अवसप्पिणिउस्सप्पिणिकाल च्चिय रहटघटियणाएणं।
होंति अणंताणंता भरहेरावदखिदिम्मि पुढं१।।१६१४।।
भरत और ऐरावत क्षेत्र में रँहटघटिकान्याय से अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल अनन्तानन्त होते हैं। (अर्थात् जिस प्रकार रँहट की घरियां बार-बार ऊपर व नीचे आती-जाती हैं, इसी प्रकार अवसर्पिणी के पश्चात् उत्सर्पिणी और उत्सर्पिणी के पश्चात् अवसर्पिणी, इस क्रम से सदा इन कालों का परिवर्तन होता ही रहता है)।।१६१४।।
अवसप्पिणिम्मि काले तहेव उवसप्पिणिम्मि कालम्मि।
उप्पज्जंति महप्पा तेसट्ठिसलागवरपुरिसा२।।२०८।।
अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी काल में तिरेसठ शलाका महापुरुष उत्पन्न होते हैं।।२०८।।
अवसप्पिणिउस्सप्पिणिकालसलाया गदे य संखाणिं।
हुंडावसप्पिणी सा एक्का जाएदि तस्स चिण्हमिमं३।।१६१५।।
असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीकाल की शलाकाओं के बीत जाने पर प्रसिद्ध एक हुण्डावसर्पिणी आती है, उसके चिन्ह ये हैं।।१६१५।।
विशेषार्थ-हुंडावसर्पिणी में कुछ अघटित घटनाएं हुई हैं। जैसे-प्रथम तीर्थंकर तीसरे काल में हो गये आदि। इसी निमित्त से अयोध्या में पाँच तीर्थंकर ही जन्मे हैं। शेष तीर्थंकरों की अन्य जन्मभूमियाँ मिलाकर सोलह हो गई हैं।
जैनधर्म के अनुसार यह संसार की सृष्टि अनादि है-अनंत है। यह सृष्टि तीनलोक में विभक्त है-अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक। संक्षेप में हम समझें तो अधोलोक में नरकों में जीव पाप करके जाकर असंख्य दु:खों को भोगते हैं। ऊर्ध्वलोक में देवगण रहते हैं, जो मनुष्य यहाँ पुण्य करते हैं, वे सदाचार की प्रवृत्ति से स्वर्गों के देव बनकर सुखों का अनुभव करते हैं। मध्यलोक में मनुष्य और तिर्यंच पशु-पक्षी आदि हैं। ये पुण्य-पाप आदि क्रियाओं से स्वर्ग-नरक आदि में जाते रहते हैं।
इस मध्यलोक में ढाईद्वीप के अन्तर्गत ५ भरत, ५ ऐरावत में षट्काल परिवर्तन में तीन कालों में भोगभूमि रहती है और तीन कालों में कर्मभूमि रहती है।
कर्मभूमि में तीर्थंकर भगवान, चक्रवर्ती, नारायण आदि त्रेसठ शलाका पुरुष प्रत्येक चतुर्थकाल में होते हैं। इस प्रकार यहाँ इस मध्यलोक में जम्बूद्वीप नाम के प्रथम द्वीप में भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड में हमेशा चौथे काल में चौबीस-चौबीस तीर्थंकर होते रहने से अनंतानंत चौबीस तीर्थंकर यहाँ इस अयोध्या में हो चुके हैं और आगे भी होते रहेंगे।
जैन ग्रंथों में ढाईद्वीप के ५ भरत, ५ ऐरावत क्षेत्रो में जो अतीतकाल में २४-२४ तीर्थंकर हुए हैं, जो वर्तमान में हुए हैं एवं जो भविष्य में होवेंगे, उनके नाम प्राप्त हैं, ऐसे ५ भरत, ५ ऐरावत के त्रैकालिक ३० चौबीसी के ७२० भगवन्तों-तीर्थंकरों के नाम प्राप्त हैं।
