-गणिनी ज्ञानमती
षट्खण्डागम ग्रंथ की ‘‘सिद्धान्तचिंतामणि टीका’’ लिखने का प्रारंभ मैंने आश्विन शु. १५, वीर नि. सं. २५२१, दिनाँक ८-१०-१९९५ को हस्तिनापुर तीर्थ पर किया, पुनश्च मगसिर शु. ६ (दिनाँक २७-११-१९९५) को विहार करते हुए मांगीतुंगी तीर्थ पहुँचकर वहाँ प्रतिष्ठा महोत्सव एवं वर्षायोग पूर्णकर वापस आते हुए माधोराजपुरा (राज.) में अपनी आर्यिका दीक्षा भूमि में फाल्गुन कृ. १३, वीर नि. सं. २५२३, दिनाँक ७-३-१९९७ को प्रथम खंड के छहों ग्रंथों की संस्कृत टीका पूर्ण किया है।अनंतर द्वितीय खण्ड-क्षुद्रकबंध ग्रंथ की टीका ‘‘पद्मपुरातीर्थ’’ पर फाल्गुन शु. १, वी. नि. सं. २५२३, दिनाँक १०-३-१९९७ को प्रारंभ कर हस्तिनापुर आकर मगसिर शु. १३, वी. नि. सं. २५२४, दिनाँक १२-१२-१९९७ को पूर्ण किया है।
पुन: हस्तिनापुर में ही मगसिर शु. १३, वी. नि. सं. २५२४, दिनाँक १२-१२-१९९७ को ही तृतीय खंड ‘‘बंधस्वामित्वविचय’’ की टीका प्रारंभ कर दिल्ली में द्वि. ज्येष्ठ शु. ५, वी. नि. सं. २५२५ को प्रीतविहार के कमल मंदिर में दिनाँक १८-६-१९९९ को पूर्ण किया है।अनंतर चतुर्थ खंड की संस्कृत टीका दिल्ली-राजाबाजार के जयसिंहपुरा, नई दिल्ली में वी. नि. सं. २५२५, शरदपूर्णिमा, दिनाँक २४-१०-१९९९ को प्रारंभ कर आगे शरदपूर्णिमा वी. नि. सं. २५२६, दिनाँक १३-१०-२००० में ऋषभदेव कमल मंदिर, प्रीतविहार, दिल्ली से विहार कर शौरीपुर बटेश्वर आदि यात्रा करते हुए कुण्डलपुर (नालंदा-बिहार) पहुँचकर मगसिर शु. १३, वी. नि. सं. २५३०, दिनाँक ६-१२-२००३ में राजगृही में पूर्ण किया है।अनंतर कुण्डलपुर में पौष कृ. ११, वी. नि.सं. २५३०, दिनाँक १९-२-२००३ को पंचम खण्ड की टीका प्रारंभ कर पावापुरी, राजगृही, कुण्डलपुर आदि में गमनागमन करते हुए, लिखते हुए वापस हस्तिनापुर आकर वी. नि. सं. २५३३, दिनाँक ४-४-२००७ में वैशाख कृ. द्वितीया को अपनी दीक्षा दिवस के दिन पूर्ण किया है।
इन पाँच खण्डों में १६ पुस्तकें विभक्त हैं।प्रथम ‘जीवस्थान’ नाम के खण्ड में ६ ग्रंथ हैं। द्वितीय ‘क्षुद्रकबंध’ नाम के खण्ड में एक ही ग्रंथ है। तृतीय ‘बंधस्वामित्वविचय’ में एक ही ग्रंथ है। चतुर्थ ‘वेदनाखण्ड’ में चार ग्रंथ हैं एवं पाँचवें ‘वर्गणाखण्ड’ में भी चार ग्रंथ हैं। ऐसे ६±१±१±४±४·१६ ग्रंथों में ये षट्खण्डागम ग्रंथ पाँच खण्ड में विभक्त है।इस प्रकार वी. नि. सं. २५२१, ईसवी सन् १९९५ को संस्कृत टीका प्रारंभ कर वीर नि. सं. २५३३, ईसवी सन् २००७ में मैंने ‘मांगीतुंगी, प्रयाग, कुण्डलपुर, पावापुरी, सम्मेदशिखर आदि की यात्रा के मध्य में भी टीका लिखते हुए अनुमानत: साढ़े ग्यारह वर्षों में षट्खण्डागम ग्रंथ के १६ ग्रंथों की सिद्धान्तचिंतामणिटीका पूर्ण की है। इसमें सूत्र संख्या ६८४१ है।इनमें से १६ ग्रंथों में से दो ग्रंथों का हिन्दी अनुवाद मैंने किया है। जो कि छठी व आठवीं पुस्तकें हैं।
