—दोहा—
काल मोक्ष उपदेश का, मुनिगण श्लाघ्य महान।
मन वच तन से नित नमूं, मिले सिद्धि अमलान।।१।।
—नरेन्द्र छंद—
जय जय ऋषभदेव तीर्थंकर, जय जय श्री महावीरा।
जय जय जय चौबीस जिनेश्वर, जय जय मुनिगण धीरा।।
जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में, आर्यखण्ड छह भेदा।
अठरा कोड़ाकोड़ी सागर कुछ१ कम में पुरुदेवा।।२।।
इनने तीर्थ चलाया उसमें प्रथम अनंतवीरज जी२।
मुक्ति वधूवर हुये मुक्त का द्वार उघाड़ा इनही।।
तब से सुविधिनाथ होने तक मुक्तिमार्ग अविछिन्ना।
धर्मनाथ तक सात तीर्थ में कुछ कुछ हुआ विछिन्ना।।३।।
शांतिनाथ से महावीर तक तीर्थ विछेद रहित है।
मुनी आर्यिका श्रावक और श्राविका संघ सहित है।।
महावीर निर्वाण दिवस ही गौतम केवलज्ञानी।
गौतम सिद्ध हुये दिन सुधर्म मुनि थे केवलज्ञानी।।४।।
ये शिव गये जम्बूस्वामी, केवलज्ञानी उस दिन ही।
ये अनुबुद्ध केवली बासठ, दिन में हुये त्रयों ही।।
अंतिम केवलि श्रीधर मुनि कुंडलगिरि से शिव पायी।
अन्त सुपार्श्वचंद चारण ऋषि पुनि ये ऋद्धि न आयी।।५।।
प्रज्ञाश्रमण वङ्कायश अंतिम, अवधिज्ञानि श्रीनामा।
मुकुट धरों में चंद्रगुप्त मुनि अंतिम हैं सुखधामा।।
नंदी१ नंदिमित्र२ अपराजित३ गोवर्धन४ गुरुवर्ये।
भद्रबाहू५ ये पण२ श्रुतकेवलि सौ वर्षों में हूये।।६।।
मुनिविशाख१ प्रोष्ठिल२ क्षत्रिय३ जय४ नाग५ सिद्धारथ६ मुनि छह।
धृतीषेण७ सु विजय८ बुद्धिल९ गंगदेव१० सुधर्म११ ये ग्यारह।।
इक सौ त्र्यासी वर्ष मध्य ये दशपूर्वी मुनि माने।
दो सौ बीस वर्ष में ग्यारह अंग धारि गुरु माने।।७।।
वे नक्षत्र१ जयपाल२ पांडु३ ध्रुवसेन४ कंसमुनि५ जाने।
पुनि सुभद्र१ यशभद्र२ यशो-बाहु३ लोहार्य४ बखाने।।
आचारांग धारि ये इक ३सौ अठरह बरस सुमध्ये।
गौतम गुरु से लोहाचार्य तक छह सौ त्र्यासि बरस ये।।८।।
नंतर३ बीस हजार तीन सौ सत्रह वर्ष पर्यंते।
धर्म प्रवर्तन कारण यह श्रुत तीर्थ चले शिवपंथे।।
गुरु लोहार्य के कुछ दिन नंतर अर्हद्वलि यति हूये।
माघनंदि धरसेन पुष्पदंत भूतबली गुरु हूये।।९।।
गुरु धरसेन द्वितीय पूर्व के तनिक अंश के ज्ञानी।
उभय साधु को ज्ञानदान दे किया अक्षुण्ण जिनवाणी।।
उभय शिष्य ने षट्खंडागम सूत्र रचा श्रुत रुचि से।
श्रुतपंचमि तिथि पूज्य हुई उस श्रुत की पूर्ति निमित से।।१०।।
गुणधरयति ने कसायपाहुड़ रच उपकार किया है।
कुंदकुंद ने चौरासी पाहुड़ श्रुतसार दिया है।।
गुरु यतिवृषभ उमास्वामी मुनि समंतभद्र अकलंका।
वीरसेन जिनसेन ५अमृतशशि प्रभृति हुये श्रुतवंता।।११।।
गुरु संतति में चारित चक्री शांतिसागराचार्या।
पट्ट शिष्य गुरु वीरासागरा आदि अनेकाचार्या।।
इस विधि अविच्छिन्न मुनिस्रङ्१ में वीरांगज मुनि होंगे।
कल्की को कर२ प्रथम ग्रास दे अवधिज्ञानी होंगे।।१२।।
सर्वश्री आर्यिका अग्निदत श्रावक पंगुश्री महिला३।
चउविध संघ समाधी लेकर स्वर्ग लहेंगे पहला।।
असुरकुमार देव आकर यहँ कल्की को मारेंगे।
धर्म, नृपति, अग्नी, उस ही दिन तीनों नश जावेंगे।।१३।।
तीन वर्ष साढ़े अठ महीने बाद काल छट्ठा हो।
त्रेसठ सहस वर्ष नंतर पुनि मोक्षमार्ग अच्छा हो।।
उत्सर्पिणि के प्रथम तीर्थकर महापद्म प्रभु होंगे।
उनको शतशत नमन हमारा शिवपथ दर्शक होंगे।।१४।।
जय जय तीर्थकाल की जय हो, जैन धर्म की जय हो।
जय जय केवलि, श्रुतकेवलि की, सब मुनिगण की जय हो।।
जय जय सर्व आर्यिका की जय, जिनशासन की जय हो ।
‘ज्ञानमती’ वैâवल्य मिले, जिन मोक्षमार्ग की जय हो।।१५।।