—गीता छंद—
चौबीस तीर्थंकर जगत में, सर्व का मंगल करें।
गणधर गुरूगुण ऋद्धिधर, नित सर्व मंगल विस्तरें।।
गुणरत्न चौंसठ ऋद्धियाँ, मंगल करें निज सुख भरें।
मैं मन वचन तन से नमूँ, मेरे अमंगल दुख हरें।।१।।
—अडिल्ल छंद—
बुद्धि ऋद्धि के भेद अठारह जानिये।
पहली ऋद्धी ‘अवधिज्ञान’ है मानिये।।
अणु से महास्कंध पर्यंते मूर्त को।
जो जाने मैं नित वंदूं उस ऋद्धि को।।१।।
मनुज लोक के भीतर चिंतित वस्तु को।
आत्मा से उत्पन्न ‘मनपर्यय’ ज्ञान जो।।
जाने अतिशय सूक्ष्म मूर्तमय द्रव्य को।
वंदूँ मैं मनपर्ययज्ञान सु ऋद्धि को।।२।।
लोकालोक प्रकाशे ‘केवलज्ञान’ जो।
इक क्षण में त्रयकालिक वस्तु प्रत्यक्ष हो।।
ज्ञान ज्योतिमय केवल भास्कर को नमूं।
निज परमानंदामृत अनुभव को चखूँ।।३।।
शब्द संख्यातों अर्थ अनंतों से युते।
अनंत लिंगों साथ ‘बीजपद’ जानते।।
बीजभूत पद सब श्रुत का आधार है।
नमूँ बीज बुद्धी शिवपद करतार है।।४।।
शब्दरूप बीजों को मति से जो ग्रहें।
श्रेष्ठ धारणा युक्त मुनी वो ही कहें।।
मिश्रण बिन बुद्धी कोठे में जो धरें।
पृथक्-पृथक् सब अर्थ ‘कोष्ठ बुद्धी’ खरे।।५।।
गुरु उपदेश सु पाय एक पद को ग्रहे।
उसके ऊपर या पहले के पद लहे।।
उभय ग्रहे या त्रय विध ‘पदानुसारिणी’।
नमूँ ऋद्धि यह बुद्धि बढ़ावन कारिणी।।६।।
श्रोत्रेंद्रिय उत्कृष्ट क्षेत्र के बाहिरे।
संख्यातों योजन तक नर पशु सर्व के।।
अक्षर अनक्षरात्मक वच सुन उत्तरें।
‘संभिन्नश्रोतृ बुद्धी’ को वंदूँ रुचि धरें।।७।।
रसनेंद्रिय उत्कृष्ट क्षेत्र के बाह्य जो।
संख्यातों योजन नाना रस स्वाद को।।
जो जाने ‘दूरास्वादन ऋद्धी’ धरें।
इस ऋद्धी को नमूँ सर्व व्याधी हरें।।८।।
स्पर्शेन्द्रिय उत्कृष्ट क्षेत्र के बाह्य भी।
संख्यातों योजन स्पर्श सब जानहीं।।
तप बल ‘दूरस्पर्शऋद्धि’, प्रगट हो साधु के।
नमूँ भक्ति से मिले, ऋद्धियाँ ठाठ से।।९।।
घ्राणेन्द्रिय उत्कृष्ट क्षेत्र के बाह्य में।
संख्यातों योजन सुगंध को जानते।।
अधिक क्षयोपशम पाय ऋद्धि यह ऊपजे।
नमूँ दूरघ्राणत्व ऋद्धि गुण पूरते।।१०।।
कर्णेन्द्रिय उत्कृष्ट विषय के बाहिरे।
संख्यातों योजन मनुष्य पशु अक्षरे।।
पृथक् पृथक् सुन लेय ऋद्धिधर मुनिवरा।
नमूँ दूरश्रवणत्व ऋद्धि को रुचिधरा।।११।
नेत्रेन्द्रिय उत्कृष्ट क्षेत्र से बाह्य जो।
संख्यातों योजन सब कुछ भी देख वो।।
चक्रवर्ती के नेत्र विषय से अधिक भी।
