लवणसमुद्र जंबूद्वीप को चारों ओर से घेरे हुए खाई के सदृश गोल है, इसका विस्तार दो लाख योजन प्रमाण है। एक नाव के ऊपर अधोमुखी दूसरी नाव के रखने से जैसा आकार होता है उसी प्रकार वह समुद्र चारों ओर आकाश में मण्डलाकार से स्थित है। उस समुद्र का विस्तार ऊपर दस हजार योजन और चित्रा पृथ्वी के समभाग में दो लाख योजन है। समुद्र के नीचे दोनों तटों में से प्रत्येक तट से पंचानवे हजार योजन प्रवेश करने पर दोनों और से एक हजार योजन की गहराई में तल विस्तार दस हजार योजन मात्र है।समभूमि से आकाश में इसकी जलशिखा है,यह अमावस्या के दिन समभूमि से ११००० योजन प्रमाण ऊंची रहती है। वह शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन क्रमश: वृद्धि को प्राप्त होकर पूर्णिमा के दिन १६००० योजन प्रमाण ऊंची हो जाती है। इस प्रकार जल के विस्तार में १६००० योजन की ऊँचाई पर दोनों ओर समान रूप से १,९०,००० योजन की हानि हो गई है। यहाँ प्रतियोजन की ऊँचाई पर होने वाली वृद्धि का प्रमाण ११-७/८ योजन प्रमाण है।
गहराई की अपेक्षा रत्नवेदिका से ९५ प्रदेश आगे जाकर एक प्रदेश की गहराई है, ऐसे ९५ अंगुल जाकर एक अंगुल, ९५ हाथ जाकर एक हाथ, ९५ कोस जाकर एक कोस एवं ९५ योजन जाकर एक योजन की गहराई हो गई है। इसी प्रकार से ९५ हजार योजन जाकर १००० योजन की गहराई हो गई अर्थात् लवण समुद्र के समजल भाग से समुद्र का जल एक योजन नीचे जाने पर एक तरफ से विस्तार में ९५ योजन हानिरूप हुआ है। इसी क्रम से एक प्रदेश नीचे जाकर प्रदेशों की, एक अंगुल नीचे जाकर ९५ अंगुलों की, एक हाथ नीचे जाकर ९५ हाथों की भी हानि समझ लेना चाहिये।
अमावस्या के दिन उक्त जलशिखा की ऊँचाई ११००० योजन होती है। पूर्णिमा के दिन वह उससे ५००० योजन बढ़ जाती है अत: ५००० के १५ वें भाग प्रमाण क्रमश: प्रतिदिन ऊँचाई में वृद्धि होती है।
१६०००-११०००/१५·५०००/१५, ५०००/१५·३३३, १/३ योजन-तीन सौ तेतीस से कुछ अधिक प्रमाण प्रतिदिन वृद्धि होती है।
समुद्र के मध्य में पाताल-लवण समुद्र के मध्य भाग में चारों ओर उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य ऐसे १००८ पाताल हैं। ज्येष्ठ पाताल ४, मध्यम ४ और जघन्य १००० हैं। उत्कृष्ट पाताल चार दिशाओं में चार हैं, मध्यम पाताल ४ विदिशाओं में ४ एवं उत्कृष्ट मध्यम के मध्य में ८ अन्तर दिशाओं में १००० जघन्य पाताल हैं।
