बादालीस सहस्सा गंतूणं जोयणाणि वेदीदो।
बेलंधरदेवाणं अट्ठेव य पव्वदा होंति१।।२७।।
जोयणसहस्सतुंगा कलसद्धसमाणभासुरा विउला।
वणवेदिएिंह जुत्ता वरतोरणमंडिया दिव्वा।।२८।।
वलयामुहाण णेया दो दो पासेसु होंति णायव्वा।
अक्खयअणाइणिहणा णाणामणिरयणपरिणामा।।२९।।
पुव्वेण होंति णेया कोत्थुभणामा णगा हु कणयमया।
कोत्थुभणामसुिंरदा वसंति वेलंधरा तेसु।।३०।।
दक्खिणदिसेण णेया दगभासा अंकरयणमयसेला।
दगभासदेवसहिया बहुविहपासादसंच्छण्णा।।३१।।
पच्छिमदिसेण सेला रुप्पमया संखजुवलवरणामा।
संखजुगलाभिधाणा वसंति वेलंधरा देवा।।३२।।
उत्तरदिसेण णेया वेरुलियमया हवंति वरसेला।
दगसीमदेवसहिया दससीमा होंति णामेण।।३३।।
सव्वे वि वेदिसहिया वरतोरणमंडिया मणभिरामा।
धुव्वंतधयवडाया जिणभवणविहूसिया दिव्वा।।३४।।
पायालाणं णेया उभये पासेसु तह य सिहरेसु।
आयासे णिद्दिट्ठा पण्णगदेवाण णगराणि।।३५।।
बावत्तिंर सहस्सा बाहिरमब्भंतरं च बाचत्ता।
अग्गोदगं धरंता अट्ठावीसं सहस्साणि।।३६।।
एयं च सयसहस्सा भुजग सहस्साणि चेव बाचत्ता।
वेलासु दोसु अग्गोदगे य लवणम्हि अच्छंता।।३७।।
तत्तो वेदीदो पुण बादालसहस्स जोयणा गंतुं।
विदिसासु होंति दीवा बादालसहस्सवित्थिण्णा।।३८।।
दीवेसु तेसु णेया णगराणि हवंति रयणणिवहाणि।
णागाणं णिद्दिट्ठा गोउरपायारणिवहाणि।।३९।।
वेदी से बयालीस हजार योजन जाकर बेलंधर देवों के आठ पर्वत हैं।।२७।। एक हजार योजन ऊँचे, अर्ध कलश के समान भासुर, विशाल, वनवेदियों से युक्त, दिव्य और उत्तम तोरणों से मण्डित वे पर्वत वलयमुख (वडवामुख) प्रभृति पातालों के दो पार्श्व भागों में दो-दो हैं, ऐसा जानना चाहिए। ये पर्वत अक्षय, अनादिनिधन और नाना मणियों एवं रत्नों के परिणामरूप हैं।।२८-२९।।
इनमें से पूर्व की ओर कौस्तुभ (और कौस्तुभास) नामक सुवर्णमय पर्वत हैं। उनके ऊपर कौस्तुभ (और कौस्तुभास) नामक वेलंधर सुरेन्द्र रहते हैं।।३०।। दक्षिण दिशा की ओर (उदक और) उदकभास देवों से सहित तथा बहुत प्रकार के प्रासादों से व्याप्त अंकरत्नमय (उदक और) उदकभास नामक शैल जानना चाहिए।।३१।।
पश्चिम दिशा में उत्तम शंखयुगल (शंख व महाशंख) नाम वाले रजतमय शैल जानना चाहिए। इनके ऊपर शंखयुगल (शंख व महाशंख) नामक बेलंधर देव निवास करते हैं।।३२।। उत्तर दिशा में वैडूर्यमणिमय उदकसीम (उदक और उदवास) नाम उत्तम शैल हैं। इनके ऊपर उदकसीम (उदक और उदवास) नामक देव हैं।।३३।। सब ही दिव्य पर्वत वेदी से सहित, उत्तम तोरणों से मण्डित, मन को अभिराम, फहराती हुई ध्वजापताकाओं से सहित और जिनभवन से विभूषित हैं।।३४।। पातालों के उभय पार्श्व भागों में तथा शिखरों पर आकाश में पन्नग (नागकुमार) देवों के नगर निर्दिष्ट किए गए हैं।।३५।।
लवण समुद्र की बाह्य (धातकीखंड की ओर) वेला को धारण करने वाले बहत्तर हजार, अभ्यन्तर (जम्बूद्वीप की ओर) वेला को धारण करने वाले बयालीस हजार और अग्रोदक (जलशिखा) को धारण करने वाले अट्ठाईस हजार इस प्रकार लवण समुद्र में दोनों वेलाओं के ऊपर व अग्रोदक (शिखर) पर एक लाख बयालीस हजार (७२००० ± ४२००० ± २८०००) नागकुमार देव स्थित हैं।।३६-३७।।
पुनः उस वेदी से ब्यालीस हजार योजन जाकर विदिशाओं में ब्यालीस हजार योजन विस्तीर्ण (आठ) द्वीप हैं।।३८।। उन द्वीपों में रत्नसमूहों से युक्त और गोपुर एवं प्राकार समूह से संयुक्त नागकुमारों के नगर निर्दिष्ट किए गए जानना चाहिए।।३९।।