-दोहा-
गणधर गुरु से वंद्य नित, तीर्थंकर वृषभेश।
उन गणधर गुरु को नमूँ, नशते विघ्न अशेष।।
-शंभु छंद-
श्री ऋषभदेव के तृतीय पुत्र, मां यशस्वती के नंदन हो।
तज पुरिमतालपुर नगर राज्य, मुनि बने जगत अभिनन्दन हो।।
सब ऋद्धि समन्वित गणधर गुरु, हे ‘ऋषभसेन’ तुमको वंदन।
तुम प्रथम तीर्थकर के पहले, गणधर हम करते नित्य नमन।।१।।
‘श्रीकुंभ’ गणीश्वर द्वादशगण, के प्रमुख नाथ के गुण गाते।
सब गुणरत्नों से भरित आप, नित आत्म सुधारस आस्वादें।।
सब विघ्न विनाशें भक्तों के, इसलिये भक्ति से हम नमते।
गणधरगुरु की भक्ती से हम, भव भव के दुख से बचते।।२।।
‘श्री दृढ़रथ’ गणधर ऋषभदेव के, समवसरण के यतिपति हो।
भक्ती से निजपरमानंदामृत, पीते आप तृप्ति युत हो।।
सम्पूर्ण शास्त्र के ज्ञाता हो, फिर भी जिनवर के दास बने।
हम वंदे इन गणधर गुरु को, पूरे हों वांछित कार्य घने।।३।।
‘श्री शतधनु’ गणधर सप्त ऋद्धि-धारी श्रुत वारिधि पारंगत।
निज शुद्ध बुद्ध परमात्मतत्त्व, ध्याते फिर भी प्रभु गुण में रत।।
उन प्रभु आदीश्वर के गुण को, मैं भी गाऊँ नित भक्ति करूँ।
नित गणधर गुरु के चरण नमूँ, निज सम्यग्दर्शन शुद्धि करूँ।।४।।
श्रीवृषभेश्वर के समवसरण, में कहे ‘देवशर्मा’ गणधर।
ये भक्त जनों के कष्ट हरें, इनको जो वंदें रुचि धरकर।।
इनसे वंदित प्रभु चरणकमल, उन प्रभु को वंदूँ श्रद्धा से।
श्रीऋषभदेव के गणधर को, जो वंदें छूटें विपदा से।।५।।
‘श्रीदेवभाव’ गणधर स्वामी, मनपर्ययज्ञानी जगत्राता।
व्यवहार रत्नत्रय के बल से, निश्चय रत्नत्रय को साधा।।
श्रीऋषभदेव सा गुरु पाया, निज ज्ञानज्योति से आलोकित।
उन गुरु के चरणकमल वंदूँ, निज को पाऊँ निज से शोभित।।६।।
‘श्रीनन्दन’ गणधर गुरु को नित, वंदूँ आनन्दित होकर के।
वे ज्ञानानन्द स्वभावी थे, प्रतिक्षण आत्मा को ध्याकर के।।
वे ऋषभदेव के शिष्य बने, उस भव से ही शिवधाम लिया।
मैं वंदूँ शीश नमाकर के, गुरु के गुरु को भी नमित किया।।७।।
‘श्रीसोमदत्त’ गणधर गुणधर, सम्पूर्ण परिग्रह के त्यागी।
निज को निज में निज के द्वारा, नित ध्याते निजगुण अनुरागी।।
श्रीऋषभदेव के निकट रहें, अविरत जिनभक्ती में रत थे।
मैं वंदूँ शीश नमा करके, मेरे भव-भव के फंद कटें।।८।।
‘श्रीसूरदत्त’ गणधर स्वामी, संयतमुनि नग्न दिगम्बर थे।
अट्ठाइस मूलगुणों से युत, बहुविध उत्तर गुणधारी थे।।
ये ऋषभदेव के चरणकमल, में नित नमते उनको वंदूँ।
गणधरगुरु को तीर्थंकर को, वंदत ही पाप अरी खंडूँ।।९।।
श्रीऋषभदेव के सन्निध में, गणधर गुरु ‘वायूशर्मा’ थे।
सब कर्म धूलि को उड़ा-उड़ा, अगणित गुणयुत शुचिधर्मा थे।।
