(सौधर्मादि से ग्रैवेयक तक प्राप्त हुये मुनि स्तोत्र)
—रोला छंद—
ऋषभदेव के शिष्य, तीन हजार सु इक सौ।
सौधर्मादिक स्वर्ग, प्राप्त किया मुनिपद सों।।
वंदूँ शीश नमाय सब दुख शोक नशाऊँ।
आतम निधि को पाय, फेर न भव में आऊँ।।१।।
अजितनाथ के शिष्य, उनतिस सौ गुणधारी।
सौधर्मादिक स्वर्ग, प्राप्त किया सुखकारी।।
वंदूँ शीश नमाय सब दुख शोक नशाऊँ।
आतम निधि को पाय, फेर न भव में आऊँ।।२।।
संभव जिनके शिष्य, निन्यानवे शतक हैं।
स्वर्गादिक सुख दिव्य, प्राप्त किया गुणभृत हैं।।
वंदूँ शीश नमाय सब दुख शोक नशाऊँ।
आतम निधि को पाय, फेर न भव में आऊँ।।३।।
अभिनदंन के शिष्य, उन्यासी सौ मानो।
गुणमणि भूषित नित्य, पाया दिव सरधानो।।
वंदूँ शीश नमाय सब दुख शोक नशाऊँ।
आतम निधि को पाय, फेर न भव में आऊँ।।४।।
सुमतिनाथ के शिष्य, चौंसठ सौ तपधारे।
ध्यानाध्ययन सुप्रीति, पाया दिवपद सारे।।
वंदूँ शीश नमाय सब दुख शोक नशाऊँ।
आतम निधि को पाय, फेर न भव में आऊँ।।५।।
पद्मप्रभू के शिष्य, चार हजार मुनी हैं।
स्वर्गादिक सुख दिव्य, पाया ज्ञान धनी हैं।।
वंदूँ शीश नमाय सब दुख शोक नशाऊँ।
आतम निधि को पाय, फेर न भव में आऊँ।।६।।
श्री सुपार्श्व के शिष्य, चौबिस सौ मुनिपद में।
जातरूप धर दिव्य, सुख पाया स्वर्गन में।।
वंदूँ शीश नमाय सब दुख शोक नशाऊँ।
आतम निधि को पाय, फेर न भव में आऊँ।।७।।
चंद्रनाथ के शिष्य, चार हजार बखाने।
नग्नरूप धर दिव्य, सुख पाया मनमाने।।
वंदूँ शीश नमाय सब दुख शोक नशाऊँ।
आतम निधि को पाय, फेर न भव में आऊँ।।८।।
पुष्पदंत के शिष्य, चौरानवे शतक हैं।
धर्मध्यान से सिद्ध, प्राप्त किया दिवपद है।।
वंदूँ शीश नमाय सब दुख शोक नशाऊँ।
आतम निधि को पाय, फेर न भव में आऊँ।।९।।
शीतल जिनके शिष्य, चौरासी सौ कहिये।
समकित गुण से दिव्य, पद पाया सरदहिये।।
वंदूँ शीश नमाय सब दुख शोक नशाऊँ।
आतम निधि को पाय, फेर न भव में आऊँ।।१०।।
जिन श्रेयांस के शिष्य, चौहत्तर सौ जानो।
रत्नत्रय से दिव्य, पद पाया सुख ठानो।।
वंदूँ शीश नवाय सब दुख शोक नशाऊँ।
आतम निधि को पाय, फेर न भव में आऊँ।।११।।
वासुपूज्य के शिष्य, चौंसठ सौ गुणभृत हैं।
नमूँ नमूँ मैं नित्य, प्राप्त किया दिवपद है।।
वंदूँ शीश नमाय सब दुख शोक नशाऊँ।
आतम निधि को पाय, फेर न भव में आऊँ।।१२।।
विमलनाथ के शिष्य, सत्तावन सौ मुनि हैं।
विमल गुणों से कीर्त्य, स्वर्ग विभूति फलत है।।
वंदूँ शीश नमाय सब दुख शोक नशाऊँ।
आतम निधि को पाय, फेर न भव में आऊँ।।१३।।
प्रभु अनंत के शिष्य, पाँच हजार कहाये।
अठरह हजार शील, भेद धरें दिव पायें।।
वंदूँ शीश नमाय सब दुख शोक नशाऊँ।
आतम निधि को पाय, फेर न भव में आऊँ।।१४।।
धर्मनाथ के शिष्य, तेतालिस सौ गिनये।
दश धर्मों के ईश, करें प्राप्त दिव सुख ये।।
वंदूँ शीश नमाय सब दुख शोक नशाऊँ।
