-स्थापना-
तर्ज-आने से जिसके आए बहार……..
दर्शन से जिनके कटते हैं पाप, पूजन से मिटते हैं सब संताप,
मूरत सुहानी है-तेरी महावीरा, छवि जगन्यारी है-प्रभु महावीरा।।टेक.।।
आज इस मण्डल पर, स्थापित करूँ नाथ! तुमको।
अपने मन मंदिर में, स्थापित करूँ नाथ! तुमको।।
तुम भगवन्, अतिपावन,
महिमा निराली है-तेरी महावीरा, छवि जग न्यारी है-प्रभु महावीरा।।१।।
ॐ ह्रीं मनोकामनासिद्धिकारक श्रीमहावीरजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं मनोकामनासिद्धिकारक श्रीमहावीरजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं मनोकामनासिद्धिकारक श्रीमहावीरजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अष्टक (स्रग्विणी छंद)-
क्षीरसिन्धु नीर को मैं भरूँ भृंग में।
तीन धारा करूँ वीर पद पद्म में।।
वीर महावीर वर्धमान की अर्चना।
पूर्ण करती सभी की मनोकामना।।१।।
ॐ ह्रीं मनोकामनासिद्धिकारक श्रीमहावीरजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
काश्मीर की सुगन्धियुक्त केशर लिया।
घिस के नाथ के चरण में उसे चर्चिया।।
वीर महावीर वर्धमान की अर्चना।
पूर्ण करती सभी की मनोकामना।।२।।
ॐ ह्रीं मनोकामनासिद्धिकारक श्रीमहावीरजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
वासमती के धुले तंदुलों को लिया।
श्रीजिनेन्द्र के निकट पुंज को चढ़ा दिया।।
वीर महावीर वर्धमान की अर्चना।
पूर्ण करती सभी की मनोकामना।।३।।
ॐ ह्रीं मनोकामनासिद्धिकारक श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
भाँति भाँति के गुलाब पुष्प मैंने चुन लिया।
पुष्पमाल को बनाय प्रभु के पद चढ़ा दिया।।
वीर महावीर वर्धमान की अर्चना।
पूर्ण करती सभी की मनोकामना।।४।।
ॐ ह्रीं मनोकामनासिद्धिकारक श्रीमहावीरजिनेन्द्राय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
शुद्ध नैवेद्य को बनाय थाल भर लिया।
स्वस्थता की प्राप्ति हेतु प्रभु समीप धर लिया।।
वीर महावीर वर्धमान की अर्चना।
पूर्ण करती सभी की मनोकामना।।५।।
ॐ ह्रीं मनोकामनासिद्धिकारक श्रीमहावीरजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्णथाल में जले रत्नदीप जगमगे।
आरती उतारते ही मोह का तिमिर भगे।।
वीर महावीर वर्धमान की अर्चना।
पूर्ण करती सभी की मनोकामना।।६।।
ॐ ह्रीं मनोकामनासिद्धिकारक श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोहांधकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप कर्पूर मिश्रित जला अग्नि में।
नाथ चाहूँ जलाना आज कर्म मैं।।
वीर महावीर वर्धमान की अर्चना।
पूर्ण करती सभी की मनोकामना।।७।।
ॐ ह्रीं मनोकामनासिद्धिकारक श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सेव अंगूर अमरूद भर थाल में।
पादपद्म में चढ़ाय नाऊं निज भाल मैं।।
वीर महावीर वर्धमान की अर्चना।
पूर्ण करती सभी की मनोकामना।।८।।