‘‘दूरदर्शिता ऋद्धि’ नमूं रुचिधर अभी।।१२।।
—नरेन्द्र छंद—
रोहिणी प्रभृति महाविद्यायें, पाँच शतक मानी हैं।
लघु विद्या अंगुष्ठ प्रसेना प्रभृति सप्त शत ही हैं।।
दशम पूर्व पढ़ने पर ये विद्यायें आज्ञा मांगें।
वंदूँ ‘‘अभिन्नदशपूर्वी’’ जो इन वश में नहिं जाते।।१३।।
जो ऋषि सब आगम के ज्ञाता, श्रुतकेवलि कहलाते।
ग्यारह अंग चतुर्दश पूरब पढ़ यह ऋद्धी पाते।।
आगम ज्ञान पूर्ण होवे मुझ इस आशा से वंदूँ।
ऋद्धि चतुर्दशपूर्वी वंदत सर्वभयों को खंडूँ।।१४।।
अभ्र१ भौम अंग स्वरव्यंजन लक्षण चिन्ह स्वपन२ हों।
आठ निमित्तों से जाने शुभ अशुभ बताते मुनि जो।।
वे ‘अष्टांग महानिमित्त’ की ऋद्धि धरें बहु ज्ञानी।
इस ऋद्धी को वंदत ही मैं बनूँ सर्व सुखदानी।।१५।।
जो महर्षि अध्ययन बिना उत्कृष्ट क्षयोपशम से ही।
चौदह पूर्व विषय अति सूक्षम जाने निरूपते भी।।
औत्पत्तिक परिणामिक विनयिक कही कर्मजा बुद्धी।
चार भेदयुत नमूँ इसे यह ‘प्रज्ञाश्रमण सु ऋद्धी’।।१६।।
गुरु उपदेश बिना कर्मों के, उपशम से तप बल से।
जो ‘प्रत्येक बुद्धि ऋद्धी’ है, ऋषियों के ही प्रगटे।।
सम्यग्ज्ञान महातप मुझको मिले इसी से वंदूँ।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग के सर्व दुखों से छूटूँ।।१७।।
सब परमत को सुरपति को भी जो कर सकें निरुत्तर।
पर के द्रव्य गुणादि परीक्षा पर के छिद्र लखें भर।।
वाद कुशल इन मुनि चरणों में शत शत शीश नमाऊँ।
इस वादित्व बुद्धि ऋद्धी को नमते ज्ञान उपाऊँ।।१८।।
—रोला—
अणु बराबर छिद्र, में जो ऋषि घुस जावें।
चक्रवर्ति का कटक, क्षण में पूर्ण बनावें।।
उनके ‘‘अणिमा ऋद्धि’’, धरें विक्रिया भारी।
वंदूँ शीश नमाय, बनूँ जगत् हितकारी।।१९।।
मेरु बराबर देह, विक्रिय से जो करते।
‘‘महिमा ऋद्धि’’ समेत, तप बल से ही बनते।।
विक्रिय ऋद्धि माहात्म्य, सब जन को उपकारी।
वंदूँ शीश नमाय, बनूँ जगत् हितकारी।।२०।।
वायू से भी अधिक, हल्की देह बनावें।
‘‘लघिमा ऋद्धि’’ विशिष्ट, मुनिवर के गुण गावें।।
विक्रिय ऋद्धि माहात्म्य, सब जन को उपकारी।
वंदूँ शीश नमाय, बनूँ जगत् हितकारी।।२१।।
अधिक भारयुत वङ्का-सदृश देह धरें जो।
‘‘गरिमा ऋद्धि’’ धरंत, तप अतिशायि करें जो।।
विक्रिय ऋद्धि माहात्म्य, सब जन को उपकारी।
वंदूँ शीश नमाय, बनूँ जगत् हितकारी।।२२।।
भूमी पर ही रहें, सूर्य चंद्र छू लेते।