पुनश्च प्रथम पुस्तक से लेकर हिन्दी अनुवाद मैंने आर्यिका चंदनामती से कराया है। अभी वे १४वीं पुस्तक का अनुवाद कर रही हैं।
इसी मध्य ‘‘श्री ऋषभदेवचरितम्’’ पुस्तक का भी मैंने संस्कृत में लेखन किया। वी. नि. सं. २५२४, मगसिर शु. १२ (११ दिसम्बर १९९७) को महापुराण के आधार से मैंने लिखना प्रारंभ कर वी. नि. सं. २५२५, आश्विन शु. १५ (२४-१०-१९९९) को पूर्ण किया है।पुनश्च प्रयाग जाते समय मार्ग में ‘‘विश्वशांति महावीर विधान’’ बनाया है, क्योंकि भगवान महावीर स्वामी का ‘छब्बीससौवां’ जन्मकल्याणक वर्ष घोषित होकर उसे विस्तृत रूप में मनाने की घोषणा हो चुकी थी।भगवान महावीर के २५२६वें निर्वाण दिवस के समापन एवं २५२७वें वर्ष के प्रारंभ में कार्तिक कृ. अमावस्या (२७-१०-२०००) मंगलवार को मैंने दिल्ली में यह विधान प्रारंभ कर १ नवम्बर २००० को दिल्ली से ‘प्रयाग’ की ओर विहार करके मार्ग में ही यह विधान रचना करते हुए वहाँ पहुँचकर पौष शु. ६, वी.नि. सं. २५२७ (१-१-२००१) को यह विधान पूर्ण किया है।इस विधान में ९ पूजाएँ हैं एवं २६०० मंत्र हैं। ये मंत्र बहुत ही महिमापूर्ण हैं। इस विधान में मैंने मंडल पर २६०० रत्न चढ़ाकर विधान करने की प्रेरणा दी है। दिल्ली में विशेष प्रभावनापूर्वक यह विधान २६ मंडल बनाकर सम्पन्न कराया गया है।वी. नि. सं. २५२२ (ईसवी सन् १९९६) का वर्षायोग मेरा मांगीतुंगी तीर्थ पर हुआ है। वहाँ पर पंचम पट्टाचार्य श्री श्रेयांससागर जी महाराज की प्रेरणा से श्री मुनिसुव्रतनाथ भगवान की २१ फुट उत्तुंग मूर्ति की एवं २४ तीर्थंकर प्रतिमाओं की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हेतु मेरा पहुँचना हुआ था। जो कि ज्येष्ठ शु. षष्ठी, २३ मई १९९६ को पंचकल्याणक सम्पन्न हुआ था।
(१) प्रेरणा-वर्षायोग के मध्य शरदपूर्णिमा को वीर नि. सं. २५२२ (२६-१०-१९९६) को ब्रह्म मुहूर्त में ध्यान में मैंने पाया कि (१) ‘‘पूर्वमुख का पर्वत-पाषाण हो, (२) भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा हो एवं (३) १०८ फुट उत्तुंग हो, तो सारे विश्व के लिए एक अतिशयकारी होगी।’’
मैंने ध्यानपूर्ण कर प्रात: सर्वप्रथम आर्यिका चंदनामती को पुन: क्षुल्लक मोतीसागर को एवं ब्र. रवीन्द्र कुमार को कहा। पुन: उपस्थित श्रावकों के मध्य घोषणा कर दी।
(२) कमेटी का गठन-जय-जयकार एवं हर्षोल्लास के वातावरण में- ‘‘भगवान श्री ऋषभदेव १०८ फुट विशालकाय दि. जैन मूर्ति निर्माण कमेटी’’ नाम से ट्रस्ट का निर्णय लेकर कमेटी में ब्र. रवीन्द्र कुमार को अध्यक्ष घोषित करके पौष कृ. एकम्, ४ दिसम्बर १९९८ को नासिक स्ो रजिस्ट्रेशन करा लिया। इधर वर्षायोग के बाद ही मांगीतुंगी से विहार कर मैं ससंघ दिल्ली आ गई थी।