संयमबल से त्रयविध अवधी, पाकर निरवधि गुण रत्नाकर।
उन गणधर स्वामी को वंदूँ, पा जाऊँ अनवधि सुखसागर।।१०।।
‘श्रीयशोबाहु’ गणधर गुणधर, निजगुण के यश को फैलाया ।
जिसमें धर्मामृत भरा हुआ, इस अतुल तीर्थ में नहलाया।।
भाक्तिक जन इसमें नहा नहा, निज पाप मलों को धोते हैं।
उन गणधर स्वामी को नमते, सब वांछित पूरे होते हैं।।११।।
‘देवाग्नी’ गणधर ने तप बल, से सर्व ऋद्धियाँ पाई थीं।
ध्यानानल में सब कर्म जला, कर सर्वसिद्धियाँ पायी थीं।।
श्रीऋषभदेव के चरणकमल, के भ्रमर बने थे जग त्राता।
उन गणधर गुरु के चरणों को, मैं वंदूँ मिले सर्व साता।।१२।।
-अडिल्ल छंद-
बुद्धि ऋद्धि में अवधि ज्ञान है ऋद्धि जो।
अणु से महास्कंध पर्यंते मूर्त को।।
जाने गणधर ‘अग्निदेव’ सब ऋद्धियुत।
गणधर गुरु को नित मैं वंदूँ सिद्धिकृत।।१३।।
मनुज लोक के भीतर चिंतित वस्तु को।
जाने मूर्तिक द्रव्य मन:पर्यय ज्ञान वो।।
इन ऋद्धीयुत ‘अमितगुप्त’ गणनाथ को।
गणधर गुरु मन वच तन से नित नमों।।१४।।
लोकालोक प्रकाशे केवलज्ञान जो।
सब ऋद्धीयुत पाते जो इस ऋद्धि को।।
उन ‘मित्राग्नी’ गणधर को मैं नित नमूँ।
श्रीऋषभदेव को वंदूँ निज आतम भजूँ।।१५।।
शब्द संख्यातों अर्थ अनंतों से युते।
अनंत लिंगों साथ बीजपद जानते।।
बीजऋद्धि युत भी ‘हलभृत’ गणनाथ हैं।
उनके गुरु तीर्थंकर त्रिभुवन नाथ हैं।।१६।।
शब्दरूप बीजों को मति से जो धरें।
मिश्रण बिन बुद्धी कोठे में जो भरें।।
गणधरदेव ‘महीधर’ जिनवर भक्त थे।
उनको वंदूँ तीर्थंकर प्रभु दर्शन मिले।।१७।।
गुरु उपदेश सुपाय एक पद को ग्रहें।
उसके ऊपर या पहले के पद लहें।।
उभय ग्रहें या त्रयविध पदानुसारिणी।
गुरु ‘महेन्द्र’ गणधर भक्ती भवहारिणी।।१८।।
श्रोत्रेन्द्रिय उत्कृष्ट क्षेत्र के बाहिरे।
अक्षर अनक्षरात्मक वच सुन उत्तरें।।
गणि ‘वसुदेव’ संभिन्नश्रोतृ ऋद्धि धरें।
उन्हें नमूँ जो तीर्थंकर गुण उच्चरें।।१९।।
रसनेन्द्रिय उत्कृष्ट क्षेत्र के बाह्य जो।
संख्यातों योजन नाना रस स्वाद को।।
जो जाने दूरास्वादन ऋद्धी धरें।
गणी ‘वसुंधर’ जिनभक्ती से भव तरें।।२०।।
स्पर्शेन्द्रिय उत्कृष्ट क्षेत्र के बाह्य भी।
संख्यातों योजन स्पर्श को जानहीं।
‘अचलगुरु’ दूरस्पर्श ऋद्धि आदिक सहित।
गणधर गुरु ऋषभेश्वर हैं त्रिभुवन महित।।२१।।
घ्राणेन्द्रिय उत्कृष्ट क्षेत्र के बाह्य भी।
संख्यातों योजन सुगंध को जानहीं।।
‘मेरू’ गणधर दूरघ्राण ऋद्धी धरें।
उन गुरु को नित वंदत हम समसुख भरें।।२२।।
कर्णेन्द्रिय उत्कृष्ट विषय के बाहिरे।
संख्यातों योजन मनुष्य पशु अक्षरे।।
पृथक्-पृथक् सुन लेय ‘मेरुधन’ गणधरा।