अंगुलि से ही साधु, मेरु शिखर छू लेते।।
‘‘प्राप्ति ऋद्धि विक्रिया’’, सब जन को उपकारी।
वंदूँ शीश नमाय, बनूँ जगत् हितकारी।।२३।।
भू पर ही जल सदृश, उन्मज्जन कर सकते।
जल में भी भू सदृश, सरल गमन कर सकते।।
ह्म‘विक्रिय ऋद्धि प्राकाम्य’’, सब जन को उपकारी।
वंदूँ शीश नमाय, बनूँ जगत् हितकारी।।२४।।
जग में बढ़े प्रभुत्व, यह ‘‘ईशत्व’’ कहावे।
सब जन करें प्रशंस, यह अतिशय बन आवे।।
विक्रिय ऋद्धि माहात्म्य, सब जन को उपकारी।
वंदूँ शीश नमाय, बनूँ जगत् हितकारी।।२५।।
सब जन वश में होंय, सब गुरु के गुण गाते।
‘‘ऋद्धि वशित्व’’ समेत, नमत सभी दुख जाते।।
विक्रिय ऋद्धि माहात्म्य, सब जन को उपकारी।
वंदूँ शीश नमाय, बनूँ जगत् हितकारी।।२६।।
जिसके बल से शैल, शिला आदि के मधि से।
वृक्ष आदि में छेद, किये बिना ही चलते।।
‘‘विक्रिय अप्रतिघात, ऋद्धि’’ जगत उपकारी।
वंदूँ शीश नमाय, बनूँ जगत् हितकारी।।२७।।
जिस ऋद्धि से साधु, हों अदृश्य नहिं दिखते।
‘‘ऋद्धी अन्तर्धान’’, तप बल से ही उपजे।।
विक्रिय ऋद्धि माहात्म्य, सब जन को उपकारी।
वंदूँ शीश नमाय, बनूँ जगत् हितकारी।।२८।।
एकहि साथ अनेक-रूप बना सकते जो।
‘‘कामरूप’’ यह ऋद्धि, तप बल से प्रगटे जो।।
विक्रिय ऋद्धि माहात्म्य, सब जन को उपकारी।
वंदूँ शीश नमाय, बनूँ जगत् हितकारी।।२९।।
—गीता छंद—
जिस ऋद्धि बल से मुनिवरा, आकाश में भी चल रहे।
बैठे लगा आसन चलें, या कायोत्सर्ग से चल रहें।।
इस ‘‘नभस्तलगामित्व ऋद्धी’’, को नमूँ नित भाव से।
सब रोग शोक दरिद्र संकट, दूर हों गुरु छांव से।।३०।।
जल में चलें जलकाय जन्तू, घात नहिं होवे वहाँ।
यह ऋद्धि अतिशय दयाधारी, मुनी पा सकते यहाँ।।
इस ‘‘नीरचारण क्रिया ऋद्धी’’, को नमूँ नित भाव से।
सब रोग शोक दरिद्र संकट, दूर हों गुरु छाँव से।।३१।।
जो चार अंगुल भूमि तजकर, अधर ही नभ में चलें।
घुटने बिना मोड़े खड़े ही, ऋद्धि के बल से चलें।।
इस ‘‘ऋद्धि जंघाचारणी’’ को, मैं नमूँ नित भाव से।
सब रोग शोक दरिद्र संकट, दूर हों गुरु छाँव से।।३२।।
वन के फलों पर पुष्प पत्तों, पर चरण धर के चलें।
इस ऋद्धि से नहिं जीव को, पीड़ा कभी हो सुख भले।।
‘‘फलपुष्प पत्र सु चारिणी, ऋद्धी’’ नमूँ नित भाव से।
सब रोग शोक दरिद्र संकट, दूर हों गुरु छाँव से।।३३।।
अग्नी शिखा पर चलें बाधा, जीव को नहिं रंच हो।
जो धुयें का अवलंब कर, अस्खलित पग चलते अहो।।
