अथानंतर समागमरूपी सूर्य से जिसका मुखकमल खिल उठा था ऐसी सीता का हाथ अपने हाथ से पकड़ श्रीराम उठे और इच्छानुकूल चलने वाले ऐरावत के समान हाथी पर बैठाकर स्वयं उस पर आरूढ़ हुए। महातेजस्वी तथा सम्पूर्ण कान्ति को धारण करने वाले श्रीराम हिलते हुए घंटों से मनोहर हाथी रूपी मेघ पर सीतारूपी रोहिणी के साथ बैठे हुए चन्द्रमा के समान सुशोभित हो रहे थे।।१-३।। जिनकी बुद्धि स्थिर थी, जो अत्यधिक उन्नत प्रीति को धारण कर रहे थे, बहुत भारी जनसमूह जिनके साथ था, जो चारों ओर से बहुत बड़ी सम्पदा से घिरे थे, बड़े-बड़े अनुरागी विद्याधरों से अनुगत, उत्तम कान्तियुक्त चक्रपाणि लक्ष्मण से जो सहित थे तथा अतिशय निपुण थे ऐसे श्रीराम, सूर्य के विमान समान जो रावण का भवन था उसमें जाकर प्रविष्ट हुए।।४-६।। वहाँ उन्होंने भवन के मध्य में स्थित श्रीशान्तिनाथ भगवान् का परम सुन्दर मन्दिर देखा। वह मन्दिर योग्य विस्तार और उँâचाई से सहित था, स्वर्ण के हजार खम्भों से निर्मित था, विशाल कान्ति का धारक था, उसकी दीवालों के प्रदेश नाना प्रकार के रत्नों से युक्त थे, वह मन को आनन्द देने वाला था, विदेह क्षेत्र के मध्य में स्थित मेरुपर्वत के समान था, क्षीर समुद्र के फेनपटल के समान कान्तिवाला था, नेत्रों को बाँधने वाला था, रुणझुण करने वाली किज्र्णिियों के समूह एवं बड़ी-बड़ी ध्वजाओं से सुशोभित था, मनोज्ञरूप से युक्त था तथा उसका वर्णन करना अशक्य था।।७-१०।।तदनन्तर जो मत्तगजराज के समान पराक्रमी थे, निर्मल नेत्रों के धारक थे तथा श्रेष्ठ लक्ष्मी से सहित थे, ऐसे श्रीrराम ने हाथी से उतरकर सीता के साथ उस मन्दिर में प्रवेश किया।।११।। तत्पश्चात् कायोत्सर्ग करने के लिए जिन्होंने अपने दोनों हाथ नीचे लटका लिये थे और जिनका हृदय अत्यन्त शान्त था, ऐसे श्रीराम ने सामायिक कर सीता के साथ दोनों करकमलरूपी कुड्मलों को जोड़कर श्रीशान्तिनाथ भगवान का पापभञ्जक पुण्यवर्धक स्तोत्र पढ़ा।।१२-१३।। स्तोत्र पाठ करते हुए उन्होंने कहा कि जिनके जन्म लेते ही संसार में सर्वत्र ऐसी शान्ति छा गई कि जो सब रोगों का नाश करने वाली थी तथा दीप्ति को बढ़ाने वाली थी।।१४।।
जिनके आसन कम्पायमान हुए थे तथा जो उत्तम विभूति से युक्त थे ऐसे हर्ष से भरे भक्तिमन्त इन्द्रों ने आकर जिनका मेरु के शिखर पर अभिषेक किया था।।१५।। जिन्होंने राज्य अवस्था में बाह्यचक्र के द्वारा बाह्यशत्रुओं के समूह को जीता था और मुनि होने पर ध्यानरूपी चक्र के द्वारा अन्तरङ्ग शत्रुसमूह को जीता था।।१६।। जो जन्म, जरा, मृत्यु भयरूपी खङ्ग आदि शस्त्रों से चञ्चल संसाररूपी असुर को नष्ट कर कल्याणकारी सिद्धिपुर-मोक्ष को प्राप्त हुए थे।।१७।।जिन्होंने उपमा रहित, नित्य, शुद्ध, आत्माश्रय, उत्कृष्ट और अत्यन्त दुरासद निर्वाण का साम्राज्य प्राप्त किया था, जो तीनों लोकों की शान्ति के कारण थे, जो महा ऐश्वर्य से सहित थे तथा जिन्होेंने अनन्त शान्ति प्राप्त की थी ऐसे श्रीशान्तिनाथ भगवान् के लिए मन, वचन, काय से नमस्कार हो।।१८-१९।। हे नाथ! आप समस्त चराचर विश्व से अत्यन्त स्नेह करने वाले हैं, शरणदाता हैं, परम रक्षक हैं, समाधिरूप तेज तथा रत्नत्रयरूपी बोधि को देने वाले हैं।।२०।।
तुम्हीं एक गुरु हो, बन्धु हो, प्रणेता हो, परमेश्वर हो, इन्द्र सहित चारों निकायों के देवों से पूजित हो।।२१।। हे भगवन्! आप उस धर्मरूपी तीर्थ के कर्ता हो जिससे भव्य जीव अनायास ही समस्त दुःखों से छुटकारा देने वाला परम स्थान-मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।।२२।।हे नाथ! आप देवों के देव हो इसलिये आपको नमस्कार हो, आप कल्याणरूप कार्य के करने वाले हो इसलिए आपको नमस्कार हो, आप कृतकृत्य हैं अतः आपको नमस्कार हो और आप प्राप्त करने योग्य समस्त पदार्थों को प्राप्त कर चुके हैं इसलिये आपको नमस्कार हो।।२३।। हे भगवन्! प्रसन्न होइये और हम लोगों के लिये महाशान्तिरूप स्वभाव में स्थित, सर्वदोष रहित, उत्कृष्ट तथा नित्यपद-मोक्षपद प्रदान कीजिये।।२४।। इस प्रकार स्तोत्र पाठ पढ़ते हुए कमलायतलोचन तथा पुण्य कर्म में दक्ष श्रीराम ने शान्तिजिनेन्द्र की तीन प्रदक्षिणाएँ दी।।२५।। जिसका शरीर नम्र था, जो स्तुति पाठ करने में तत्पर थी तथा जिसने हस्तकमल जोड़ रखे थे ऐसी भाव भीनी सीता श्रीराम के पीछे खड़ी थी।।२६।।