उन गुुरु को मैं नमूँ सदा वे सुखकरा।।२३।।
नेत्रेन्द्रिय उत्कृष्ट क्षेत्र से बाह्य जो।
चक्रवर्ति के नेत्रविषय से अधिक वो।।
दूरदर्शिता ऋद्धि ‘मेरुभूती’ धरें।
गणधर ये प्रभु चरणकमल में नति करें।।२४।।
-नरेन्द्र छंद-
रोहिणी प्रभृति महाविद्यायें, पाँच शतक मानी हैं।
लघु विद्या अंगुष्ठप्रसेना, प्रभृति सप्तशत ही हैं।।
दशम पूर्व पढ़ने पर च्युत, निंह दशपूर्वित्व कहाते।
गणी ‘सर्वयश’ ऋषभेश्वर के, गुणयश को नित गाते।।२५।।
ग्यारह अंग चतुर्दश पूरब, पढ़कर श्रुतकेवलि हों।
ऋद्धि चतुर्दशपूर्वि धरें नित, ‘सर्वयज्ञ’ गणधर वो।।
ऋषभदेव के समवसरण में, धर्मध्यान के ध्यानी।
उनको उनके गुरु को वंदूँ, बनूँ आत्म श्रद्धानी।।२६।।
अभ्र भौम अंग स्वर व्यंजन, लक्षण चिन्ह स्वपन हों।
आठ निमित्तों से सब के शुभ, अशुभ बताते मुनि जो।।
वे अष्टांगनिमित्त ऋद्धिधर, ‘सर्वगुप्त’ गणधर गुरु।
ऋषभदेव की भक्ती में रत, नमूँ नमूँ मैं रुचिधर।।२७।।
औत्पत्तिक पारिणामिक विनयिक, कही कर्मजा बुद्धी।
प्रज्ञाश्रमण ऋद्धि चउविधधर, गणधर गुरु बनते भी।।
नाम ‘सर्वप्रिय’ ऋषभदेव के, शिष्य सर्वजग त्राता।
नमूँ तीर्थकर गुरु गणधर को, पाऊँ निजसुख साता।।२८।।
गुरु उपदेश बिना कर्मों के, उपशम से तप बल से।
जो प्रत्येक बुद्धि ऋद्धी है, ऋषियों के ही प्रगटे।।
‘सर्वदेव’ गणधर गुरुवर इस, ऋद्धि सहित सुखकारी।
उनके गुरु ऋषभेश्वर को भी, वंदूँ भवदुखहारी।।२९।।
सब परमत को सुरपति को भी, जो कर सकें निरुत्तर।
इन वादित्वऋद्धियुत गणधर, को वंदूँ अंजलिकर।।
‘सर्वविजय’ से वंदित जिनवर, चरणकमल शिर नाऊँ।
गणधरगुरु को तीर्थंकर को, नमत आत्मसुख पाऊँ।।३०।।
अणू बराबर छिद्रों में भी, जो ऋषि घुस कर बैठें।
चक्रवर्ति का कटक बना दें, अद्भुत विक्रिय करके।।
ऐसे अणिमा ऋद्धि विभूषित, ‘विजयगुप्त’ गणधर को।
नमूँ इन्हों के गुरु तीर्थंकर, नमूँ स्वात्मसुख झट हो।।३१।।
मेरु बराबर तनु कर सकते, महिमाऋद्धि धरें जो।
विक्रिय ऋद्धी के बल से गुरु, पर उपकार करें वो।।
‘विजयमित्र’ गणधर गुरु इन सब, ऋद्धि समन्वित माने।
उनको उनके गुरु को वंदत, कर्म कालिमा हाने।।३२।।
लघिमा ऋद्धि सहित ऋषि वायू, सम हल्का तनु कर सकते।
जन जन के उपकार हेतु ही, ऋद्धि प्रयोगें रुचि से।।
‘श्रीविजयिल’ गणधर गुरु ऐसे, उनके चरण नमूँ मैं।
श्रीऋषभेश्वर को नित वंदूँ, आतम सौख्य भरूँ मैं।।३३।।
‘अपराजित’ गणधर प्रभु जग में, सदा विजयशाली थे।
अधिक भारयुत वङ्कासदृश तनु, तप बल से धर सकते।।
गरिमा ऋद्धि सहित को वंदूँ, तपमहिमा की गरिमा।