यह ‘‘अग्निधूम सुचारणी, ऋद्धी’’ नमूँ नित भाव से।
सब रोग शोक दरिद्र संकट, दूर हों गुरु छाँव से।।३४।।
जो मेघ पर भी चलें, अप्कायिक दया से पूर्ण हैं।
बहु मेघ जलधारा बरसती, पर चले व्रत पूर्ण हैं।।
यह ‘‘मेघधाराचारणी, ऋद्धी’’ नमूँ नित भाव से।
सब रोग शोक दरिद्र संकट, दूर हों गुरु छाँव से।।३५।।
जो मकड़ियों के तंतु पर, अत्यंत हल्के पग रखें।
अति शीघ्र कर जावें गमन, बाधा न हो कुछ जंतु के।।
इस ‘‘तंतुचारण ऋद्धि’’ को, मैं भी नमूँ नित भाव से।
सब रोग शोक दरिद्र संकट, दूर हों गुरु छाँव से।।३६।।
जो सूर्य चंद्र सुतारका, नक्षत्र ग्रह की किरण का।
अवलंब लेकर गमन करते, बहुत योजन भी सदा।।
यह ‘‘ऋद्धि ज्योतिषचारिणी’’, मैं नित्य वंदूँ भाव से।
सब रोग शोक दरिद्र संकट, दूर हों गुरु छाँव से।।३७।।
जिस ऋद्धि से मुनि वायु पंक्ती, के सहारे चल सकें।
अस्खलित पद विक्षेप करते, बहुत कोशों चल सकें।।
यह ‘‘ऋद्धि वायूचारणी’’, मैं नित्य वंदूँ भाव से।
सब रोग शोक दरिद्र संकट, दूर हों गुरु छाँव से।।३८।।
—शंभु छंद—
तप ऋद्धी के हैं सात भेद, उनमें हि उग्र तप पहला है।
दीक्षा उपवास आदि करके, मरणांत काल तक चलता है।।
एकेक उपवास अधिक करते, जीवन भर बढ़ता तप करते।
उस ‘‘उग्र तपस्या ऋद्धी’’ को, हम वंदत ऋद्धि सिद्धि वरते।।३९।।
बेला आदिक उपवास करें, जब ऋद्धि दीप्त तप हो जाती।
आहार न हो बल तेज बढ़ें, नहिं होती उन्हें भूख व्याधी।।
यह इस ऋद्धी का ही प्रभाव, तनु में बल मांस रुधिर वृद्धी।
मैं वंदूं ‘‘दीप्ततप:ऋद्धी’’, इससे दिन पर दिन हो दीप्ती।।४०।।
जिस ऋद्धी से आहार ग्रहें, वह तपे लोह पर जल सदृश।
नीहार न हो मलमूत्र शुक्र, आदिक धातू नहिं बने विविध।।
बस शक्ति बढ़े तप बढ़े सदा, यह ‘‘तप्ततप: ऋद्धी’’ शुभ है।
इसको वंदूं तप शक्ति बढ़े, यह कर्म समुद्र सुखाती है।।४१।।
जो अणिमादिक चारण आदिक, बहुती ऋद्धी से युक्त रहें।
मंदरपंक्ती सिंहनिष्क्रीडित, आदिक उत्तम उपवास गहें।।
वो चार ज्ञानधारी ऋषिगण, ही ‘‘महातपो ऋद्धी’’ धारें।
इसको वंदे हम इस बल से, नाना विध तप में मन धारें।।४२।।
अनशन आदिक बारह विध के, तप उग्र उग्र जो करते हैं।
बहुहिंस्र जंतु से भरे वनों में, विचरें तनु से दुख सहते हैं।।
ज्वर से पीड़ित होकर भी जो, आतापनादि तप धारे हैं।
वे ‘‘घोर तपो ऋद्धी’’ धारी, उन वंदत हम भव पारे हैं।।४३।।