इनके नाम हमें म्हसवड़-महाराष्ट्र में ईसवी सन् १९५५ में प्राप्त हुए थे। तभी मैंने कापी में लिख लिए थे एवं मंत्र बनाये थे। वीर नि. सं. २५०३ में हस्तिनापुर में मैंने ‘‘तीस चौबीसी विधान’’ बनाया था। दीपावली के दिन अमावस्या को पूर्ण किया था। इससे पूर्व वीर नि. सं. २५०३ में मैंने माघ शु. १४ को इन तीस चौबीसी की संस्कृत में स्तुतियाँ एवं हिन्दी में स्तुतियाँ बनाकर पूर्ण की थी।
इन नाम मंत्रों में पहले ‘जिनेन्द्राय नम:’ किया था। अभी अधिकतम सभी नाम के साथ ‘नाथ’ लगाकर तीर्थंकर शब्द का प्रयोग किया है। जैसे कि-ॐ ह्रीं श्री निर्वाणजिनेन्द्राय नम: था अभी ‘ॐ ह्रीं श्री निर्वाणनाथतीर्थंकराय नम:’ किया है। यही अंतर है।
इन्हीं तीस चौबीसी के तीर्थंकर भगवन्तों की प्रतिमाओं की यहाँ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा होगी।
युग की आदि में महाराजा नाभिराय एवं महारानी मरुदेवी से प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव यहीं अयोध्या में जन्मे हैं। उस समय भोगभूमि समाप्त हुई थी, कर्मभूमि प्रारंभ हुई थी अत: श्री ऋषभदेव गृहस्थावस्था में थे। महाराजा नाभिराय ने यशस्वती और सुनंदा इन दो कन्याओं के साथ ऋषभदेव का विवाह कर दिया था।
श्री ऋषभदेव की प्रथम रानी यशस्वती से भरत, ऋषभसेन, अनंतवीर्य आदि १०० पुत्र और ब्राह्मी पुत्री ने जन्म लिया एवं सुनंदा महारानी से बाहुबली एवं सुंदरी पुत्री ने जन्म लिया है।
युग की आदि में श्री ऋषभदेव ने सर्वप्रथम अपनी ब्राह्मी-सुंदरी दोनों पुत्रियों को अक्षर विद्या-अ, आ, इ, ई आदि एवं सुंदरी पुत्री को १, २, ३ आदि गणित विद्या पढ़ाकर विद्याओं को प्रारंभ किया, पुन: सभी १०१ पुत्रों को सम्पूर्ण विद्याओं और कलाओं में पारंगत किया।
प्रजा को असि, मषि, कृषि, शिल्प, विद्या और वाणिज्य ऐसी षट् क्रियाओं को सिखाकर कर्मभूमि में कर्म-क्रियाएं करके जीने की कला सिखाई। क्षत्रिय, वैश्य आदि वर्ण व्यवस्था एवं विवाह व्यवस्था आदि की व्यवस्था भी बताई तथा क्षत्रियों को राजा-महाराजा बनाकर राजनीति का उपेदश दिया।
अनंतर प्रथम पुत्र भरत को राज्य सौंपकर स्वयं प्रयाग में जैनेश्वरी दीक्षा लेकर मोक्षमार्ग दिखाया। पुन: वैâलाशपर्वत से सिद्धपद प्राप्त किया है।
कालांतर में भरत चक्रवर्ती हुए हैं। इन्होंने भी छह खण्ड पृथ्वी पर एक छत्र शासन करके अनंतर अपने पुत्र अर्ककीर्ति को राज्य देकर दीक्षा लेकर केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्षधाम को-सिद्धपद को प्राप्त किया है।
यहाँ पर इस युग में पाँच तीर्थंकर जन्मे हैं-१. श्री ऋषभदेव, २. श्री अजितनाथ, ३. श्री अभिनंदननाथ, ४. पाँचवें श्री सुमतिनाथ एवं ५. चौदहवें श्री अनंतनाथ। इनकी जन्मभूमि पर परम्परागत चरण विराजमान रहे हैं। मेरी प्रेरणा से वहीं पर मंदिर बनाकर तीर्थंकर भगवान भी विराजमान हो चुके हैं एवं टोंक पर श्री भरत-बाहुबली की प्रतिमाएं एवं चरण विराजमान हैं। सन् १९९४ में यहीं पर त्रैकालिक चौबीसी के ७२ भगवान विराजमान हुए हैं एवं श्री ऋषभदेव का समवसरण भी बना है।