वंदूँ ऋषभदेव तीर्थंकर, पाउँâ तप की महिमा।।३४।।
भूमी पर बैठे ही बैठे, सूर्य चंद्र छू सकते।
अंगुलि से ही मेरुशिखर, छूकर मस्तक से नमते।।
प्राप्तिनाम विक्रिया सहित, ‘वसुमित्र’ गणाधिप वंदूँ।
तीर्थंकर श्रीआदिनाथ के, शिष्यों को अभिनंदूँ।।३५।।
भू पर भी जलसम अवगाहे, जल में भू सम चलते।
इस प्राकाम्य विक्रिया बल से, अद्भुत महिमा धरते।।
‘विश्वसेन’ गणधर को वंदूँ, नाना ऋद्धि सहित जो।
आदिनाथ के चरणकमल के, भ्रमर भक्ति तत्पर वो।।३६।।
-रोला छंद-
जग में प्रभुता वृद्धि, यह ईशित्व कहावे।
‘साधुषेण’ के सिद्ध, सब जन से यश पावें।।
उन गणधर के नाथ, ऋषभदेव तीर्थंकर।
नमूँ भक्ति से नित्य, पाऊँ सौख्य निरन्तर।।३७।।
सब जन वश में होय, ऋद्धि वशित्व कहावे।
‘सत्यदेव’ गणदेव, नाना ऋद्धि धरावें।।
इनसे वंदित पाद, ऋषभदेव भगवंता।
करूँ निरन्तर जाप, पाऊँ सौख्य अनंता।।३८।।
जिसके बल से शैल, शिला आदि के मधि से।
वृक्ष आदि में छेद, किये बिना ही चलते।।
विक्रिय अप्रतिघात, ‘देवसत्य’ गुण धरते।
ऋषभदेव के शिष्य, गणी द्विदश गण धरते।।३९।।
जिस ऋद्धी से साधु, हों अदृश्य निंह दिखते।
विक्रिय अंतर्धान, तप बल से ही उपजे।।
‘सत्यगुप्त’ गणनाथ, बहुविध ऋद्धी धारी।
उन गुरु आदिनाथ, नमूँ सर्वहितकारी।।४०।।
एकहि साथ अनेक-रूप बना सकते जो।
कामरूप यह ऋद्धि, तप बल से प्रगटे जो।।
‘सत्यमित्र’ गणनाथ ऋषभदेव गुण गाते।
नमूँ नमाकर माथ, तीर्थंकर गुण गाके।।४१।।
जिस ऋद्धी से साधु, गगन गमन कर सकते।
धरें गगनगामित्व, ‘निर्मल’ गणि तपबल से।।
इनके गुरु वृषभेश, उनको भी प्रणमूँ मैं।
रोग, शोक, संक्लेश, सब दु:ख दूर करूँ मैं।।४२।।
जल में चलते जंतु-घात वहाँ निंह होवे।
जलचारण यह ऋद्धि, तपश्चरण से होवे।।
‘श्रीविनीत’ गणधार, नमूँ नमूँ चित लाके।
ऋषभदेव को माथ, नाऊँ भक्ति बढ़ाके।।४३।।
चउ अंगुल भू उपरि, चलते अधर गगन में।
जंघाचारण ऋद्धि, धरते समवसरण में।।
‘संवर’ गणधर देव, उनके गुरु आदीश्वर।
नमत करूँ दुखछेव, पाऊँ सुख क्षेमंकर।।४४।।
फल पत्ते अरु फूल, उन पर चरण धरें भी।
चारणकिरिया ऋद्धि, जीवघात निंह हो भी।।
‘मुनीगुप्त’ गणनाथ, वंदूँ व्याधि नशाऊँ।
नमूँ नमाकर माथ, ऋषभदेव गुण गाऊँ।।४५।।
अग्नि शिखा पर चलें, बाधा रंच न होवे।
धूयें पर भी चले, पग स्खलित न होवें।।
‘मुनीदत्त’ गणनाथ, अग्निधूम चारण युत।
आदीश्वर के शिष्य, नमूँ नमूँ मैं शिरनत।।४६।।
अप्कायिक बध टाल, मेघों पर चल सकते।
जलधारा पर चलें, चारणऋषि बन करके।।
‘मुनीयज्ञ’ गणदेव, ऋषभदेव को नमते।
हम वंदे कर सेव, नाम मंत्र जप जपके।।४७।।
जो मकड़ी के तंतु, पर हल्के पग धरते।
