—गीता छंद—
गणधर बिना तीर्थेश की, वाणी न खिर सकती कभी।
प्रभु पास में दीक्षा ग्रहें, गणधर भि बन सकते वही।।
तीर्थेश की ध्वनि श्रवणकर, उन बीज पद के अर्थ को।
जो ग्रथें द्वादश अंगमय, मैं नमूं उन गणनाथ को।।१।।
श्री ऋषभदेव जिनेन्द्र के, चौरासि गणधर मान्य हैं।
गुरु ‘ऋषभसेन’ प्रधान इनमें, सर्व रिद्धि निधान हैं।।
द्वादश गणों के नाथ द्वादश, अंग के कर्ता तुम्हीं।
मैं नमूं नितप्रति भक्ति से, गुरुभक्ति भवदधि तारहीं।।२।।
श्री अजितनाथ जिनेन्द्र के, नब्बे गणाधिप मान्य हैं।
‘केशरीसेन’ प्रधान इनमें, सर्व ऋद्धि निधान हैं।।
द्वादश गणों के नाथ द्वादश, अंग के कर्ता तुम्हीं।
मैं नमूं नितप्रति भक्ति से, गुरुभक्ति भवदधि तारहीं।।३।।
संभव जिनेश्वर के सु इक सौ, पाँच गणधर ख्यात हैं।
गुरु ‘चारुदत्त’ प्रधान इनमें, सर्व ऋद्धि सनाथ हैं।।
द्वादश गणों के नाथ द्वादश, अंग के कर्ता तुम्हीं।
मैं नमूं नितप्रति भक्ति से, गुरुभक्ति भवदधि तारहीं।।४।।
जिन अभिनंदन के गणाधिप, एक सौ त्रय ख्यात हैं।
गुरु ‘वङ्काचमर’ प्रधान इसमें, सर्व ऋद्धि सनाथ हैं।।
द्वादश गणों के नाथ द्वादश, अंग के कर्ता तुम्हीं।
मैं नमूं नितप्रति भक्ति से, गुरुभक्ति भवदधि तारहीं।।५।।
श्री सुमति जिनके एक सौ, सोलह गणाधिप मान्य हैं।
‘श्रीवङ्का’ गणधर मुख्य इनमें, सर्वऋद्धि खान हैं।।
द्वादश गणों के नाथ द्वादश, अंग के कर्ता तुम्हीं।
मैं नमूं नितप्रति भक्ति से, गुरुभक्ति भवदधि तारहीं।।६।।
श्रीपद्मप्रभ के एक सौ, ग्यारह गणाधिप ख्यात हैं।
‘श्रीचमर’ गणधर मुख्य उनमें, सर्वरिद्धि सनाथ हैं।।
द्वादश गणों के नाथ द्वादश, अंग के कर्ता तुम्हीं।
मैं नमूं नितप्रति भक्ति से, गुरुभक्ति भवदधि तारहीं।।७।।
जिनवर सुपारस के गणीश्वर, ख्यात पंचानवें हैं।
‘बलदत्त’ गणधर हैं प्रमुख, सब ऋद्धियों से भरे हैं।।
द्वादश गणों के नाथ द्वादश, अंग के कर्ता तुम्हीं।
मैं नमूं नितप्रति भक्ति से, गुरुभक्ति भवदधि तारहीं।।८।।
श्री चन्द्रप्रभ के गणपती, तेरानवे गणपूज्य हैं।
‘वैदर्भ’ गणधर प्रमुख उनमें, सर्व ऋद्धी सूर्य हैं।।
द्वादश गणों के नाथ द्वादश, अंग के कर्ता तुम्हीं।
मैं नमूं नितप्रति भक्ति से, गुरुभक्ति भवदधि तारहीं।।९।।
श्री पुष्पदंत जिनेश के, गणधर अठासी मान्य हैं।
‘श्रीनाग’ मुनि गणधर प्रमुख, सब ऋद्धियों की खान हैं।।
द्वादश गणों के नाथ द्वादश, अंग के कर्ता तुम्हीं।
मैं नमूं नितप्रति भक्ति से, गुरुभक्ति भवदधि तारहीं।।१०।।
शीतल जिनेश्वर के सत्यासी, गणधरा जग वंद्य हैं।
‘श्री कुंथु’ गणधर प्रमुख इनमें, सर्वरिद्धी कंद हैं।।
द्वादश गणों के नाथ द्वादश, अंग के कर्ता तुम्हीं।
मैं नमूं नितप्रति भक्ति से, गुरुभक्ति भवदधि तारहीं।।११।।
श्रेयांस जिनके पास सत्तत्तर गणाधिप श्रेष्ठ हैं।
‘श्रीधर्मगुरु’ गणधर प्रमुख, सब ऋद्धि गुण में ज्येष्ठ हैं।।
द्वादश गणों के नाथ द्वादश, अंग के कर्ता तुम्हीं।
मैं नमूं नितप्रति भक्ति से, गुरुभक्ति भवदधि तारहीं।।१२।।
श्री वासुपूज्य जिनेन्द्र के, छ्यासठ गणाधिप गण धरें।
‘मंदर’ मुनी गणधर प्रमुख ये, सर्व रिद्धी गुण भरें।।
द्वादश गणों के नाथ द्वादश, अंग के कर्ता तुम्हीं।
मैं नमूं नितप्रति भक्ति से, गुरुभक्ति भवदधि तारहीं।।१३।।
