अथानन्तर राक्षसों का अधीश्वर रावण अपने दूत के वचन सुनकर क्षणभर मन्त्र के जानकार मन्त्रियों के साथ मन्त्रणा करता रहा। उसने विचार किया कि मैं बहुरूपिणी नाम से प्रसिद्ध वह विद्या सिद्ध करता हूँ कि जिसमें सदा तत्पर रहने वाले देव भी विघ्न उत्पन्न नहीं कर सकते।।६।। ऐसा विचार कर उसने शीघ्र ही िंककरों को बुलाकर आदेश दिया कि शान्तिजिनालय की उत्तम तोरण आदि से सजावट करो।।७।। तथा सब प्रकार के उपकरणों से युक्त सर्व मन्दिरों में जिनभगवान् की पूजा करो। किज्र्रों को ऐसा आदेश दे उसने पूजा की व्यवस्था का सब भार उत्तमचित्त की धारक मन्दोदरी के ऊपर रखा।।८।। गौतम स्वामी कहते हैं कि वह सुर और असुरों द्वारा वन्दित बीसवें मुनिसुव्रत भगवान् का महाभ्युदयकारी समय था। उस समय लम्बे-चौड़े समस्त भरत क्षेत्र में यह पृथ्वी अर्हन्तभगवान् की पवित्र प्रतिमाओं से अलंकृत थी।।९-१०।। देश के अधिपति राजाओं तथा गाँवों का उपभोग करने वाले सेठों के द्वारा जगह-जगह देदीप्यमान जिनमन्दिर खड़े किये गये थे।।११।। वे मन्दिर, समीचीन धर्म के पक्ष की रक्षा करने में निपुण, कल्याणकारी, भक्तियुक्त शासनदेवों से अधिष्ठित थे।।१२।। देशवासी लोग सदा वैभव के साथ जिनमें अभिषेक तथा पूजन करते थे और भव्य जीव सदा जिनकी आराधना करते थे, ऐसे वे जिनालय स्वर्ग के विमानों के समान सुशोभित होते थे।।१३।। हे राजन्! उस समय पर्वत पर्वत पर, अतिशय सुन्दर गाँव-गाँव में वन-वन में पत्तन पत्तन में, महल महल में, नगर नगर में, संगम संगम में, तथा मनोहर और सुन्दर चौराहे चौराहे पर महाशोभा से युक्त जिनमन्दिर बने हए थे।।१४-१५।। वे मन्दिर शरद् ऋतु के चन्द्रमा के समान कान्ति से युक्त थे, संगीत की ध्वनि से मनोहर थे, तथा नाना वादित्रों के शब्द से उनमें क्षोभ को प्राप्त हुए समुद्र के समान शब्द हो रहे थे।।१६।। वे मन्दिर तीनों संध्याओं में वन्दना के लिए उद्यत साधुओं के समूह से व्याप्त रहते थे, गम्भीर थे, नाना आचार्यों से सहित थे और विविध प्रकार के पुष्पों के उपहार से सुशोभित थे।।१७।। परम विभूति से युक्त थे, नाना रङ्गके मणियों की कान्ति से जगमगा रहे थे, अत्यन्त विस्तृत थे, उँâचे थे और बड़ी-बड़ी ध्वजाओं से सहित थे।।१८।। उन मन्दिरों में सुवर्ण, चाँदी आदि की बनी छत्रत्रय चमरादि परिवार से सहित पाँच वर्ण की जिनप्रतिमाएँ अत्यन्त सुशोभित थीं।।१९।। विद्याधरों के नगर में स्थान-स्थान पर बने हुए अत्यन्त सुन्दर जिनमन्दिरों के शिखरों से विजयार्ध पर्वत उत्कृष्ट हो रहा था।।२०।। इस प्रकार यह समस्त संसार बाग बगीचों से सुशोभित, नाना रत्नमयी, शुभ और सुन्दर जिनमन्दिरों से व्याप्त हुआ अत्यधिक सुशोभित था।।२१।। इन्द्र के नगर के समान वह लज्र भी भीतर और बाहर बने हुए पापापहारी जिनमन्दिरों से अत्यन्त मनोहर थी।।२२।।
गौतम स्वामी कहते हैं कि वर्षा ऋतु के मेघसमूह के समान जिसकी कान्ति थी, हाथी की सूँड़ के समान जिसकी लम्बी-लम्बी भुजाएँ थीं पूर्णचन्द्र के समान जिसका मुख था दुपहरिया के फूल के समान जिसके लाल लाल ओंठ थे, जो स्वयं सुन्दर था, जिसके बड़े-बड़े नेत्र थे, जिसकी चेष्टाएँ स्त्रियों के मन को आकृष्ट करने वाली थीं, लक्ष्मीधर-लक्ष्मण के समान जिसका आकार था और जो दिव्यरूप से सहित था, ऐसा दशानन, कमलिनियों के साथ सूर्य के समान अपनी अठारह हजार स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करता था।।२३-२५।। जिस पर सब लोगों के नेत्र लग रहे थे, जो अन्य महलों की पंक्ति से घिरा था, नाना रत्नों से निर्मित था और चैत्यालयों से सुशोभित था, ऐसे दशानन के घर में सुवर्णमयी हजारों खम्भों से सुशोभित, विस्तृत, मध्य में स्थित, देदीप्यमान और अतिशय उँâचा वह शान्ति जिनालय था जिसमें शान्ति जिनेन्द्र विराजमान थे।।२६।। गौतम स्वामी कहते हैं कि उत्तम भाग्यशाली मनुष्य, धर्म में दृढ़ बुद्धि लगाकर तथा संसार के सब पदार्थों को अस्थिर जानकर जगत् में उन जिनेन्द्र भगवान् के कान्ति सम्पन्न, उत्तम मन्दिर बनवाते हैं जो सबके द्वारा वन्दनीय हैं तथा इन्द्र के मुकुटों के शिखर में लगे रत्नों की देदीप्यमान किरणों के समूह से जिनके चरणनखों की कान्ति अत्यधिक वृद्धिंगत होती रहती है।२७।। बुद्धिमान् मनुष्य कहते हैं कि प्राप्त हुए विशाल धन का फल पुण्य की प्राप्ति करना है और इस समस्त संसार में एक जैनधर्म ही उत्कृष्ट पदार्थ है, यही इष्ट पदार्थ को सूर्य के समान प्रकाशित करने वाला है।।२८।।