कायोत्सर्गस्य मात्रान्तर्मुहूर्तोऽल्पा समोत्तमा।
शेषा गाथात्र्यंशचिन्तात्मोच्छ्वासैर्नैकधा मिता।।७१।।
उच्छ्वासाः स्युस्तनूत्सर्गे नियमान्ते दिनादिषु।
पञ्चस्वष्टशतार्धत्रिचतुःपञ्चशतप्रमाः ।।७२।।
अर्थ-कायोत्सर्ग का जघन्य काल अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल एक वर्ष प्रमाण है। शेष अर्थात् मध्य काल का प्रमाण गाथा के तीन अंशों के चिंतन में लगने वाले उच्छ्वासों के भेद से अनेक प्रकार है।।७१।।
अर्थ-दैवसिक आदि पांच प्रतिक्रमणों के अवसर पर वीरभक्ति करते समय जो कायोत्सर्ग किये जाते हैं उनमें क्रमशः एक सौ आठ, चउवन, तीन सौ, चार सौ, पांच सौ उच्छ्वास होते हैं अर्थात् दिन सम्बन्धी कायोत्सर्ग में एक सौ आठ, रात्रि सम्बन्धी कायोत्सर्ग में चउवन, पाक्षिक में तीन सौ, चातुर्मासिक में चार सौ और वार्षिक में पाँच सौ उच्छ्वास होते हैं।।७२।।
जिनेन्द्रमुद्रया गाथां ध्यायेत् प्रीतिविकस्वरे।
हृत्पंकजे प्रवेश्यान्तर्निरुध्य मनसाऽनिलम्।।२२।।
पृथग् द्विद्व्येकगाथांशचिन्तान्ते रेचयेच्छनैः।
नवकृत्वः प्रयोक्तैवं दहत्यंहः सुधीर्महत्।।२३।।
वाचाऽप्युपांशु व्युत्सर्गे कार्यो जप्यः स वाचिकः।
पुण्यं शतगुणं चैत्तः सहस्रगुणमावहेत्।।२४।।
अपराजितमंत्रो वै सर्वविघ्नविनाशनः।
मंङ्गलेषु च सर्वेषु प्रथमं मंगलम् मतः।।२५।।
नेष्टं विहन्तुं शुभभावभग्नरसप्रकर्षः प्रभुरन्तरायः।
तत्कामचारेण गुणानुरागान्नुत्यादिरिष्टार्थकृदर्हदादेः।।२६।।
प्रोच्य प्राग्वत्ततः साम्यस्वामिनां स्तोत्रदण्डकम्।
वंदनामुद्रया स्तुत्वा चैत्यानि त्रिप्रदक्षिणम्।।२७।।
आलोच्य पूर्ववत्पञ्चगुरून् नुत्वा स्थितस्तथा।
समाधिभक्त्याऽतमलः स्वस्य ध्यायेद् यथाबलम्।।२८।।
नात्मध्यानाद्विना किंचित्मुमुक्षोः कर्महीष्टकृत्।
किंत्वस्त्रपरिकर्मेव स्यात् कुण्ठस्याततायिनी।।२९।।
यः सूते परमानन्दं भूर्भूवःस्वर्भुजामपि।
काम्यं समाधिः कस्तस्य क्षमो माहात्म्यवर्णने१।।३०।।
अर्थ-कायोत्सर्ग में आनंद से विकसनशील हृदयरूपी कमल में मन के साथ प्राणवायु का प्रवेश कराकर और उसे वहाँ रोककर जिनमुद्रा के द्वारा ‘णमो अरिहंताणं’’ इत्यादि गाथा का ध्यान करे तथा गाथा के दो–दो और एक अंश का अलग–अलग चिंतन करके अंत में वायु को धीरे–धीरे बाहर निकाले। इस प्रकार अन्तर्दृष्टि संयमी नौ बार प्राणायाम करके बड़े से बड़े पाप को भस्म कर देता है।।२२–२३।।
अर्थ-जो साधु उक्त प्राणायाम करने में असमर्थ हैं उन्हें कायोत्सर्ग में दूसरा न सुन सके इस प्रकार वचन के द्वारा भी पञ्च नमस्कार मंत्र का जप करना चाहिए किन्तु दण्डक आदि के पाठ से जितने पुण्य का संचय होता है उसकी अपेक्षा यद्यपि वाचिक जाप से सौ गुणा पुण्य होता है तथापि मानसिक जप करने से हजार गुणा पुण्य होता है।।२४।।
अर्थ-यह पञ्चनमस्कार मंत्र स्पष्ट ही सब विघ्नों को नष्ट करने वाला है और सब मंगलों में मुख्य मंगल माना है।।२५।।
अर्थ-अन्तराय कर्म की इष्ट को घातने की शक्ति जब शुभ परिणामों के द्वारा नष्ट कर दी जाती है तो वह वांछित वस्तु की प्राप्ति में विघ्न डालने में असमर्थ हो जाता है इसलिए गुणों में अनुरागवश कर्ता अपनी इच्छानुसार अरहंत, सिद्ध आदि का जो स्तवन, नमस्कार आदि करता है उससे इच्छित प्रयोजन की सिद्धि होती है।।२६।।
चैत्यभक्ति और कायोत्सर्ग करने पर पहले शरीर को नम्र करके आदि में जो विधि कही है उसी के अनुसार सामायिक के प्रयोक्ता चौबीस तीर्थंकरों की भक्ति में तन्मय होकर ‘थोस्सामि’’ इत्यादि स्तोत्र दंडक को पढ़कर तीन प्रदक्षिणापूर्वक वंदनामुद्रा से जिनप्रतिमा का स्तवन करे। फिर पहले की तरह पंचांग नमस्कार करके खड़े होकर ‘इच्छामि भंते पंचगुरुभत्तिकाउसग्गो कओ तस्स आलोचेउं’ हे भगवन्, मैंने पंचगुरुभक्तिपूर्वक कायोत्सर्ग किया, मैं उसकी आलोचना करना चाहता हूँ, इत्यादि बोलकर आलोचना करे। फिर क्रिया की विज्ञापना आदि करके वंदनामुद्रापूर्वक पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करके समाधि भक्ति के द्वारा वंदना सम्बन्धी अतिचारों को दूर करे। फिर यथाशक्ति आत्म ध्यान करे।।२७–२८।।
अर्थ-आत्मध्यान के बिना मोक्ष के इच्छुक साधु की कोई भी क्रिया मोक्ष की साधक नहीं हो सकती। फिर भी मुमुक्षु जो आत्मध्यान को छोड़कर अन्य क्रियाएँ करता है वह उसी तरह है जैसे मारने के लिए तत्पर शत्रु के विषय में आलसी मनुष्य शास्त्राभ्यास करता है।।२९।।
अर्थ-जो समाधि अधोलोक, मध्यलोक और स्वर्गलोक के स्वामियों के लिए भी चाहने योग्य परम आनंद को देती है, उस समाधि का माहात्म्य वर्णन करने में कौन समर्थ है ? अर्थात् कोई भी समर्थ नहीं है।।३०।।