४ उत्कृष्ट पाताल-उस समुद्र के मध्य भाग में पूर्वादि दिशाओं के क्रम से पाताल, कदम्बक, वड़वामुख और यूपकेसर नामक चार पाताल हैं। इन पातालों का विस्तार मूल में और मुख में १००० योजन प्रमाण है। इनकी गहराई, ऊँचाई और मध्यविस्तार मूल विस्तार से दस गुणा-१००००० योजन प्रमाण है। पातालों की वङ्कामय भित्तिका ५०० योजन मोटी है। ये पाताल जिनेन्द्र भगवान द्वारा अरंजन-घट विशेष के समान कहे गये हैं। पाताल के उपरिम त्रिभाग में सदा जल रहता है, उनके मूल के त्रिभाग में घनी वायु और मध्य त्रिभाग में क्रम से जल, वायु दोनों रहते हैं। सभी पातालों के पवन सर्वकाल शुक्ल पक्षों में स्वभाव से बढ़ते हैं एवं कृष्ण पक्ष में स्वभाव से घटते हैं। शुक्ल पक्ष में पूर्णिमा तक प्रतिदिन २२२२-२/९ योजन पवन की वृद्धि हुआ करती है। पूर्णिमा के दिन पातालों के अपने-अपने तीन भागों में से नीचे के दो भागों में वायुु और ऊपर के तृतीय भाग में केवल जल रहता है। अमावस्या के दिन अपने-अपने तीन भागों में से क्रमश: ऊपर के दो भागों में जल और नीचे के तीसरे भाग में केवल वायु स्थित रहता है। पातालों के अन्त में अपने-अपने मुख विस्तार को ५ से गुणा करने पर जो प्राप्त हो, उतने प्रमाण आकाश में अपने-अपने पार्श्व भागों में जलकण जाते हैं। ‘‘तत्त्वार्थराजवार्तिक’’ ग्रंथ में जलवृद्धि का कारण किन्नरियों का नृत्य बतलाया है। यथा-‘‘ रत्नप्रभाखरपृथ्वी-भाग सन्नि-वेशिभवनालयवातकुमार-तद्वनिताक्रीडा-जनितानिलसंक्षोभकृतपातालोन्मीलननिमीलनहेतुकौ वायुतोयनिष्क्रमप्रवेशौ भवत:। तत्कृता दशयोजनसहस्रविस्तारमुखजल-स्योपरि पंचाशद्योजनावधृता जलवृद्धि:। तत उभयत आरत्नवेदिकाया: सर्वत्र द्विगव्यूतिप्रमाणा जलवृद्धि:। पातालोन्मीलन-वेगोपशमेन हानि:।
अर्थ-रत्नप्रभा पृथ्वी के खरभाग में रहने वाली वातकुमार देवियों की क्रीडा से क्षुब्ध वायु के कारण ५०० योजन जल की वृद्धि होती है अर्थात् वायु और जल का निष्क्रम और प्रवेश होता है और दोनों तरफ रत्नवेदिका पर्यन्त सर्वत्र दो गव्यूति प्रमाण जलवृद्धि होती है। पाताल के उन्मीलन के वेग की शांति से जल की हानि होती है। इन पातालों का तीसरा भाग १०००००/३·३३३३३-१/३ योजन प्रमाण है।
ज्येष्ठ पाताल सीमंत बिल के उपरिम भाग से संलग्न हैं अर्थात् ये पाताल भी मृदंग के आकार के गोल हैं, समभूमि से नीचे की गहराई का जो प्रमाण है वह इन पातालों की ऊँचाई है। यदि प्रश्न यह होवे कि एक लाख योजन तक इनकी गहराई समतल से नीचे वैâसे होगी ? तो उसका समाधान यह है कि रत्नप्रभा पृथ्वी एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी है, वहाँ खरभाग, पंकभाग पर्यन्त ये पाताल पहुँचे हुए ऊँचे गहरे हैं।
