तथा तेन प्रकारेण विहरतो भ्रमतस्तस्य जीवंधरस्य अग्रतः पुरस्तात् क्वचित् कुत्रापि अग्रजन्मनां ब्राह्मणानाम् अतिमहान् भूयिष्ठतरः कोलाहलः कलकलशब्दः प्रावर्तत। तं कोलाहलम् आकर्ण्य निशम्य समित्रे ससुहृदि पवित्रचारित्रे पूताचारे अस्मिन् जीवंधरे तदभ्यर्णं कोलाहलपार्श्वम् अभिपतति गच्छति सति क्वचित् आदरेण निष्पादितो निर्मितो य आहारस्तस्याघ्राणेन नासाविषयीकरणेन कुपिता रुष्टा ये धरणीसुरा विप्रास्तेषां करतले पाणितले कलितैर्धृतैदण्डोपलैर्दण्डपाषाणै-र्घट्टनेन ताडनेन विघटिता खण्डिता तनुर्गात्रं यस्य सः, अतनुवेदनायास्तीव्रपीडाया वेगेनोत्क्रामन्तो निःसरन्तोऽसवः प्राणा यस्य स सारमेयो रात्रिजागरः अक्ष्णोर्नयनयोः सरणिं मार्गम् आससार आजगाम।
तन्निरीक्षणेति–तस्य सारमेयस्य निरीक्षणक्षणे विलोकनवेलायामुप-जृम्भमाणा वर्धमाना करुणा दया यस्य तथाभूतः कारुणिकानां दयालूनां ‘स्याद्दयालुः कारुणिकः’ इत्यमरः, अग्रेसरः प्रमुखः कुमारो जीवकः ‘अयं सारमेयं कुक्कुरोऽपगतासु प्रायतया मृतप्रायत्वेन प्रत्युज्जीवयितुं पुनर्जीवितं कर्तुमशक्य’ इति निर्णीय निश्चित्य तत्कर्णमूले तच्छ्रवणसमीपे सादरं सत्त्वरं सशैघ््रयं सानुक्रोशं सदयञ्च ‘क्रपानुकम्पानुक्रोशो हन्तोक्तिः करुणा दया’ इति धनञ्जयः मूलमंत्रं–
‘णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।
इत्याकारकं पंचनमस्कारमन्त्रं उपादिक्षत्। उपदिष्टं च मूलमंत्रं दिष्ट्या भाग्येन सावस्था यस्य तदवस्थोऽपि तथाभूतोऽपि सारमेयः तरलितवाल-धिश्चलितपुच्छः उत्कर्णं उन्नमितश्रवणः समाकर्णयन्नेव शृण्वन्नेव शरीरम् अत्याक्षीत् अम्रियत। प्राविक्षच्च दैवीं देवसम्बंधिनीं तनुं शरीरम्।अर्थ-तदन्तर उस प्रकार विहार करते हुए जीवन्धर कुमार के आगे कहीं ब्राह्मणों का बहुत भारी कोलाहल प्रवृत्त हुआ। उस कोलाहल को सुनकर पवित्र चारित्र के धारक जीवन्धर कुमार ज्यों ही अपने मित्रों के साथ उस कोलाहल के निकट पहुँचे, त्यों ही कहीं आदरपूर्वक बनाए हुए आहार को सूंघ लेने मात्र से कुपित ब्राह्मणों के हस्ततलों में स्थित डण्डोें और पत्थरों की मार से जिसका शरीर टूट रहा था तथा बहुत भारी वेदना के वेग से जिसके प्राण निकले जा रहे थे, ऐसा एक कुत्ता उनके नेत्रों के मार्ग में आया-उन्हें दिखाई दिया। उसके देखने के क्षण ही जिनकी करुणा बढ़ने लगी थी तथा जो दयालु मनुष्यों में अग्रेसर-प्रधान थे, ऐसे जीवन्धर कुमार, ‘प्राय: प्राण निकल जाने से यह कुत्ता जीवित नहीं किया जा सकता’ यह निर्णय कर उसके कर्णमूल में आदरपूर्वक शीघ्रता और दया के साथ णमोकार मंत्र का उपदेश देने लगे। उस कुत्ते का भाग्य अच्छा था इसलिए वैसी अवस्था होने पर भी उसने पूंछ हिलाकर तथा कान खड़े कर उस उपदिष्ट मंत्र को सुना और सुनते-सुनते ही शरीर का त्याग किया। शरीर त्याग के बाद वह देवों के शरीर में प्रविष्ट हुआ-मरकर देव हुआ।