अनन्तर लवणोदकपरिपालकानां भुजगानां विमानसंख्यां स्थानत्रयाश्रयेणाह—
बेलंधर भुजगविमाणाण सहस्साणि बाहिरे सिहरे।
अंते बावत्तरि अडवीसं बादालयं लवणे१।।९०३।।
बेलन्धरभुजगविमानानां सहस्राणि बाह्ये शिखरे।
अन्ते द्वासप्तति: अष्टविंशति: द्वाचत्वािंरशत् लवणे।।९०३।।
बेलं। जम्बूद्वीपापेक्षया लवणसमुद्रस्य बाह्ये शिखरे अभ्यन्तरे च यथासंख्यं वेलंधरभुजगानां विमानानि द्वासप्ततिसहस्राणि ७२००० अष्टाविंशतिसहस्राणि २८००० द्वाचत्वािंरशत्सहस्राणि ४२००० स्यु:।।९०३।।
अथ तद्विमानानामवस्थानविशेषं तद्व्यासं चाह—
दुतडादो सत्तसयं दुकोसअहियं च होइ सिहरादो।
णयराणि हु गयणतले जोयणदसगुणसहस्सवासाणि।।९०४।।
द्वितटात् सप्तशत द्विक्रोशाधिकं च भवति शिखरात्।
नगराणि हि गगनतले योजनदशगुणसहस्रव्यासानि।।९०४।।
दुतडा। लवणसमुद्रस्योभयतटात्सप्तशतयोजनानि ७०० तच्छिखराच्च द्विक्रोशाधिकानि सप्तशतयोजनानि ७०० क्रो २ त्यक्त्वा गगनतले दशसहस्रयोजनव्यासानि १०००० नगराणि सन्ति।।९०४।।
अब लवणोदक समुद्र के प्रतिपालक नागकुमार देवों के विमानों की संख्या को तीन स्थानों के आश्रय से कहते हैं—
गाथार्थ :—लवण समुद्र के बाह्य में, शिखर में और अभ्यन्तर में बेलन्धर जाति के नागकुमार देवों के विमान क्रम से बहत्तर हजार, अट्ठाईस हजार और बयालीस हजार हैं।।९०३।।
विशेषार्थ :—जम्बूद्वीप की अपेक्षा लवण समुद्र के बाह्य में, बेलन्धर जाति के नागकुमार देवों के ७२००० विमान हैं। शिखर में (१६००० उँâची जलराशि के ऊपर) २८००० और अभ्यन्तर में ४२००० विमान हैं।
अब उन विमानों का अवस्थानविशेष और व्यास कहते हैं—
गाथार्थ :—लवण समुद्र के दोनों (बाह्य, अभ्यन्तर) तटों से सात-सात सौ योजन और शिखर से दो कोस अधिक सात सौ योजन ऊपर जाकर अर्थात् जल से ऊपर मात्र आकाश में दस-दस हजार (प्रत्येक) योजन व्यास वाले नगर हैं।।९०४।।