(३) शिलापूजन-फाल्गुन कृ. ५, वी.नि.सं. २५२८ (३-३-२००२) में शिलापूजन विधि की गई।
(४) मूर्ति निर्माण कार्य शुभारंभ-मगसिर शु. १३, वी. नि. सं. २५३९ (२५-१२-२०१२) को मूर्ति निर्माण कार्य प्रारंभ हुआ।
इसी मध्य हस्तिनापुर के प्रथम पीठाधीश क्षुल्लक मोतीसागर जी एवं अध्यक्ष ब्र. रवीन्द्र कुमार जी हस्तिनापुर में दातारों से प्रेरणा दे-देकर द्रव्यराशि मांगीतुंंगी भेजते रहे हैं एवं स्वयं प्रतिमाह दिल्ली के अनिल जैन (कमल मंदिर-दिल्ली) व नरेश जैन-बंसल को लेकर मांगीतुंगी जाते रहे हैं।
पुनश्च अति आग्रह आदि से मेरा संघ सहित हस्तिनापुर से विहार कराया। तिथि-वी.नि.सं. २५४१, चैत्र शु. १२ (१७ मार्च २०१५) को विहार करके मार्ग में अनेक तीर्थ वंदना एवं शहरों में प्रभावना के साथ ही आषाढ़ शु. १४(३० जुलाई २०१५) को मेरा मांगीतुंगी क्षेत्र पर प्रवेश एवं वर्षायोग स्थापित हुआ। इसके पूर्व मैंने हस्तिनापुर में विशेष कार्यक्रम के समय प्रतिष्ठा की तिथि घोषित कर दी थी, जब कि मूर्ति का मुख भी नहीं बना था।वहाँ मांगीतुंगी में रहकर मैंने ‘‘विशालकाय श्री १०८ फुट उत्तुंग श्री ऋषभदेव जिनप्रतिमा’’ को बनते हुए देखा है। इन भगवान का पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महामहोत्सव अपने आपमें अभूतपूर्व ही हुआ है।
यह ऐतिहासिक तिथि वी. नि. सं. २५४२, माघ शु. ३ से १०(दिनाँक-११-२-२०१६ से १७-२-२०१६) की बहुत महिमापूर्ण रही है। पुन: माघ शु. ११ (१८-२-२०१६) से भगवान ऋषभदेव का महामस्तकाभिषेक प्रारंभ होकर एक वर्ष तक चलता रहा है।फाल्गुन कृ. १२, ६ मार्च २०१६ को गिनीज वर्ल्ड रिकार्ड-लंदन के अधिकारियों ने आकर प्रतिमा का नख से शिख तक माप कर १०८ फुट, ५ फुट के बाल इस प्रकार ११३ फुट भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा को अखण्ड पाषाण में निर्मित विश्व की सबसे ऊँची जैन प्रतिमा के रूप में ‘गिनीज वर्ल्ड रिकार्ड’ में सम्मिलित किया।
यहाँ पर एक स्थल का क्रय करके मूर्ति निर्माण कमेटी के सक्रिय कार्यकर्ताओं ने सुंदर ‘कालोनी’ बना दी है, जिसका नाम ‘‘ऋषभदेवपुरम्’’ है। यहीं मूर्ति निर्माण कमेटी का मुख्य कार्यालय है। यहीं पर नवग्रहशांतिकारक नव जिनभगवन्तों की ४१ इंच की जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं। उनका विशाल भव्य मंदिर का निर्माण कार्य द्रुतगति से चल रहा है। यहीं पर मेरी प्रेरणा से सर्वतोभद्र महल का बहुत ही सुंदर निर्माण हुआ है। यहाँ सड़क से पर्वत पर जाने के स्थान पर एक शांतिनाथ भगवान की प्रतिमा ५ फुट की विराजमान हैं। इस स्थल का ‘शांतिनाथ उद्यान’ नाम है। यहीं पर ‘‘ऋषभदेवपुरम्’’ चक्रवर्ती उद्यान में भरत चक्रवर्ती की १० फुट की प्रतिमा पद्मासन विराजमान हैं। श्री ऋषभदेवपुरम् में ‘‘आर्यिका रत्नमती निलय’’ नाम से संत निवास-साधुओं के रहने के लिए बना हुआ है। अनेक सुंदर झांकियाँ भी दिखाई गई हैं।