ॐ ह्रीं मनोकामनासिद्धिकारक श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जलफलादिक अष्टद्रव्य को सजाय के।
‘‘चन्दनामती’’ अनर्घ्यपद मिले चढ़ाय के।।
वीर महावीर वर्धमान की अर्चना।
पूर्ण करती सभी की मनोकामना।।९।।
ॐ ह्रीं मनोकामनासिद्धिकारक श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
-अथ श्री मनोकामनासिद्धि विधान मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्-
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिप्रवचनवत्सलत्वपर्यन्त षोडषकारणभावनाबलेन तीर्थंकरपदप्राप्त श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
ॐ ह्रीं मातु: ऐरावतहस्तिप्रभृतिनिर्धूमअग्निपर्यन्त षोडशस्वप्नप्रदर्शकाय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
ॐ ह्रीं स्वेदरहितादि प्रियहितमधुरवचनपर्यन्त दशजन्मातिशयसहिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३।।
ॐ ह्रीं गव्यूतिशतचतुष्टयसुभिक्षताप्रभृतिदिव्यध्वनिपर्यन्त एकादशकेवल-ज्ञानातिशयसहिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४।।
ॐ ह्रीं सर्व ऋतु फलपुष्पादिचरणकमलतल स्वर्णकमलरचनापर्यन्त त्रयोदशदेवकृतअतिशयसहिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५।।
ॐ ह्रीं अशोकवृक्षादि चतु:षष्ठिचामरपर्यन्त अष्टप्रातिहार्यसहिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६।।
ॐ ह्रीं अनन्तज्ञानादिचतुष्टयसहिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
ॐ ह्रीं क्षुधा-तृषा आदि अष्टादशदोषरहिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
ॐ ह्रीं वीर-वर्धमान-सन्मति-महावीर-अतिवीरपंचनामप्राप्ताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९।।
ॐ ह्रीं महायोगीश्वरगुणसहिताय श्रीमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०।।
ॐ ह्रीं द्रव्यसिद्धगुणसहिताय श्रीमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।११।।
ॐ ह्रीं अदेहगुणसहिताय श्रीमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१२।।
ॐ ह्रीं अपुनर्भवगुणसहिताय श्रीमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१३।।
ॐ ह्रीं ज्ञानैकचिद्गुणसहिताय श्रीमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१४।।
ॐ ह्रीं जीवघनगुणसहिताय श्रीमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१५।।
ॐ ह्रीं स्वात्मोपलब्धिरूपसिद्धनामसहिताय श्रीमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१६।।
ॐ ह्रीं लोकाग्रगामुकगुणसहिताय श्रीमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१७।।
-पूर्णार्घ्य-दोहा-
गुण अनंत प्रभु आप के, कैसे वरणूं नाथ।
पूरण अर्घ्य चढ़ाय के, मैं भी बनूँ सनाथ।।१८।।
ॐ ह्री शताष्टगुणसमन्विताय मनोवाञ्छितफलप्रदाय श्रीमहावीर-जिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं मनोवाञ्छितफलप्रदाय श्री महावीरजिनेन्द्राय नमः।
