(पद्मपुराण ग्रंथ से)
उस धार्मिक रुचि के कारण दोनों को जाति-स्मरण भी हो गया। तदनन्तर श्रद्धा से भरे मेघवाहन और सहस्रनयन अजितनाथ भगवान् की इस प्रकार स्तुति करने लगे।।१४२।। हे भगवन् ! जो बुद्धि से रहित हैं तथा जिनका कोई नाथ-रक्षक नहीं है ऐसे संसारी प्राणियों का आप बिना कारण ही उपकार करते हैं इससे अधिक आश्चर्य और क्या हो सकता है।।१४३।। आपका रूप उपमा से रहित है तथा आप अतुल्य वीर्य के धारक हैं। हे नाथ! इन तीनों लोकों में ऐसा कौन पुरुष है जो आपके दर्शन से सन्तृप्त हुआ हो।।१४४।। हे भगवन्! यद्यपि आप प्राप्त करने योग्य समस्त पदार्थ प्राप्त कर चुके हैं, कृतकृत्य हैं, सर्वदर्शी हैं, सुखस्वरूप हैं, अचिन्त्य हैं, और जानने योग्य समस्त पदार्थ जान चुके हैं तथापि जगत् का हित करने के लिए उद्यत है।।।१४५।। हे जिनराज! संसाररूपी अन्धकूप में पड़ते हुए जीवों को आप श्रेष्ठ धर्मोपदेशरूपी हस्तावलम्बन प्रदान करते हैं।।१४६।। इस प्रकार जिनकी वाणी गद्गद् हो रही थी और नेत्र आँसुओं से भर रहे थे ऐसे परम हर्ष को प्राप्त हुए मेघवाहन और सहस्रनयन विधिपूर्वक स्तुति और नमस्कार कर यथास्थान बैठ गये।।१४७।। िंसहवीर्य आदि मुनि, इन्द्र आदि देव और सगर आदि राजा परम आश्चर्य को प्राप्त हुए।।१४८।।
अथानन्तर—श्री अजितनाथ जिनेन्द्र भगवान् के समवसरण में राक्षसों के इन्द्र भीम और सुभीम प्रसन्न होकर मेघवाहन से कहने लगे कि हे विद्याधर के बालक ! तू धन्य है जो सर्वज्ञ अजित जिनेन्द्र की शरण में आया है, हम दोनों तुझ पर सन्तुष्ट हुए हैं अतः जिससे तेरी सर्वप्रकार से स्वस्थता हो सकेगी वह बात हम तुझसे इस समय कहते हैं सो तू ध्यान से सुन, तू हम दोनों की रक्षा का पात्र है।।१४९-१५१।। बहुत भारी मगरमच्छों से भरे हुए इस लवणसमुद्र में अत्यन्त दुर्गम्य तथा अतिशय सुन्दर हजारों महाद्वीप हैं।।१५२।। उन महाद्वीपों में कहीं गन्धर्व, कहीं किन्नरों के समूह, कहीं यक्षों के झुण्ड और कहीं किंपुरुषदेव क्रीड़ा करते हैं।।१५३।। उन द्वीपों के बीच एक ऐसा द्वीप है जो राक्षसों की शुभ क्रीड़ा का स्थान होने से राक्षस द्वीप कहलाता है और सात सौ योजन लम्बा तथा उतना ही चौड़ा है।।१५४।। उस राक्षस द्वीप के मध्य में मेरु पर्वत के समान त्रिकूटाचल नामक विशाल पर्वत है। वह पर्वत अत्यन्त दुःप्रवेश है और उत्तमोत्तम गुहारूपी गृहों से सबको शरण देने वाला है।।१५५।।