यहाँ अयोध्या में आचार्यरत्न, भारतगौरव श्री देशभूषण जी महाराज ने वीर नि. सं. २४९१ ईसवी सन् १९६५ में यहाँ भगवान ऋषभदेव की ३१ फुट उत्तुंग प्रतिमा विराजमान कराकर पंचकल्याणक प्रतिष्ठा कराई थी।
आज यहीं इस परिसर में (१) सिद्धपद प्राप्त चक्रवर्ती भरत की प्रतिमा
३१ फुट की विराजमान हुई हैं। आगे यहीं पर (२) भगवान ऋषभदेव के १०१ पुत्र जो मोक्ष गये हैं। उनकी प्रतिमाएं विराजमान होंगी। (३) तीनलोक रचना बनेगी। (४) तीस चौबीसी के ७२० तीर्थंकर भगवन्तों का मंदिर बनेगा एवं (५) भगवान ऋषभदेव के महल का नाम ‘सर्वतोभद्र’ था, वह ८१ मंजिल का था, वह (५) सर्वतोभद्र महल बनेगा।
यहीं पर यथास्थान प्रदर्शनी भी रहेगी, जिसमें जैनधर्म का, अयोध्या एवं श्री ऋषभदेव आदि ५ तीर्थंकर यहाँ जन्मे हैं, उन सभी का संक्षिप्त इतिहास बताया जायेगा। यहाँ पर यह रचनाएं युग-युग तक ‘‘अहिंसा परमो धर्म:’’ को एवं ‘‘भगवान ऋषभदेव जन्मभूमि अयोध्या’’ को दिग्दिगंत व्यापी बनावें, यही भगवान श्री ऋषभदेव के चरणों में प्रार्थना है।
शाश्वत तीर्थ अयोध्या में हमेशा चैत्र कृष्णा नवमी को श्री ऋषभदेव जयंती मनायी जाती रही है। बचपन में मैंने देखा है-यहाँ उस जयंती के अवसर पर पाँच दिन का मेला होता था। सांस्कृतिक कार्यक्रम, रथयात्रा महोत्सव आदि कार्यक्रम होते रहे हैं। धीरे-धीरे वह कार्यक्रम ३ दिन व १ दिन का होने लगा है।
वीर नि. सं. २४७८, ईसवी सन् १९५२ में आचार्यश्री देशभूषण जी महाराज ने यहाँ कटरा मंदिर में श्री ऋषभदेव भगवान एवं श्री भरत और बाहुबली की खड्गासन मूर्ति विराजमान कराकर ज्येष्ठ कृष्णा सप्तमी को पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सम्पन्न कराई थी। उस समय आकाश में जय-जयकारा के शब्द एवं देवों के आगमन आदि हम सभी ने प्रत्यक्ष देखे थे।
अनंतर मैंने ईसवी सन् १९५३ में ही चैत्र कृ. प्रतिपदा के दिन भारत गौरव आचार्यश्री देशभूषण जी से ही अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी में क्षुल्लिका दीक्षा प्राप्त की। अनंतर गुरु की आज्ञा से एवं चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज की आज्ञा से प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के प्रथम पट्टाधीश आचार्यश्री वीरसागर जी से वीर नि. सं. २४८२ में, सन् १९५६ में माधोराजपुरा (राज.) में आर्यिका दीक्षा प्राप्त की है।
मैं आर्यिका संघ सहित वीर नि. सं. २४९१ में, सन् १९६५ में श्रवणबेलगोला में थीं, तभी यहाँ अयोध्या में आचार्यश्री देशभूषण जी महाराज ने रायगंज परिसर का स्थान क्रय कराकर वीर नि. सं. २४९१, सन् १९६५ में ३१ फुट के उत्तुंग भगवान ऋषभदेव विराजमान कराकर यहीं पर अन्य अजितनाथ आदि प्रतिमाएं विराजमान करायी हैं। यह प्रतिष्ठा दिल्ली वालों के सौजन्य से अतिशय प्रभावनापूर्ण हुई है।
अनंतर हस्तिनापुर में मुझे वीर नि.सं. २५१८ सन् १९९२ में प्रात: ब्रह्ममुहूर्त की मंगल बेला में अयोध्या के भगवान के दर्शन हो गये। मैंने पुरुषार्थ करके अयोध्या आकर वीर नि.सं. २५२०, सन् १९९४में त्रिकाल चौबीसी के भगवन्तों की प्रतिष्ठा माघ शु. द्वादशी को सम्पन्न कराई। पुनश्च समवसरण के भगवन्तों की प्रतिष्ठा वीर नि. सं. २५२१, सन् १९९५ में पूर्ण कराकर दोनों मंदिरों पर कलशारोहण कराया है।