अनेक तीर्थों के निर्माण-सन् १९९६ से लेकर आज तक अनेक तीर्थों के निर्माण, अयोध्या में जिनमंदिरों के निर्माण, प्रयाग तीर्थ निर्माण, कुण्डलपुर तीर्थ विकास आदि निर्माण मेरी भावना के अनुसार प्रथम पीठाधीश क्षुल्लक श्री मोतीसागर जी एवं द्वितीय पीठाधीश श्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामीजी के द्वारा सम्पन्न होते रहे हैं।
राजधानी दिल्ली में राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रम-जैसे कि चौबीस कल्पद्रुम महामण्डल विधान आदि एवं ‘‘भगवन ऋषभदेव जन्मजयंती वर्ष’’, ‘‘भगवान ऋषभदेव अंतर्राष्ट्रीय निर्वाण महोत्सव वर्ष’’, ‘‘श्री सम्मेदशिखर वर्ष’’, ‘‘विश्वशांति वर्ष’’ आदि अनेक वर्ष मनाने की प्रेरणाएं जो मेरे द्वारा दी गईं, ऐसे ‘महान महोत्सव’ कार्यक्रम भी समय-समय पर किये एवं कराये जाते रहे हैं। जिनका विवरण इस प्रकार है-
इसी मध्य मेरे द्वारा अनेक ग्रंथों के संकलन, लेखन आदि कार्य भी होते रहे हैं।
राजधानी दिल्ली में ‘कनॉट प्लेस’ में ‘श्री भरत चक्रवर्ती सिद्ध भगवान’ की मूर्ति ३१ फुट उत्तुंग विराजमान होना। वहाँ पर ‘ह्री ँ’ में रत्नों की चौबीसी प्रतिमा विराजमान होना आदि कार्यक्रम यद्यपि ‘कोरोना महामारी’ के काल में अधिक भीड़ एकत्रित न कराके संक्षेप में कराये गये हैं। फिर भी ‘पारस चैनल’ के माध्यम से लाखों, क्या करोड़ों भक्तों ने लाभ प्राप्त किया है।
मांगीतुंगी में ऋषभगिरि पर्वत पर विराजमान ‘भगवान ऋषभदेव के महामहोत्सव’ के मध्य मैंने घोषित किया था कि प्रति ६ वर्ष में यहाँ ‘‘भगवान की १०८ फुट उत्तुंग जिनप्रतिमा’’ का महामस्तकाभिषेक महोत्सव करते रहना है।
इसी घोषणा के आधार पर पीठाधीश श्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामीजी मूर्ति निर्माण कमेटी के कार्यकर्ताओं से निर्णय लेकर अभी ‘‘आषाढ़ कृ. प्रतिपदा से आषाढ़ शु. प्रतिपदा (दि. १५ जून से ३० जून २०२२) तक श्री ऋषभदेव भगवान का ‘महामस्तकाभिषेक महोत्सव’ करा रहे हैं।यह ‘महामस्तकाभिषेक महोत्सव’ अतिशय प्रभावना के साथ निर्विघ्न सम्पन्न होवे। इसी भावना के साथ भगवान श्री ऋषभदेव के श्रीचरणों में अनंत-अनंत बार ‘नमोऽस्तु’ करते हुए पुन: पुन: यही प्रार्थना करती हूँ-
गुण अनंत भंडार हैं, ऋषभदेव भगवंत।
नमूँ अनंतों बार मैं, पाऊँ सौख्य अनंत।।