—नरेन्द्र छंद—
विमलनाथ के गणधर पचपन, सब ऋद्धि से पावन।
‘जयमुनि’ प्रमुख उन्हों में गणधर, भव सागर से तारन।।
ये भव्यों के रोग शोक दुख, दारिद कष्ट निवारें।
नव निधि ऋद्धी यश संपत्ती, देकर भव से तारें।।१४।।
श्री अनंत जिनवर के गणधर, हैं पचास गुण आकर।
‘श्री अरिष्ट’ गणधर प्रमुख्य हैं, ऋद्धि सिद्धि रत्नाकर।।
ये भव्यों के रोग शोक दुख, दारिद कष्ट निवारें।
नव निधि ऋद्धी यश संपत्ती, देकर भव से तारें।।१५।।
धर्मनाथ के गणधर सब, ऋद्धी से पूर्ण तितालिस।
‘श्री अरिष्टसेन’ उनमें गुरु, ज्ञानज्योति से भासित।।
ये भव्यों के रोग शोक दुख, दारिद कष्ट निवारें।
नव निधि ऋद्धी यश संपत्ती, देकर भव से तारें।।१६।।
शांतिनाथ के छत्तिस गणधर, चौंसठ ऋद्धि समन्वित।
‘चक्रायुध’ गणधर उनमें गुरु, सर्व गुणों से मंडित।।
ये भव्यों के रोग शोक दुख, दारिद कष्ट निवारें।
नव निधि ऋद्धी यश संपत्ती, देकर भव से तारें।।१७।।
कुंथुनाथ के पैंतिस गणधर, शिवपथ विघ्न विनाशें।
प्रमुख ‘स्वयंभू’ गणधर उनमें, भविमन कुमुद विकासें।।
ये भव्यों के रोग शोक दुख, दारिद कष्ट निवारें।
नव निधि ऋद्धी यश संपत्ती, देकर भव से तारें।।१८।।
अर जिनवर के तीस गणाधिप, सर्वऋद्धि के धारी।
‘कुंभ’ प्रमुख हैं गणधर सबमें, परमानंद सुखकारी।।
ये भव्यों के रोग शोक दुख, दारिद कष्ट निवारें।
नव निधि ऋद्धी यश संपत्ती, देकर भव से तारें।।१९।।
मल्लिनाथ के अट्ठाइस गणनायक गुणमणि धारें।
‘श्री विशाख’ गणधर गुरु उनमें, भक्त विघन परिहारें।।
ये भव्यों के रोग शोक दुख, दारिद कष्ट निवारें।
नव निधि ऋद्धी यश संपत्ती, देकर भव से तारें।।२०।।
मुनिसुव्रत के अठरह गणधर, व्रत गुण शील समन्वित।
‘मल्लि’ प्रमुख हैं गणधर उनमें, सब श्रुत ज्ञान समन्वित।।
ये भव्यों के रोग शोक दुख, दारिद कष्ट निवारें।
नव निधि ऋद्धी यश संपत्ती, देकर भव से तारें।।२१।।
नमि जिनवर के सत्रह गणधर, यम नियमों के सागर।
‘सुप्रभ’ प्रमुख गणाधिप उनमें, करते ज्ञान उजागर।।
ये भव्यों के रोग शोक दुख, दारिद कष्ट निवारें।
नव निधि ऋद्धी यश संपत्ती, देकर भव से तारें।।२२।।
नेमिनाथ के ग्यारह गणधर, ऋद्धि सिद्धि गुण धारें।
‘श्री वरदत्त’ प्रमुख गणधर हैं, गुणमणि माला धारें।।
ये भव्यों के रोग शोक दुख, दारिद कष्ट निवारें।
नव निधि ऋद्धी यश संपत्ती, देकर भव से तारें।।२३।।
पार्श्वनाथ के दश गणधर गुरु, चौंसठ ऋद्धि धरें हैं।
‘प्रमुख स्वयंभू’ गणधर उनमें, स्वात्मपियूष भरे हैं।।
ये भव्यों के रोग शोक दुख, दारिद कष्ट निवारें।
नव निधि ऋद्धी यश संपत्ती, देकर भव से तारें।।२४।।
महावीर प्रभु के गणधर हैं, ग्यारह सब गुण पूरे।
‘इंद्रभूति गौतम’ स्वामी हैं, यम की समरथ चूरें।।
ये भव्यों के रोग शोक दुख, दारिद कष्ट निवारें।
नव निधि ऋद्धी यश संपत्ती, देकर भव से तारें।।२५।।
—शंभु छंद—
चौबिस जिनके सब गणधर गुरु, चौंसठ ऋद्धी को धारे हैं।
ये चौदह सौ उनसठ१ मानें, भक्तों को भव से तारे हैं।।
सर्वौषधि आदिक ऋद्धी से, सब रोग शोक दु:ख हरण करें।
हम इनको वंदें भक्ती से, ये मुझमें समरस सुधा भरें।।२६।।
—दोहा—
नमूं नमूं गणधर गुरू, द्वादशगण के नाथ।
‘ज्ञानमती’ सुखसंपदा, हेतु नमाऊं माथ।।२७।।