और चार शिरोनति हो गयीं।इस तरह एक कायोत्सर्ग के करने में दो प्रणाम, बारह आवर्त और चार शिरोनति होती हैं।जुड़ी हुई अंजुलि को दाहिनी तरफ से घुमाना सो आवर्त का लक्षण है, यहाँ पर टीकाकार ने मन-वचन-काय की शुभप्रवृत्ति का करना आवर्त कहा है जो कि उस त्रिâया के करने में होना ही चाहिए।
इतनी त्रिâयारूप कृतिकर्म को करके ‘जयतु भगवान इत्यादि ‘‘चैत्यभक्ति’’ का पाठ पढ़ना चाहिए। ऐसे ही जो भी भक्ति जिस त्रिâया में करना होती है तो यही विधि की जाती है।