बाधा करें न रंच, चारण ऋद्धी धरते।।
‘मुनीदेव’ गणनाथ, नमूँ नमूँ नित शिरनत।
नमूँ तीर्थकर नाथ, पाऊँ जिनगुणसंपत्।।४८।।
-शंभु छंद-
जो सूर्य चंद्र ग्रह नखत तारका, किरणों का अवलंबन लें।
बहुतेक योजनों गमन करें, ज्योतिश्चारण क्रिय ऋद्धी लें।।
गुरु ‘गुप्तियज्ञ’ गणधर बनकर, संपूर्ण ऋद्धि के स्वामी थे।
श्री आदिनाथ के चरण नमें, जो त्रिभुवन अंतर्यामी थे।।४९।।
जिस ऋद्धी से मुनि वायु पंक्ति, के आश्रय से नभ में चलते।
स्खलन रहित पग धर धरके, बहुते कोशों तक चल सकते।।
यह वायुचारणा क्रिया ऋद्धि, ‘श्रीमित्रयज्ञ’ गणधर धरते।
उनके गुरु ऋषभदेव को, उनको नमते रोग शोक नशते।।५०।।
तप ऋद्धी के हैं सात भेद, उनमें हि उग्र तप पहला है।
एकेक उपवास अधिक, जीवन भर बढ़ता रहता है।।
गणदेव ‘स्वयंभू’ ने बहुविध, ऋद्धी से आत्मविकास किया।
श्री ऋषभदेव को ध्या ध्याकर, निज केवलज्ञान प्रकाश लिया।।५१।।
बेला आदिक उपवास करें, जब ऋद्धि दीप्तमय हो जाती।
आहार न हो बल तेज बढ़े, निंह होती उन्हें भूख व्याधी।।
यह इस ऋद्धी का ही प्रभाव, तनु में बल माँस रुधिर वृद्धी।
‘भगदेव’ गणीश्वर वृषभेश्वर, को नमते मिलती सब सिद्धी।।५२।।
जिस ऋद्धी से आहार ग्रहें, वह तपे लोह पर जल सदृश।
नीहार न हो मल मूत्र शुक्र, आदिक धातू निंह बने विविध।।
बस शक्ति बढ़े तप बढ़े सदा, ‘‘भगदत्त’’ गणीश्वर को प्रणमूँ।
श्री ऋषभदेव को नित्य नमूँ, भव भव के कर्म कलंक वमूँ।।५३।।
जो अणिमादिक चारण आदिक, नाना ऋद्धी से युक्त रहें।
मंदरपंक्ती सिंहनिष्क्रीड़ित, आदिक उत्तम उपवास गहें।।
वो चार ज्ञानधारी ऋषिवर, ही महातपो ऋद्धी धारें।
‘भगफल्गू’ गणधर नमूँ मुझे, श्री ऋषभदेव भव से तारें।।५४।।
अनशन आदिक बारह विध के, तप उग्र उग्र जो करते हैं।
ज्वर आदिक से पीड़ित हो भी, आतापनादि तप धरते हैं।।
‘श्रीगुप्तफल्गु’ तप ऋद्धिसहित, गणधर गुरु विघ्न विनायक हैं।
उनके गुरु ऋषभदेव जिनवर, वंदत सुख संपति दायक हैं।।५५।।
मुनि घोर पराक्रम ऋद्धी से, अतिशायी शक्ती पाते हैं।
त्रिभुवन संहार करण जलधी, शोषण में समरथ होते हैं।।
यद्यपि ये कार्य नहीं करते, जगबन्धू ‘मित्रफल्गु’ गणधर।
उनके गुरु ऋषभदेव जिनवर, मैं वंदूँ भवभय पातकहर।।५६।।
जो अघोर यानी पूर्णशांत, महाव्रत समिती गुप्ती पालें।
वे व्रतमय ब्रह्मा में चरते, अघोर ब्रह्मचर्या पालें।।
इन ऋद्धिसहित ‘श्रीप्रजापति’ गणधर की भक्ती करने से।
वध रोग कलह दुर्भिक्ष वैर, नशते भगवन् की भक्ती से।।५७।।
सब द्वादशांग अंतर्मुहूर्त, में चिंतन करने में समरथ।
जो मनोबली ऋद्धी धारें, वे शुक्ल ध्यान में हों समरथ।।