-शंभु छन्द-
जय जय तीर्थंकर महावीर, तुम सर्वसिद्धि के दाता हो।
जय जय जिनवर हे नाथ! वीर, तुम तो शिवमार्ग विधाता हो।।
जय जय सन्मति! अतिवीर प्रभो! तुम सम्यक्बुद्धि प्रदाता हो।
जय जय हे वर्धमान भगवन्! तुम आत्मशक्ति के दाता हो।।१।।
महावीर से दश भव पूर्व सिंह, पर्याय में सम्बोधन पाया।
फिर अणुव्रत धारण कर क्रम क्रम से, देव मनुज का भव पाया।।
उत्थान किया निज जीवन का, तो जग का भी उत्थान हुआ।
जिसने तुमसे शिक्षा पाई, उसका ही जनम महान हुआ।।२।।
कुण्डलपुर नंद्यावर्त महल में, चैत्र शुक्ल तेरस तिथि को।
राजा सिद्धारथ की रानी, त्रिशला ने जन्मा इक सुत को।।
वह ही संसार प्रसिद्ध हुआ, चौबिसवाँ तीर्थंकर बन कर।
नहिं उनके बाद हुआ कोई, इस भरतक्षेत्र में तीर्थंकर।।३।।
इसलिए इन्हें अंतिम तीर्थंकर, कहा गया इस भारत में।
लेकिन आगे भी जन्मेंगे, चौबिस तीर्थंकर भूतल पे।।
महावीर शिष्य श्रेणिक उनमें से, प्रथम जिनेश्वर पद लेंगे।
जो नगरि अयोध्या में तीर्थंकर ‘‘महापद्म’’ बन जन्मेंगे।।४।।
महावीर के पांचों कल्याणक से, जो जो धरा पवित्र हुईं।
वे आज बनीं गौरवशाली, सुरगण मुनिगण से वंद्य हुईं।।
है गर्भ जन्म तप कल्याणक से, पावन कुण्डलपुर नगरी।
उस निकट जृम्भिका ग्राम में, ऋजुकूला नदि तट है ज्ञानथली।।५।।
राजगृह का विपुलाचल पर्वत, प्रथम देशना स्थल है।
पावापुर का जलमंदिर प्रभु के, मोक्षगमन से पावन है।।
कुण्डलपुर राजगृह पावापुर, जिनवर तीर्थ त्रिवेणी है।
इसमें स्नान करें जो भी, वे आते मोक्ष की श्रेणी में।।६।।
गुणमाला प्रभु के चरणों में, अर्पण कर निजगुण प्राप्त करूँ।
महावीर प्रभू के चरणों में, वन्दन कर सुख साम्राज्य वरूँ।।
अतिवीर वीर सन्मति भगवन्! मुझको सद्बुद्धि प्रदान करो।
भक्ती में रत निज भक्तों को, संसारजलधि से पार करो।।७।।
हो मनोकामना पूर्ण मेरी, रत्नत्रय मेरा सुदृढ़ बने।
जब तक शिवपद की प्राप्ति न हो, सम्यक्त्व भी मेरा सुदृढ़ बने।।
पूर्णार्घ्य समर्पण करूँ प्रभो! पूजन की इस जयमाला में।
‘‘चन्दनामती’’ भव भव में मुझको, जिनवर भक्ती मिला करे।।८।।
महावीर भगवान की, महिमा अपरम्पार।
उनकी पूजन से मिले, मनवाञ्छित फल सार।।९।।
ॐ ह्रीं अनन्तगुणसमन्विताय मनोवाञ्छितफलप्रदायश्रीमहावीर-जिनेन्द्राय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
जो भव्य मनोकामनासिद्धि, महावीर विधान करें रुचि से।
प्रभु जी के इक सौ आठ गुणों में, रमण करें तन मन शुचि से।।
वे लौकिक सुख के साथ-साथ, आध्यात्मिक सुख भी प्राप्त करें।
‘‘चन्दनामती’’ जिनवर भक्ती का, फल शिवपद भी प्राप्त करें।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।
तर्ज—मन डोले, मेरा…………
जय वीर प्रभो, महावीर प्रभो, की मंगल दीप प्रजाल के
मैं आज उतारूं आरतिया।।टेक.।।
सुदी छट्ठ आषाढ़ प्रभूजी, त्रिशला के उर आए।
पन्द्रह महिने तक कुबेर ने, बहुत रत्न बरसाये।।प्रभू जी.।।
