श्रीवीरप्रभू के सन्निध में, जिनने स्वधर्म को प्राप्त किया।
ऐसे श्रीगौतम गणधर को, प्रणमूं जिनने श्रुतज्ञान दिया।।
इस वीर प्रभू के शासन में, श्रीगौतम आदि गणेश हुये।
श्रीकुंदकुंद आचार्यदेव, इस युग में श्रेष्ठ मुनीश हुये।।१।।
इस कुंदकुंद आम्नाय में शारद, गच्छ बलात्कारगण उत्तम।
चारित्र चक्रवर्ती गुरुवर, श्री शांतिसागराचार्य प्रथम।।
श्रीवीरसागराचार्यवर्य, इनके ही पट्टाधीश मान्य।
ये मुझे आर्यिकाव्रत देकर, अन्वर्थ ‘ज्ञानमती’ दिया नाम।।२।।
श्री सरस्वती माँ का प्रसाद, मुझको जो सम्यग्बुद्धि मिली।
श्रुतदेवी की सेवा करते, मन में भक्ती की कली खिली।।
हस्तिनापुर पौषशुक्ल दशमी, वीराब्द पचीस शतक चालीस।
गणिनी मैंने यह पूर्ण किया, श्रीशांतिनाथ स्तोत्र प्रशस्त।।३।।
भाक्तिक जन इस उत्तम स्तोत्र, को पढ़कर विघ्न शोक नाशें।
धन धान्य वृद्धि उत्तम कीर्ती, पा निज में ज्ञानज्योति भासें।।
जब तक जग में जिनवर शासन, जिनधर्म अहिंसामय जब तक।
तब तक श्री शांतिनाथ स्तोत्र, भव्यों को होवे शांतीप्रद।।४।।
।।इति श्रीशांतिनाथस्तोत्रप्रशस्ति:।।