४ मध्यम पाताल-विदिशाओं में भी इनके समान चार पाताल हैं, उनका मुख विस्तार और मूल विस्तार १००० योजन तथा मध्य में और ऊँचाई, गहराई में १०,००० योजन है, इनकी वङ्कामय भित्ति ५० योजन प्रमाण है। इन पातालों के उपरिम तृतीय भाग में जल, नीचे के तृतीय भाग में वायु, मध्य के तृतीय भाग में जल, वायु दोनाें रहते हैं। पातालों की गहराई-ऊँचाई १०,००० योजन है, १०,०००/३·३३३३-१/३ पातालों का तृतीय भाग तीन हजार तीस सौ तेतीस से कुछ अधिक है। इनमें प्रतिदिन होने वाली जलवायु की हानि-वृद्धि का प्रमाण २२२-२/९ योजन प्रमाण है।
१००० जघन्य पाताल-उत्तम, मध्यम पातालों के मध्य में आठ अन्तर दिशाओं में एक हजार जघन्य पाताल हैं। मध्यम पाातालों की अपेक्षा दसवें भाग मात्र है अर्थात् मुख और मूल में ये पाताल १०० योजन हैं। मध्य में चौड़े और गहरे १००० योजन प्रमाण हैं। इनमें भी उपरिम त्रिभाग में जल, नीचे में वायु और मध्य में जलवायु दोनों हैं। इनका त्रिभाग ३३३-१/३ योजन है और प्रतिदिन जलवायु की हानि-वृद्धि २२-२/९ योजन मात्र है।
नागकुमार देवों के १,४२,००० नगर-लवणसमुद्र के बाह्य भाग में ७२०००, शिखर पर २८००० और अभ्यन्तर भाग में ४२००० नगर अवस्थित हैं। समुद्र के अभ्यन्तर भाग की वेला की रक्षा करने वाले वेलंधर नागकुमार देवों के नगर ४२००० हैं। जलशिखा को धारण करने वाले नागकुमार देवों के २८००० नगर हैं एवं समुद्र के बाह्य भाग की रक्षा करने वाले नागकुमार देवों के ७२००० नगर हैं।
ये नगर दोनों तटों से ७०० योजन जाकर तथा शिखर से ७००-१/२ योजन जाकर आकाश तल में स्थित हैं। इनका विस्तार १०,००० योजन प्रमाण है। नगरियों के तट उत्तम रत्नों से निर्मित समान गोल हैं। प्रत्येक नगरियों में ध्वजाओं, तोरणों से सहित दिव्य तट वेदियाँ हैं। उन नगरियों में उत्तम वैभव से सहित वेलंधर और भुजग देवों के प्रासाद स्थित हैं। जिनमंदिरों से रमणीय, वापी, उपवनों से सहित इन नगरियों का वर्णन बहुत ही सुन्दर है, ये नगरियाँ अनादिनिधन हैं।
उत्कृष्ट पाताल के आसपास के ८ पर्वत-समुद्र के दोनों किनारों में बयालीस हजार योजन प्रमाण प्रवेश करके पातालों के पार्श्व भागों में आठ पर्वत हैं। (ऊपर) तट से ४२००० योजन आगे समुद्र में जाकर ‘‘पाताल’’ के पश्चिम दिशा में कौस्तुभ और पूर्व दिशा में कौस्तुभास नाम के दो पर्वत हैं। ये दोनों पर्वत रजतमय,धवल, १००० योजन ऊँचे, अर्धघट के समान आकार वाले वङ्कामय मूल भाग से सहित, नाना रत्नमय अग्रभाग से सुशोभित हैं। प्रत्येक पर्वत का तिरछा विस्तार एक लाख सोलह हजार योजन है। इस प्रकार से जगती से पर्वतों तक तथा पर्वतों का विस्तार मिलाकर दो लाख योजन होता है। पर्वत का विस्तार १,१६०००। जगती से पर्वत का अंतराल ४२०००± ४२००० · ८४००० । १,१६००० ± ८४००० · २,०००००।
