श्रीकण्ठ से ऐसा कहकर कीर्तिधवल ने अपने पितामह के क्रम से आगत महाबुद्धिमान् आनन्द नामक मन्त्री को बुलाकर कहा।।५८।। कि तुम चिरकाल से मेरे नगरों की सारता और असारता को अच्छी तरह जानते हो अतः श्रीकण्ठ के लिए जो नगर सारभूत हो सो कहो।।५९।। इस प्रकार कहने पर वृद्ध मन्त्री कहने लगा। जब वह वृद्ध मन्त्री कह रहा था तब उसकी सफेद दाढ़ी वक्षःस्थल पर हिल रही थी और उससे ऐसा जान पड़ता था मानो हृदय में विराजमान स्वामी को चमर ही ढोर रहा हो।।६०।। उसने कहा कि
हे राजन्! यद्यपि आपके नगरों में ऐसा एक भी नगर नहीं है जो सुन्दर न हो तथापि श्रीकण्ठ स्वयं ही खोजकर इच्छानुसार—जो इन्हें रुचिकर हो, ग्रहण कर लें।।६१।। इस समुद्र के बीच में ऐसे बहुत से द्वीप हैं जहाँ कल्पवृक्षों के समान आकार वाले वृक्षों से दिशाएँ व्याप्त हो रही हैं।।६२।। इन द्वीपों में ऐसे अनेक पर्वत हैं जो नाना प्रकार के रत्नों से व्याप्त हैं, उँâचे-उँâचे शिखरों से सुशोभित हैं, महादेदीप्यमान हैं और देवों की क्रीड़ा के कारण हैं।।६३।। राक्षसों के इन्द्र भीम, अतिभीम तथा उनके सिवाय अन्य सभी देवों ने आपके वंशजों के लिए वे सब द्वीप तथा पर्वत दे रखे हैं ऐसा पूर्व परम्परा से सुनते आते हैं।।६४।। उन द्वीपों में सुवर्णमय महलों से मनोहर और किरणों से सूर्य को आच्छादित करने वाले महारत्नों से परिपूर्ण अनेक नगर हैं।।६५।। उन नगरों के नाम इस प्रकार हैं—सन्ध्याकार, मनोह्लाद, सुवेल, कांचन, हरि, योधन, जलधिध्वान, हंसद्वीप, भरक्षम, अर्धस्वर्गोत्कट, आवर्त, विघट, रोधन, अमल, कान्त, स्फुटतट, रत्नद्वीप, तोयावली, सर, अलंघन, नभोभानु और क्षेम इत्यादि अनेक सुन्दर-सुन्दर स्थान हैं। इन स्थानों में देव भी उपद्रव नहीं कर सकते हैं।।६६-६८।। जो बहुत भारी पुण्य से प्राप्त हो सकते हैं और जहाँ की वसुधा नाना प्रकार के रत्नों से प्रकाशमान है ऐसे वे समस्त नगर इस समय आपके आधीन हैं।।६९।। यहाँ पश्चिमोत्तर भाग अर्थात् वायव्य दिशा में समुद्र के बीच तीन सौ योजन विस्तार वाला बड़ा भारी वानर द्वीप है। यह वानरद्वीप तीनों लोकों में प्रसिद्ध है और उसमें महामनोहर हजारों अवान्तर द्वीप हैं।।७०-७१।। यह द्वीप कहीं तो पुष्पराग मणियों की लाल-लाल प्रभा से ऐसा जान पड़ता है मानो जल ही रहा हो, कहीं हरे मणियों की किरणों से आच्छादित होकर ऐसा सुशोभित होता है मानो धान के हरे-भरे पौधों से ही आच्छादित हो।।७२।।
उस वानरद्वीप के मध्य में रत्न और सुवर्ण की लम्बी-चौड़ी शिलाओं से सुशोभित किष्कु नाम का बड़ा भारी पर्वत है।।८२।। जैसा यह त्रिकूटाचल है वैसा ही वह किष्कु पर्वत है सो उनकी शिखररूपी लम्बी-लम्बी भुजाओं से आिंलगित दिशारूपी स्त्रियाँ परम शोभा को प्राप्त हो रही हैं।।८३।। आनन्द मन्त्री के ऐसे वचन सुनकर परम आनन्द को प्राप्त हुआ श्रीकण्ठ अपने बहनोई कीर्तिधवल से कहने लगा कि जैसा आप कहते हैं वैसा मुझे स्वीकार है।।८४।। तदनन्तर चैत्र मास के मंगलमय प्रथम दिन में श्रीकण्ठ अपने परिवार के साथ वानरद्वीप गया।।८५।। तदनन्तर समस्त दिशाओं में अपनी नीली दृष्टि चलाता हुआ श्रीकण्ठ आश्चर्य से भरे हुए उस वानरद्वीप में उतरा।।९०।।
