अस्त्यत्र लवणाम्भोधौ क्रूरग्राहसमाकुले।
प्रख्यातो राक्षसद्वीप: प्रभूताद्भुतसंकुल:।।१०६।।
शतानि सप्त विस्तीर्णो योजनानां समन्तत:।
परिक्षेपेण तान्येव साधिकान्येकविंशति:।।१०७।।
मध्ये मन्दरतुल्योऽस्य त्रिकूटो नाम पर्वत:।
योजनानि नवोतुङ्गपञ्चाशद्विपुलत्वत:।।१०८।।
हेमनानामणिस्फीत: शिलाजालावलीचित:।
आसीत्तोयदवाहस्य दत्तो नाथेन रक्षसाम्।।१०९।।
तस्य कूल्यद्रुमैश्चित्रै: शिखरे कृतभूषणे।
लज्र्ेति नगरी भाति मणिरत्नमरीचिभि:।।११०।।
विमानसदृशै: रम्यै: प्रासादै: स्वर्गसंनिभै:।
मनोहरै: प्रदेशैश्च क्रीडनादिक्रियोचितै:।।१११।।
त्रिंशद् योजनमानेन परिच्छिन्ना समन्तत:।
महाप्राकारपरिखा द्वितीयेव वसुन्धरा।।११२।।
लज्रया: परिपार्श्वेषु सन्त्यन्येऽपि मनोहरा:।
स्वभावावस्थिता रत्नमणिकाञ्चनर्मूतय:।।११३।।
प्रदेशा नगरोपेता रक्षसां क्रीडभूमय:।
अधिष्ठिता महाभोगैस्ते च सर्वे नभश्चरै:।।११४।।
संध्याकार: सुवेलश्च काञ्चनो ह्लादनस्तथा।
योधनो हंसनामा च हरिसागरनिस्वन:।।११५।।
अर्द्धस्वर्गोदयश्चान्ये द्वीपा: सर्वर्द्धिभोगदा:।
प्रदेशा इव नाकस्य काननादिविभूषिता:।।११६।।
सुहृद्भिर्भातृभि: पुत्रै: कलत्रैर्बान्धवै: सह।
रमते येषु लज्र्ेशो भृत्यवर्गसमावृत:।।११७।।
दुष्ट मगरगच्छों से भरे हुए इस लवणसमुद्र में अनेक आश्चर्यकारी स्थानों से युक्त प्रसिद्ध राक्षसद्वीप है।।१०६।।
जो सब ओर से सात योजन विस्तृत है तथा कुछ अधिक इक्कीस योजन उसकी परिधि है।।१०७।। उसके बीच में सुमेरु पर्वत के समान त्रिकूट नाम का पर्वत है जो नौ योजन ऊँचा और पचास योजन चौड़ा है।।१०८।। सुवर्ण तथा नाना प्रकार के मणियों से देदीप्यमान एवं शिलाओं के समूह से व्याप्त है। राक्षसों के इन्द्र भीम ने मेघवाहन के लिए वह दिया था।।१०९।। तट पर उत्पन्न हुए नाना प्रकार के चित्र-विचित्र वृक्षों से सुशोभित उस त्रिकूटाचल के शिखर पर लंका नाम की नगरी है जो मणि और रत्नों की किरणों तथा स्वर्ग के विमानों के समान मनोहर महलों एवं क्रीड़ा आदि के योग्य सुन्दर प्रदेशों से अत्यन्त शोभायमान है।।११०-१११।।
जो सब ओर से तीस योजन चौड़ी है तथा बहुत बड़े प्राकार और परिखा से युक्त होने के कारण दूसरी पृथिवी के समान जान पड़ती है।।११२।। लंका के समीप में और भी ऐसे स्वाभाविक प्रदेश हैं जो रत्न, मणि तथा स्वर्ण से निर्मित हैं।।११३।। वे सब प्रदेश उत्तमोत्तम नगरों से युक्त हैं, राक्षसों की क्रीड़ा-भूमि हैं तथा महाभोगों से युक्त विद्याधरों से सहित हैं।।११४।। संध्याकार, सुवेल, कांचन, ह्लादन, योधन, हंस, हरिसागर और अर्द्ध स्वर्ग आदि अन्य द्वीप भी वहाँ विद्यमान हैं, जो समस्त ऋद्धियों तथा भोगों को देने वाले हैं, वन-उपवन आदि से विभूषित हैं तथा स्वर्ग प्रदेशों के समान जान पड़ते हैं।।११५-११६।। लंकाधिपति रावण भृत्यवर्ग से आवृत हो मित्रों, भाइयों, पुत्रों, स्त्रियों तथा अन्य इष्टजनों के साथ उन प्रदेशों में क्रीड़ा किया करता है।।११७।।