उनका शिखर सुमेरु पर्वत की चूलिका के समान महामनोहर है, वह नौ योजन ऊँचा और पचास योजन चौड़ा है।।१५६।। उसके सुवर्णमय किनारे नाना प्रकार के रत्नों की कान्ति के समूह से सदा आच्छादित रहते हैं तथा नाना प्रकार की लताओं से आिंलगित कल्पवृक्ष वहाँ संकीर्णता करते रहते हैं।।१५७।। उस त्रिकूटाचल के नीचे तीस योजन विस्तारवाली लंका नगरी है, उसमें राक्षस वंशियों का निवास है, और उसके महल नाना प्रकार के रत्नों एवं सुवर्ण से निर्मित हैं।।१५८।। मन को हरण करने वाले बाग बगीचों, कमलों से सुशोभित सरोवरों और बड़े-बड़े जिन-मन्दिरों से वह नगरी इन्द्रपुरी के समान जान पड़ती है।।१५९।। वह लंका नगरी दक्षिण दिशा की मानों आभूषण ही है। हे विद्याधर ! तू अपने बन्धुवर्ग के साथ उस नगरी में जा और सुखी हो।।१६०।। ऐसा कहकर राक्षसों के इन्द्र भीम ने उसे देवाधिष्ठित एक हार दिया। वह हार अपनी करोड़ों किरणों से चाँदनी उत्पन्न कर रहा था।।१६१।। जन्मान्तर सम्बन्धी पुत्र की प्रीति के कारण उसने वह हार दिया था और कहा था कि हे विद्याधर! तू चरमशरीरी तथा युग का श्रेष्ठ पुरुष है इसलिए तुझे यह हार दिया है।।१६२।। उस हार के सिवाय उसने पृथ्वी के भीतर छिपा हुआ एक ऐसा प्राकृतिक नगर भी दिया जो छह योजन गहरा तथा एक सौ साढ़े इकतीस योजन और डेढ़ कलाप्रमाण चौड़ा था।।१६३।। उस नगर में शत्रुओं का शरीर द्वारा प्रवेश करना तो दूर रहा मन से भी प्रवेश करना अशक्य था। उसमें बड़े-बड़े महल थे, अलंकारोदय उसका नाम था और शोभा से वह स्वर्ग के समान जान पड़ता था।।१६४।। यदि तुझ पर कदाचित् परचक्र का आक्रमण हो तो इस नगर में खड्ग का आश्रय ले सुख से रहना। यह तेरी वंश-परम्परा के लिए रहस्य-सुरक्षित स्थान है।।१६५।। इस प्रकार राक्षसों के इन्द्र भीम और सुभीम ने पूर्णधन के पुत्र मेघवाहन से कहा जिसे सुनकर वह परम हर्ष को प्राप्त हुआ। वह अजितनाथ भगवान् को नमस्कार कर उठा।।१६६।। राक्षसों के इन्द्र भीम ने उसे राक्षसी विद्या दी। उसे लेकर इच्छानुसार चलने वाले कामग नामक विमान पर आरूढ़ हो वह लंकापुरी की ओर चला।।१६७।। ‘‘राक्षसों के इन्द्र ने इसे वरदानस्वरूप लंका नगरी दी है’’ यह जानकर मेघवाहन के समस्त भाई बान्धव इस प्रकार हर्ष को प्राप्त हुए जिस प्रकार कि प्रातःकाल के समय कमलों के समूह विकास भाव को प्राप्त होते हैं।।१६८।।
इस प्रकार लवण समुद्र की शोभा देखते हुए मेघवाहन ने त्रिकूटाचल के शिखर के नीचे स्थित लंकापुरी में प्रवेश किया। वह लंका बहुत भारी प्राकार और गोपुरों से सुशोभित थी, अपनी लाल-कान्ति के द्वारा संध्या के समान आकाश को लिप्त कर रही थी, कुन्द के समान सफेद, उँâचे पताकाओं से सुशोभित, कोट और तोरणों से युक्त जिनमन्दिरों से मण्डित थी। लंकानगरी में प्रविष्ट हो सर्वप्रथम उसने जिनमंदिर में जाकर जिनेन्द्रदेव की वन्दना की और तदनन्तर मंगलोपकरणों से युक्त अपने योग्य महल में निवास किया।।१७५-१७७।। रत्नों की शाेभा से जिनके नेत्र और नेत्रों के पंक्तियाँ आकर्षित हो रही थी ऐसे अन्य भाई-बन्धु भी यथायोग्य महलों में ठहर गये।।१७८।।
विशेष—यह जिनमंदिर अकृत्रिम हो सकता है।