नाना प्रकार के वृक्षों से सुशोभित वहाँ के प्रदेश नाना रंग के दिखाई देते थे। वे प्रदेश इतने सुन्दर थे कि उन्हें देखकर फिर स्वर्ग के देखने की इच्छा नहीं रहती थी।।१०१।। तोताओं के समान स्पष्ट बोलने वाले चकोर और चकोरी का जो मैनाओं के साथ वार्तालाप होता था वह उस वानर द्वीप में सबसे बड़ा आश्चर्य का कारण था।।१०१।। तदनन्तर वह श्रीकण्ठ, नाना प्रकार के वृक्षों की छाया में स्थित, फूलों की सुगन्धि से अनुलिप्त, रत्नमय तथा सुवर्णमय शिलातलों पर सेना के साथ बैठा और वहीं उसने शरीर को सुख पहुँचाने वाले समस्त कार्य किये।।१०२-१०३।। तदनन्तर—जिनमें नाना प्रकार के पुष्प फूल रहे थे, हंस और सारस पक्षी शब्द कर रहे थे, स्वच्छ जल भरा हुआ था और जो मछलियों के संचार से कुछ-कुछ कम्पित हो रहे थे ऐसे मालाओं की, तथा फूलों के समूह की वर्षा करने वाले, महाकान्तिमान् और पक्षियों की बोली के बहाने मानो जोर-जोर से जय शब्द का उच्चारण करने वाले वृक्षों की एवं नाना प्रकार के रत्नों से व्याप्त भूभागों—प्रदेशों की सुषमा से युक्त उस वानर द्वीप में श्रीकण्ठ जहाँ-तहाँ भ्रमण करता हुआ बहुत सुखी हुआ।।१०४-१०६।। तदनन्तर नन्दन वन के समान उस वन में विहार करते हुए श्रीकण्ठ ने इच्छानुसार क्रीड़ा करने वाले अनेक प्रकार के वानर देखे।।१०७।। सृष्टि की इस विचित्रता को देखकर श्रीकण्ठ विचार करने लगा कि देखो ये वानर तिर्यंच योनि में उत्पन्न हुए है फिर भी मनुष्य के समान क्यों है ?।।१०८।। ये वानर मुख, पैर, हाथ तथा अन्य अवयव भी मनुष्य के अवयवों के समान ही धारण करते हैं। न केवल अवयव ही, इनकी चेष्टा भी मनुष्यों के समान हैं।।१०९।। तदनन्तर उन वानरों के साथ क्रीड़ा करने की श्रीकण्ठ के बहुत भारी इच्छा उत्पन्न हुई। यद्यपि वह स्थिर प्रकृति का राजा था तो भी अत्यन्त उत्सुक हो उठा।।११०।। उसने विस्मित चित्त होकर मुख की ओर देखने वाले निकटवर्ती पुरुषों को आज्ञा दी कि इन वानरों को शीघ्र ही यहाँ लाओ।।१११।। कहने की देर थी कि विद्याधरों ने सैकड़ों वानर लाकर उनके समीप खड़े कर दिये। वे सब वानर हर्ष से कल-कल शब्द कर रहे थे।।११२।। राजा श्रीकण्ठ उत्तम स्वभाव के धारक उन वानरों के साथ क्रीड़ा करने लगा। वâभी वह ताली बजाकर उन्हें नचाता था, कभी अपनी भुजाओं से उनका स्पर्श करता था और कभी अनार के फूल के समान लाल, चपटी नाक से युक्त एवं चमकीली सुनहली कनीनिकाओं से युक्त उनके मुख में उनके सफेद दाँत देखता था।।११३-११४।।
इसके बाद पहाड़ के शिखरों, लताओं, निर्झरनों और वृक्षों से जिसका मन हरा गया था ऐसा श्रीकण्ठ उन वानरों को लिवाकर किष्कु पर्वत पर चढ़ा।।१२०।। वहाँ उसने लम्बी-चौड़ी, विषमतारहित तथा अन्त में ऊंचे -ऊंचे वृक्षों से सुशोभित उत्तुंग पहाड़ों से सुरक्षित भूमि देखी।।१२१।। उसी भूमि पर उसने किष्कुपुर नाम का एक नगर बसाया। यह नगर शत्रुओं के शरीर की बात तो दूर रहे मन के लिए भी दुर्गम था।।१२२।। यह नगर चौदह योजन लम्बा-चौड़ा था और इसकी परिधि—गोलाई बयालीस योजन से कुछ अधिक थी।।१२३।। इस नगर में विद्याधरों ने महलों की ऐसी-ऐसी ऊँची श्रेणियाँ बनाकर तैयार की थीं कि जिनके सामने उत्तुंग दरवाजे थे, जिनकी दीवालें मणि और सुवर्ण से निर्मित थीं, जो अच्छे-अच्छे बरण्डों से सहित थीं, रत्नों के खम्भों पर खड़ी थी। जिनकी कपोतपाली के समीप का भाग महानील मणियों से बना था और ऐसा जान पड़ता था कि रत्नों की कान्ति ने जिस अन्धकार को सब जगह से खदेड़कर दूर कर दिया था मानो उसे यहाँ अनुकम्पावश स्थान ही दिया गया था।