वीर नि. सं. २५२०, सन् १९९४ में महामस्तकाभिषेक कराकर पाँचों भगवन्तों की जन्मभूमि की टोंक पर मंदिर बनवाकर प्रतिमा विराजमान कराने की प्रेरणा दी है।
मेरा अपना यह नियम रहा है कि पुरातत्त्व से कभी छेड़-छाड़ न करके भगवान के प्राचीन चरण जहाँ हैं, वहीं रखकर शेष खाली-पड़ी हुई जगह को घेरकर मंदिर बना दो। सो ऐसा ही हुआ है-
(१) सर्वप्रथम भगवान ऋषभदेव की टोंक पर मंदिर बना, वीर नि. सं. २५३७ में सन् २०११में फाल्गुन कृ. तृतीया को ऋषभदेव प्रतिमा का पंचकल्याणक सम्पन्न हुआ है। (वहाँ पर पुराने चरण जहाँ की तहाँ ही विराजमान हैं।)
(२) इसके बाद वीर नि. सं. २५३९, सन् २०१३ में भरत-बाहुबली की प्रतिमा यहाँ मंदिर बनाकर विराजमान हुई हैं। इनकी प्रतिष्ठा हस्तिनापुर में सम्पन्न हुई थी।
(३) अनंतर श्री अनंतनाथ भगवान की टोंक पर (सरयू नदी के किनारे) मंदिर बना एवं वीर नि. सं. २५३९, सन् २०१३, आषाढ़ शु. द्वितीया के दिन भगवान की प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई है।
(४) अजितनाथ भगवान की टोंक पर चरण का मंदिर पुराना जहाँ की तहाँ रहा, शेष स्थान में दो मंदिर बनाये गये। एक मंदिर में वीर नि.सं. २५४०, सन् २०१४ में प्रतिष्ठा होकर भगवान विराजमान हुए एवं दूसरे मंदिर में चौबीस भगवन्तों के चरण स्थापित हुए हैं।
अनंतर वीर नि. सं. २५४१, मगसिर शु. १०, सन् २०१५ में भगवान अभिनंदननाथ भगवान की प्रतिष्ठा होकर भगवान विराजमान हुए हैं।
पुन: वीर नि. सं. २५४५, फाल्गुन शु. द्वितीया सन् २०१९ में भगवान सुमतिनाथ का मंदिर बनकर प्रतिष्ठा होकर भगवान विराजमान हुए हैं। इस प्रतिष्ठा में मेरा ससंघ सान्निध्य रहा है।
ये टोकों के मंदिर, जिनप्रतिमाएं एवं प्रतिष्ठा भी कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्रकीर्ति स्वामीजी की प्रेरणा से एक-एक महानुभावों ने ही अपने परिवार के साथ सम्पन्न ाfकए हैं एवं प्रतिष्ठा में पूरी जैन समाज को भी जोड़ा गया है।
अभी यहाँ अयोध्या में रायगंज मंदिर (बड़ी मूर्ति मंदिर) के परिसर में पाँच विशेष निर्माण कार्य चल रहे हैं-
(१) श्री भरत भगवान ३१ फुट के खड़े हो गए हैं, मंदिर बन रहा है।
(२) भगवान ऋषभदेव के १०१ पुत्र जो सभी दीक्षा लेकर मोक्ष गए हैं, उनका मंदिर बन रहा है। इन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठायें अभी वैशाख में ही होंगी।
(३) तीन लोक रचना बन रही है।
(४) तीस चौबीसी मंदिर बन रहा है, उसमें विराजमान होने वाली
७२० जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा होने जा रही है।
(५) सर्वतोभद्र महल बन रहा है।
ये सभी रचनाएँ एवं भगवन्तों की प्रतिमाएं हमारे और आप सभी के लिए, सारे विश्व के लिए मंगलकारी होवें, यही श्री तीर्थंकर भगवन्तों के चरणों में प्रार्थना है।