‘श्रीसर्वसंग’ गणधर गुरुवर, सब ऋद्धि सहित भवि सुखदाता।
उनको प्रणमूँ श्री ऋषभदेव, को वंदत मिले सर्व साता।।५८।।
श्रुत द्वादशांग उच्चारण कर पढ़ते निंह कंठ थके उनका।
वह वचनबली ऋद्धी प्रगटे, वे मेटें जग की सर्व व्यथा।।
‘श्रीवरुण’ गणी को नित प्रणमूँ, उनके गुरु ऋषभदेव वंदूँ।
श्रुतज्ञान पूर्ण करने हेतू, गणधर जिनवर को नित्य नमूँ।।५९।।
त्रिभुवन को भी अंगुलि ऊपर, जो उठा सकें वो कायबली।
नाना विध आसन कायक्लेश, करने से हो यह ऋद्धि भली।।
‘धनपालक’ गणधर को प्रणमूँ, सब ऋद्धि सिद्धि सुख के दाता।
उनके गुरु ऋषभदेव को नित, मैं वंदूँ मिले सौख्य साता।।६०।।
-पद्धड़ी छंद-
औषधि ऋद्धी के आठ भेद, आमर्शौषधि यह ऋद्धि एक।
‘मघवान’ गणी यह ऋद्धि धरें, इन गुरु को वंदत पाप हरें।।६१।।
जो क्ष्वेलौषधि ऋद्धी धरते, वे सर्वरोग संकट हरते।
गुरु ‘तेजोराशी’ गणधर थे, उन को ऋषभेश्वर को नमते।।६२।।
गुरु जल्लौषधि ऋद्धी धरंत, ‘महावीर’ नाम गणधर महंत।
उनके गुरु वंदूँ आदिनाथ, भवदधि डूबत को देयं हाथ।।६३।।
जो मलौषधी धरते महान्, गणईश ‘महारथ’ भाग्यवान्।
श्री ऋषभदेव के शिष्य मान्य, वंदत ही पावें स्वात्म साम्य।।६४।।
ऋषि विप्रुष औषधि ऋद्धि धार, नमते दुख दारिद करें छार।
उनके गुरु ऋषभेश्वर महान्, जो ‘विशालाक्ष’ गणधर प्रधान।।६५।।
जिनसे स्पर्शित नीर वायु, सब रोग हरे करते चिरायु।
सर्वौषधि धरते ‘महाबाल’, उनको मैं वंदूँ जगत्पाल।।६६।।
जिससे कटु या विष व्याप्त अन्न, बस वचन मात्र से निर्विषान्न।
मुखनिर्विष युत ‘शुचिसाल’ साधु, उन गणि को मैं वंदूँ अबाध।।६७।।
जो रोग विषादि समेत जीव, अवलोकन से हों स्वस्थ जीव।
दृष्टीनिर्विषयुत ‘श्रीवङ्का’ साधु, उन गणि को नमते स्वात्मस्वादु।।६८।।
आशीविष ऋद्धी जो धरंत, दुरआशिष से मरते तुरंत।
श्री ‘वङ्कासार’ न करें प्रयोग, उन गणि के नमते मिटे शोक।।६९।।
दृष्टीविषयुत गणि ‘चन्द्रचूल’ करुणासागर जग के नुकूल।
उनके गुरु ऋषभेश्वर जििंनद, मैं नमूँ बनूँ अतिशय अनिंद्य।।७०।।
कर में आया रूखा अहार, पयवत् परिणमता स्वाद धार।
श्री ‘जयकुमार’ गणधर नमंत, उन गुरु को वंदत सुख अनंत।।७१।।
कर में आया रुक्षादि अन्न, तप से बन जाता मधुर अन्न।
‘महारस’ गणधर के गुरु जिनेश, मैं वंदूँ पाऊँ सुख हमेश।।७२।
-स्रग्विणी छंद-
अमृतास्रावि विष वस्तु अमृत करें।
उन वचन दु:खहर कर्ण अमृत भरें।।
‘कच्छ’ गणधर उन्हीं के नमूँ पाद को।
शिष्य जिनके उन्हें भी नमूँ भाव सों।।७३।।
हस्ततल में रखा रुक्ष अन्नादि भी।
दिव्य वच भी अमृतसम करें तुष्टि ही।।
जो ‘महाकच्छ’ गणधर उन्हों के प्रभू।