आतम निधि को पाय, फेर न भव में आऊँ।।१५।।
शांतिनाथ के शिष्य, छत्तिस सौ संयत हैं।
धर्मामृत को पीय, प्राप्त किया दिवपद है।।
वंदूँ शीश नमाय सब दुख शोक नशाऊँ।
आतम निधि को पाय, फेर न भव में आऊँ।।१६।।
कुंथुनाथ के शिष्य, बत्तिस सौ संयत हैं।
दु:ख भवार्णवतीर्य, प्राप्त करें दिवपद हैं।।
वंदूँ शीश नमाय सब दुख शोक नशाऊँ।
आतम निधि को पाय, फेर न भव में आऊँ।।१७।।
अरहनाथ के शिष्य, अट्ठाइस सौ जानो।
गुणधर गणधर प्रीत्य, उनकी पूजा ठानों।।
वंदूँ शीश नमाय सब दुख शोक नशाऊँ।
आतम निधि को पाय, फेर न भव में आऊँ।।१८।।
मल्लिनाथ के शिष्य, चौबिस सौ संयत हैं।
मूल गुणट्ठाईस, धरें लहें दिवपद हैं।।
वंदूँ शीश नमाय सब दुख शोक नशाऊँ।
आतम निधि को पाय, फेर न भव में आऊँ।।१९।।
मुनिसुव्रत के शिष्य, दो हजार मुनि मणि हैं।
सर्व गुणों से पूज्य, लहें स्वर्ग सुखमणि हैं।।
वंदूँ शीश नमाय सब दुख शोक नशाऊँ।
आतम निधि को पाय, फेर न भव में आऊँ।।२०।।
नमि प्रभु के मुनि शिष्य, सोलह सौ गिन लीजे।
करके गुरुवर भक्ति, दु:ख जलांजलि दीजे।।
वंदूँ शीश नमाय सब दुख शोक नशाऊँ।
आतम निधि को पाय, फेर न भव में आऊँ।।२१।।
नेमिनाथ के शिष्य, बारह सौ परिमाणे।
उनकी श्रद्धा भक्ति, भव भव के दुख हाने।।
वंदूँ शीश नमाय सब दुख शोक नशाऊँ।
आतम निधि को पाय, फेर न भव में आऊँ।।२२।।
पार्श्वनाथ के शिष्य, एक हजार कहाये।
सब गुणमणि से पूर्ण, भव भव भ्रमण मिटायें।।
वंदूँ शीश नमाय सब दुख शोक नशाऊँ।
आतम निधि को पाय, फेर न भव में आऊँ।।२३।।
वर्धमान के शिष्य, मुनी आठ सौ गाये।
उनकी नितप्रति भक्ति, करके सौख्य बढ़ाये।।
वंदूँ शीश नमाय सब दुख शोक नशाऊँ।
आतम निधि को पाय, फेर न भव में आऊँ।।२४।।
—शंभु छंद—
सब मूलोत्तर गुण से पूरित, यम नियम शील श्रुत विनय धरें।
ये भावलिंग मुनिगण नित ही, तप संयम से शिव निकट करें।।
इक लाख पाँच हज्जार आठ सौ, अंत समाधी करते हैं।
सौधर्म स्वर्ग से लेकर के, ग्रैवेयक तक सुर बनते हैं।।
—दोहा—
इनकी श्रद्धा भक्ति से, संयम रत्न लभेय।
नमूँ नमूँ गुरु प्रीति से, आतम सुख विलसेय।।२५।।
प्रत्येक तीर्थकर तीरथ में, दश दश मुनि घोर उपसर्ग सहें।
उसमें ही केवलज्ञान पाय, तत्क्षण मुक्ती पद सौख्य लहें।।
श्री वीरतीर्थ में नमि मतंग, सोमिल व रामसुत सूदर्शन।
यमलीक बलीक सु किष्कंबिल, पालंब अष्टसुत दुखभंजन।।
दश दश अंतकृत केवली, दो सौ चालिस सर्व।
नमूँ नमूँ मुझको मिले, गुण सहिष्णु सर्वस्व।।२६।।
प्रत्येक तीर्थ में दश दश मुनि, दारुण उपसर्ग सहन करके।
पंचानुत्तरों में जन्म लहें, दशनाम सु अंतिम जिनवर के।।
ऋषिदास धन्य सु नक्षत्रमुनि, कार्तिकेय आनंद नंदन।
गुरु शालिभद्र मुनिअभय वारिषेण चिलात सुत का अभिवंदन।।
दश दश मुनि उपसर्ग सह, अनुत्तरों में जांय।
दो सौ चालिस मुनि नमूँ, सर्वोपसर्ग नशाय।।२७।।