कुण्डलपुर की, जनता हरषी, प्रभु गर्भागम कल्याण पे,
मैं आज उतारूं आरतिया।।१।।
धन्य हुई कुण्डलपुर नगरी, जन्म जहां प्रभु लीना।
चैत्र सुदी तेरस के दिन, वहां इन्द्र महोत्सव कीना।।प्रभू जी.।।
काश्यप कुल के, भूषण तुम थे, बस एकमात्र अवतार थे,
मैं आज उतारूं आरतिया।।२।।
यौवन में दीक्षा धारण कर, राजपाट सब त्यागा।
मगशिर असित मनोहर दशमी, मोह अंधेरा भागा।।प्रभू जी.।।
बन बालयती, त्रैलोक्यपती, चल दिए मुक्ति के द्वार पे,
मैं आज उतारूं आरतिया।।३।।
शुक्ल दशमि वैशाख में तुमको, केवलज्ञान हुआ था।
गौतम गणधर ने आ तुमको, गुरु स्वीकार किया था।।प्रभू जी.।।
तव दिव्यध्वनी, सब जग ने सुनी, तुमको माना भगवान है,
मैं आज उतारूं आरतिया।।४।।
पावापुरि सरवर में तुमने, योग निरोध किया था।
कार्तिक कृष्ण अमावस के दिन, मोक्ष प्रवेश किया था।।प्रभू जी.।।
निर्वाण हुआ, कल्याण हुआ, दीपोत्सव हुआ संसार में,
मैं आज उतारूं आरतिया।।५।।
वर्धमान सन्मति अतिवीरा, मुझको ऐसा वर दो ।
कहे ‘चंदनामती’ हृदय में, ज्ञान की ज्योति भर दो। प्रभू जी.।।
अतिशयकारी, मंगलकारी, ये कल्पवृक्ष भगवान हैं,
मैं आज उतारूं आरतिया।।६।।
तर्ज—सज धज कर……
तेरी चंदन सी रज में, इक उपवन खिलाया है।
कुण्डलपुर के महावीरा, तेरा महल बनाया है।।टेक.।।
जन्मे जहाँ खेले जहाँ, त्रिशला माँ के नन्दन।
उस कुण्डलपुर की माटी का, सचमुच कण-कण चन्दन।।
चन्दन सी उस माटी को अब सिर पर लगाया है।
कुण्डलपुर के महावीरा, तेरा महल बनाया है।।१।।
सोने का नंद्यावर्त महल, सिद्धारथजी का था।
मणियों के पलंग पर त्रिशला ने, सपनों को देखा था।।
उन सपनों को सच्चे करके, फिर से दिखाया है।
कुण्डलपुर के महावीरा, तेरा महल बनाया है।।२।।
प्राचीन इक मंदिर प्रभू का, कुण्डलपुर में है।
‘‘चंदनामती’’ महावीर विराजे, उस मंदिर में हैं।।
भावना सभी भक्तों की जो, प्रभु तक पहुँचाया है।
कुण्डलपुर के महावीरा, तेरा महल बनाया है।।३।।
तर्ज—बजे कुण्डलपुर में……
वीर भज ले तू महावीर भज ले,
काम सारे बन जायेंगे, वीर भज ले।। टेक.।।
क्यों भूला तू महावीर को-२
महावीर नैय्या तिरवायेंगे, वीर भज ले……।।१।।
क्यों भूला तू मंदिर को-२
जीने की कला बतलायेंगे, वीर भज ले……।।२।।
क्यों भूला तू मंदिर को-२
मंदिर ही तुझे तिरवायेंगे, वीर भज ले……।।३।।
क्यों भूला तू सच्चे देव को-२
वही तो देव बनवायेंगे, वीर भज ले……।।४।।
क्यों भूला तू शास्त्रों को-२
वे ही तो ज्ञान सिखलायेंगे, वीर भज ले……।।५।।
क्यों भूला तू गुरुओं को-२
वे ही तो पथ दर्शायेंगे, वीर भज ले……।।६।।
क्यों भूला तू मात-पिता को-२
वे ही तो तेरा हित चाहेंगे, वीर भज ले……।।७।।
क्यों भूला तू भाई-बहन को-२
वे ही तो प्रेम सिखलायेंगे, वीर भज ले……।।८।।
मत भूल तू धरम करम को-२
ये ही तो ज्ञान सिखलायेंगे, वीर भज ले……।।९।।
ले ले ‘‘चंदना’’ तू वीर का शरणा-२
ये ही तो मोक्ष दिलवायेंगे, वीर भज ले……।।१०।।