मैं नमूँ भक्ति से पाऊँ आनन्द भू।।७४।।
‘नमि’ महासाधु गणधर बने नाथ के।
ऋद्धि अक्षीण भोजन मिली त्याग से।।
चक्रवर्ती कटक जीम लेवे भले।
ना घटे पाद वंदूँ सदा भक्ति ले।।७५।।
भू चतुष्कोण हो चार ही धनुष भी।
देव नर भी असंख्ये वहाँ तिष्ठहीं।।
नाम अक्षीण आलय महाऋद्धि से।
नाथ गणधर ‘विनमी’ नमूँ भक्ति से।।७६।।
-गीता छंद-
‘श्रीबल’ गणी ऋषभेश के, सब ऋद्धियों के नाथ हैं।
सम्पूर्ण गुण रत्नों भरें, फिर भी न कुछ उन पास है।।
जिनदेव के चरणाब्ज षट्पद१, आत्मसुख में मग्न हैं।
उनको उन्हों के नाथ को, वंदत मिले सुख कंद है।।७७।।
‘अतिबल’ गणी ऋषभेश जिन के, समवसृति में शोभते।
अठरह सहस शीलों गुणों से, आत्मसुख को पोषते।।
प्रभु भक्ति में लवलीन हो, निज आत्म का चिंतन करें।
गणधर गणों से वंद्य जिनवर, नमत भव भंजन करें।।७८।।
‘श्रीभद्रबल’ चउज्ञानधारी, ऋद्धियों से पूर्ण हैं।
उत्तर गुणों से राजते, यमदु:ख करते चूर्ण हैं।।
ऋषभेश के पदपंकजों की, नित्य करते वंदना।
गणधर गुरु को आदिप्रभु को, वंदते दु:ख रंचना।।७९।।
‘नंदी’ गणाधिप नाथ की, दिव्यध्वनि सुन मोदते।
द्वादश गणों को द्वादशांगी, में सतत संबोधते।।
निज शुद्ध परमानंदमय, ज्ञानाब्धि में अवगाहते।
फिर भी जिनेश्वर चरण वंदे, हम उन्हें शिर नावते।।८०।।
गणधर ‘महाभागी’ जिनेश्वर, पादपंकज ध्यावते।
बहु पुण्य संपादन करें, फिर पाप पुण्य नशावते।।
निज में सु परमाल्हाद अमृत, पान कर शिव पावते।
उनके गुरु वृषभेश को भी, वंदते अति चाव से।।८१।।
‘श्रीनंदिमित्र’ गणेश नित, आदीश का वंदन करें।
चौरासी लक्षोत्तर गुणों से, पूर्ण भव खण्डन करें।।
संपूर्ण ऋद्धि समेत फिर भी, नग्नमुद्रा धारते।
उनको नमूँ जिन को नमूँ फिर, तिरूँ भक्ती नाव से।।८२।।
‘श्रीकामदेव’ गणीश नित, तीर्थेश की भक्ती करें।
निज भक्त को तारें भवोदधि से स्वयं गुण से तिरें।।
उनके चरण को वंद कर, वृषभेश को वंदन करूँ।
निज साम्य अमृत को पिऊँ, यमपाश का छेदन करूँ।।८३।।
‘अनुपम’ गणीश्वर सर्व उपमा, रहित अनुपम गुण धरें।
संपूर्ण लोक अलोक में, निज कीर्ति बल्ली विस्तरें।।
सब ऋद्धि सिद्धि समेत फिर भी, आदिजिन के भक्त थे।
हम भी नमें गणधरगुरु, जिनराज को अति भक्ति से।।८४।।
-शंभु छंद-
श्री ऋषभदेव के चौरासी, गणधर जिनमुद्रा धारी थे।
चौरासि हजार महामुनि के, स्वामी अनवधि गुणधारी थे।।
श्रीऋषभसेन आदिक गणपति, श्रीऋषभदेव की भक्ति करें।
गणधरगुरु नमि तीर्थंकर को, वंदत निज आतम पुष्ट करें।।८५।।
-दोहा-
ऋषभदेव के गणपती, चौरासी श्रुत मान्य।
‘ज्ञानमती’ वैâवल्य हो, नमत मिले सुख साम्य।।८६।।