ये पर्वत मध्य में रजतमय हैं, इनके ऊपर इन्हीं के नाम वाले कौस्तुभ ,कौस्तुभास देव रहते हैं। इनकी आयु, अवगाहना आदि विजयदेव के समान है। कदंब पाताल की उत्तर दिशा में उदक नामक पर्वत और दक्षिण दिशा में उदकाभास नामक पर्वत हैं। ये दोनों पर्वत नीलमणि जैसे वर्ण वाले हैं। इन पर्वतों के ऊपर क्रम से शिव और शिवदेव निवास करते हैं। इनकी आयु आदि कौस्तुभदेव के समान है।
बड़वामुख पाताल की पूर्व दिशा में शंख और पश्चिम दिशा में महाशंख नामक पर्वत हैं। ये दोनों ही शंख के समान वर्ण वाले हैं। इन पर उदक, उदकावास देव स्थित हैं, इनका वर्णन पूर्वोक्त सदृश है। यूपकेसरी के दक्षिण भाग में दक नामक पर्वत और उत्तरभाग में दकवास नामक पर्वत हैं। ये दोनों पर्वत वैडूर्यमणिमय हैं। इनके ऊपर क्रम से लोहित, लोहितांक देव रहते हैं।
८ सूर्यद्वीप हैं-जंबूद्वीप की जगती से बयालीस हजार योजन जाकर ‘‘सूर्यद्वीप’’ नाम से प्रसिद्ध आठ द्वीप हैं। ये द्वीप पूर्व में कहे हुए कौस्तुभ आदि पर्वतों के दोनों पार्श्वभागों में स्थित होकर निकले हुए मणिमय दीपकों से युक्त शोभायमान हैं। त्रिलोकसार में १६ ‘‘चन्द्रद्वीप’’ भी माने गये हैं। यथा-अभ्यन्तर तट और बाह्य तट दोनों से ४२००० योजन छोड़कर चारों विदिशाओं के दोनों पार्श्वभागों में दो-दो, ऐसे आठ ‘‘सूर्यद्वीप’’ हैं। और दिशा-विदिशा के बीच में जो आठ अन्तरदिशायें हैं, उनके दोनों पार्श्व भागों में दो-दो, ऐसे १६ ‘‘चन्द्रद्वीप’’ नामक द्वीप हैं। ये सब द्वीप ४२००० योजन व्यास वाले और गोल आकार वाले हैं। यहाँ द्वीप से ‘‘टापू’’ को समझना।समुद्र में गौतम द्वीप का वर्णन-लवण समुद्र के अभ्यन्तर तट से १२००० योजन आगे जाकर १२००० योजन ऊँचा एवं इतने ही प्रमाण व्यास वाला, गोलाकार गौतम नामक द्वीप है जो कि समुद्र में ‘‘वायव्य’’ विदिशा में है। ये उपर्युक्त सभी द्वीप वन, उपवन, वेदिकाओं से रम्य हैं और ‘‘जिनमंदिर’’ से सहित हैं। उन द्वीपों के स्वामी वेलंंधर जाति के नागकुमार देव हैं। वे अपने-अपने द्वीप के समान नाम के धारक हैं।
मागधद्वीप आदि का वर्णन-भरतक्षेत्र के पास समुद्र के दक्षिण तट से संख्यात योजन जाकर आगे मागध, वरतनु और प्रभास नाम के तीन द्वीप हैं अर्थात् गंगा नदी के तोरणद्वार से आगे कितने ही योजन प्रमाण समुद्र में जाने पर ‘‘मागध’’ द्वीप है। जंबूद्वीप के दक्षिण वैजयंत द्वार से कितने ही योजन समुद्र में जाने पर ‘‘वरतनु’’ द्वीप है एवं सिंधु नदी के तोरण से कितने ही योजन जाकर ‘‘प्रभास’’ द्वीप है। इन द्वीपों में इन्हीं नाम के देव रहते हैं। इन देवों को भरतक्षेत्र के चक्रवर्ती वश में करते हैं।ऐसे ही ऐरावत क्षेत्र के उत्तर भाग में रक्तोदा नदी के पार्श्व भाग में समुद्र के अन्दर ‘‘मागध’’ द्वीप, अपराजित द्वार से आगे ‘‘वरतनु’’ द्वीप एवं रक्ता नदी के आगे कुछ दूर जाकर ‘‘प्रभास’’ द्वीप है जो कि ऐरावत क्षेत्र के चक्रवर्तियों के द्वारा जीते जाते हैं।
४८ कुमानुषद्वीप-लवणसमुद्र में कुमानुषों के ४८ द्वीप हैं। इनमें से २४ द्वीप तो अभ्यन्तर भाग में एवं २४ द्वीप बाह्यभाग में स्थित हैं। जंबूद्वीप की जगती से ५००० योजन आगे जाकर ४ द्वीप चारों दिशाओं में और इतने ही योजन जाकर चार द्वीप चारों विदिशाओं में हैं। जंबूद्वीप की जगती से ५५० योजन आगे जाकर दिशा, विदिशा की अन्तर दिशाओं में ८ द्वीप हैं। हिमवन्, विजयार्ध पर्वत के दोनों किनारों में जगती से ६००० योजन जाकर ४ द्वीप एवं उत्तर में शिखरी और विजयार्ध के दोनों पार्श्व भागों से ६०० योजन अन्तर समुद्र में जाकर ४ द्वीप हैं।
दिशागत द्वीप १०० योजन प्रमाण विस्तार वाले हैं, ऐसे ही विदिशागत द्वीप ५५ योजन विस्तृत, अन्तरदिशागत द्वीप ५० योजन विस्तृत एवं पर्वत के पार्श्वगत द्वीप २५ योजन विस्तृत हैं।
ये सब उत्तम द्वीप वनखंड, तालाबों से रमणीय, फल फूलोें के भार से संयुक्त तथा मधुर रस एवं जल से परिपूर्ण हैं। यहाँ कुभोगभूमि की व्यवस्था है। यहाँ पर जन्म लेने वाले मनुष्य ‘‘कुमानुष’’ कहलाते हैं और विकृत आकार वाले होते हैं। पूर्वादिक दिशाओं में स्थित चार द्वीपों के कुमानुष क्रम से एक जंघा वाले, पूँछ वाले, सींग वाले और गूंगे होते हैं। आग्नेय आदि विदिशाओं के कुमानुष क्रमश: शष्कुलीकर्ण, कर्णप्रावरण, लम्बकर्ण और शशकर्ण होते हैं। अन्तर दिशाओं में स्थित आठ द्वीपों के वे कुमानुष क्रम से सिंह, अश्व, श्वान, महिष, वराह, शार्दूल, घूक और बंदर के समान मुख वाले होते हैं। हिमवान् पर्वत के पूर्व-पश्चिम किनारों में क्रम से मत्स्यमुख, कालमुख तथा दक्षिण विजयार्ध के किनारों में मेषमुख, गोमुख कुमानुष होते हैं। शिखरी पर्वत के पूर्व पश्चिम किनारों पर क्रम से मेघमुख, विद्युन्मुख तथा उत्तर विजयार्ध के किनारों पर आदर्शमुख, हस्तिमुख कुमानुष होते हैं। इन सबमें से एकोरुक कुमानुष गुफाओं में होते हैं और मिष्ट मिट्टी को खाते हैं। शेष कुमानुष वृक्षों के नीचे रहकर फल फूलों से जीवन व्यतीत करते हैं।इस प्रकार से दिशागत द्वीप ४, विदिशागत ४, अन्तर दिशागत ८, पर्वत तटगत ८। ४±४±८±८·२४ अंतर्द्वीप हुए हैं, ऐसे ही लवण समुद्र के बाह्य भाग के भी २४ द्वीप मिलकर २४±२४·४८ अन्तर्द्वीप लवण समुद्र में हैं।
कुभोगभूमि में जन्म लेने के कारण-मिथ्यात्व में रत, मन्दकषायी, मिथ्यादेवों की भक्ति में तत्पर, विषम पंचाग्नि तप तपने वाले, सम्यक्त्व रत्न से रहित जीव मरकर कुमानुष होते हैं। जो लोग तीव्र अभिमान से गर्वित होकर सम्यक्त्व और तप से युक्त साधुओं का किच्ािंत् अपमान करते हैं, जो दिगंबर साधु की निंदा करते हैं, ऋद्धि रस आदि गौरव से युक्त होकर दोषों की आलोचना गुरु के पास नहीं करते हैं, गुरुओं के साथ स्वाध्याय वंदना कर्म नहीं करते हैं, जो मुनि एकाकी विचरण करते हैं, क्रोध कलह से सहित हैं, अरहंत गुरु आदि की भक्ति से रहित, चतुर्विध संघ में वात्सल्य से रहित, मौन बिना भोजन करने वाले हैं, जो पाप में संलग्न हैं वे मृत्यु को प्राप्त होकर विषम परिपाक वाले, पाप कर्मों के फल से इन द्वीपों में कुत्सित रूप से युक्त कुमानुष उत्पन्न होते हैं। त्रिलोकसार में भी यह कहा है-
दुब्भावअसूचिसूदकपुफ्फवई-जाइसंकरादीहिं।
कयदाणा वि कुवत्ते जीवा कुणरेसु जायंते।।९२४।।
अर्थ-खोटे भाव से सहित, अपवित्र, मृतादि के सूतक पातक से सहित, रजस्वला स्त्री के संसर्ग से सहित, जातिसंकर आदि दोषों से दूषित मनुष्य जो दान करते हैं और जो कुपात्रों में दान देते हैं ये जीव कुमानुष में उत्पन्न होते हैं क्योंकि ये जीव मिथ्यात्व और पाप से रहित किंचित् पुण्य उपार्जन करते हैं अत: कुत्सित भोगभूमि में जन्म लेते हैं। इनकी आयु एक पल्य प्रमाण रहती है। एक कोस ऊँचे शरीर वाले हैं युगलियाँ होते हैं। मरकर नियम से भवनत्रिक देवों में जन्म लेते हैं। कदाचित् सम्यक्त्व को प्राप्त करके ये कुमानुष सौधर्म युगल में जन्म लेते हैं।
लवण समुद्र के दोनों ओर तट हैं। लवणसमुद्र में ही पाताल है अन्य समुद्रों में नहीं है। लवण समुद्र के जल की गहराई और ऊँचाई में हीनाधिकता है अन्य समुद्रों के जल में नहीं है। सभी समुद्रों के जल की गहराई सर्वत्र हजार योजन है और ऊपर में जल समतल प्रमाण है। लवणसमुद्र का जल खारा है। लवणसमुद्र में जलचर जीव पाये जाते हैं, लवणसमुद्र के मत्स्य नदी के गिरने के स्थान पर ९ योजन अवगाहना वाले एवं मध्य में १८ योजन प्रमाण हैं। इसमें कछुआ, शिंशमार, मगर आदि जलजंतु भरे हैं। पद्मपुराण में रावण की लंका को लवणसमुद्र में माना है अत: इस समुद्र में और भी अनेकों द्वीप हैं जैसा कि पद्मपुराण से स्पष्ट है।
यथा-अस्त्यत्र लवणांभोधौ क्रूरग्राहसमाकुलै:।
प्रख्यातो राक्षसद्वीप: प्रभूताद्भूतसंकुल:।।१०६।।
शतानिसप्त……………………….१०७ से ११० तक पद्म पुराण, ४८ पर्व।
अर्थ-दुष्ट मगरमच्छों से भरे हुए इस लवणसमुद्र में अनेक आश्चर्यकारी स्थानों से युक्त प्रसिद्ध ‘‘राक्षसद्वीप’’ है, जो सब ओर सात योजन विस्तृत है तथा कुछ अधिक इक्कीस योजन उसकी परिधि है। उसके बीच में सुमेरु पर्वत के समान त्रिकूट नाम का पर्वत है जो नौ योजन ऊँचा और ५० योजन चौड़ा है, सुवर्ण तथा नाना प्रकार की मणियों से देदीप्यमान एवं शिलाओं के समूह से व्याप्त है। राक्षसों के इन्द्र भीम ने मेघवाहन के लिये वह दिया था। तट पर उत्पन्न हुए नाना प्रकार के चित्र-विचित्र वृक्षों से सुशोभित उस त्रिकूटाचल के शिखर पर लंका नाम की नगरी है जो मणि और रत्नों की किरणों तथा स्वर्ण के विमानों के समान मनोहर महलों से एवं क्रीडा आदि के योग्य सुन्दर प्रदेशों से अत्यंत शोभायमान है। जो सब ओर से तीस योजन चौड़ी है तथा बहुत बड़े प्राकार और परिखा से युक्त होने के कारण दूसरी पृथ्वी के समान जान पड़ती है।
लंंका के समीप में और भी ऐसे स्वाभाविक प्रदेश हैं जो रत्न, मणि तथा सुवर्ण से निर्मित हैं। वे सब प्रदेश उत्तमोत्तम नगरों से युक्त हैं, राक्षसों की क्रीडाभूमि हैं तथा महाभोगों से युक्त विद्याधरों से सहित हैं। संध्याकार सुबेल, कांचन, ह्रादन, योधन, हंस, हरिसागर और अर्धस्वर्ग आदि अन्य द्वीप भी वहाँ विद्यमान हैं, जो समस्त ऋद्धियों तथा भोगों को देने वाले हैं। वन-उपवन आदि से विभूषित हैं तथा स्वर्ण प्रदेशों के समान जान पड़ते हैं।
छठे पर्व में ६२ से ८२ तक वर्णन है-
इस लवणसमुद्र में बहुत से द्वीप हैं जहाँ कल्पवृक्षों के समान आकार वाले वृक्षों से दिशायें व्याप्त हो रही हैं। इन द्वीपों में अनेकों पर्वत हैं जो रत्नों से व्याप्त ऊँचे-ऊँचे शिखरों से सुशोभित हैं। राक्षसों के इन्द्र भीम, अतिभीम तथा उनके सिवाय अन्य देवों के द्वारा आपके वंशजों के लिए ये सब द्वीप और पर्वत दिये गये हैं ऐसा पूर्वपरंपरा से सुनने में आता है। उन द्वीपों में अनेक नगर हैं। उन नगरों के नाम-संध्याकार, मनोह्लाद, सुबेल, कांचन, हरियोधन, जलधिध्वान, हंसद्वीप, भरक्षम, अर्धस्वर्गोत्कट, आवर्त, विघट, रोधन, अमल, कांत, स्फुटतट, रत्नद्वीप, तोयावली, सर, अलंघन, नभोभानु और क्षेम इत्यादि सुन्दर-सुन्दर हैं।यहाँ वायव्य दिशा में समुद्र के बीच तीन सौ योजन विस्तार वाला, बड़ा भारी वानरद्वीप है। उसमें महामनोहर हजारों अवांतर द्वीप हैं। उस वानर द्वीप के मध्य में रत्न सुवर्ण की लम्बी, चौड़ी शिलाओं से सुशोभित ‘‘किष्कु’’ नाम का बड़ा भारी पर्वत है। जैसे यह त्रिकूटाचल है वैसे ही वह किष्कु पर्वत है इत्यादि। इस प्रकरण से यह ज्ञात होता है कि इस समुद्र में और भी अनेक द्वीप विद्यमान हैं।लवणसमुद्र की जगती ८ योजन ऊँची, मूल में १२ योजन, मध्य में ८ एवं ऊपर में ४ योजन प्रमाण विस्तार वाली है। इसके ऊपर वेदिका, वनखंड, देवनगर आदि का पूरा वर्णन जंबूद्वीप की जगती के समान है। इस जगती के अभ्यन्तरभाग में शिलापट्ट और बाह्यभाग में वन हैं। इस जगती की बाह्यपरिधि का प्रमाण १५८११३९ योजन प्रमाण है। यदि जंबूद्वीप प्रमाण १-१ लाख के खंड किये जावें तो इस लवण समुद्र के जंबूद्वीप प्रमाण २४ खंड हो जाते हैं।