मुनि ‘‘घोर पराक्रम ऋद्धी’’ से, अतिशायी शक्ती पाते हैं।
त्रिभुवन संहार करण जलधी-शोषण में समरथ होते हैं।।
यद्यपि ये कार्य नहीं करते, फिर भी बहुती सामर्थ्य धरें।
तप बल से ऐसी ऋद्धि हुई, इसको वंदत हम ताप हरें।।४४।।
जो अघोर यानी पूर्ण शांत, महाव्रत समिती गुप्ती पालें।
वे व्रतमय ब्रह्मा से चरते, अघोर ब्रह्मचर्या पालें।।
इनसे दुर्भिक्ष कलह वध रोग, वैर आदिक टल जाते हैं।
‘‘तप ऋद्धि अघोरब्रह्मचारी’’, को नमत ब्रह्मपद पाते हैं।।४५।।
—चौपाई—
बल ऋद्धी के तीन प्रकारा, ‘‘मनबल ऋद्धि’’ मनोबल धारा।
दोय घड़ी में सब श्रुत चिंते, उन वंदत मनबल को सिंचे।।४६।।
हीन कंठ नहिं श्रम नहिं होवे, सब श्रुत उच्चारण कर लेवें।
यही ‘‘वचन बल ऋद्धि’’ विशेषा, नमत मिले वच सिद्धि हमेशा।।४७।।
कायोत्सर्ग करें बहु भेदा, त्रिभुवन उठा सकें बिन खेदा।
‘‘कायबली’’ अतिशायी ऋद्धी, वंदत हो मुझ शक्ति समृद्धी।।४८।।
—पद्धड़ी छंद—
औषधि ऋद्धी के आठ भेद, ‘‘आमर्शौषधि’’ यह ऋद्धि एक।
जिन तनुस्पर्श से हो निरोग, यह ऋद्धि नमूँ सब हरे शोक।।४९।।
जिनके कफ थूक व लार आदि, तप बल औषधि हों हरे व्याधि।
‘‘खेलौषधिऋद्धि’’ नमूं महान, जिससे तनु होता सुख निधान।।५०।।
तनु स्वेद जल्ल तनुमल कहाय, तपबल से औषधरूप थाय।
सब रोग हरें भक्ती करंत, ‘‘जल्लौषधि’’ वंदत रोग अंत।।५१।।
जिनके जिह्वा कर्णादि मैल, सब रोग हरें हो सौख्य मेल।
यह ‘‘ऋद्धि मलौषधि’’ जो धरंत, उन वंदत हम भवदधि तरंत।।५२।।
जिस ऋद्धी से मलमूत्र आदि, भक्तों की हरते सकल व्याधि।
‘‘ऋद्धीविप्रुषऔषधि’’ नमंत, वे सर्व ऋद्धि के बने कंत।।५३।।
जिनसे स्पर्शित नीर वायु, सब रोग हरें करते चिरायु।
यह ‘‘सर्वौषधि ऋद्धी’’ महान, मैं नमूँ यही है सौख्य खान।।५४।।
जिससे कटु या विष व्याप्त अन्न, बस वचन मात्र से निर्विषान्न।
मुनि वच सुनते नर व्याधि मुक्त, ‘‘मुखनिर्विष ऋद्धी’’ नमूँ शुद्ध।।५५।।
जो रोग विषादि समेत जीव, अवलोकन से हों स्वस्थ जीव।
‘‘दृष्टीनिर्विष ऋद्धी’’ महात्म्य, मैं नमूँ मिले निज सौख्य साम्य।।५६।।
—स्रग्विणी छंद—
ऋद्धि रस के छहों भेद में एक है।
‘‘ऋद्धि आशीविषा’’ बस ‘मरो’ ये कहे।।
वो मरे शीघ्र ही ऋद्धि ये दु:खदा।
ना प्रयोगें इसे साधु वंदूँ सदा।।५७।।
‘‘दृष्टिविष ऋद्धि’’ से रोष से देखते।
जन मरें शीघ्र ही साधु के कोप से।।
ना प्रयोगें इसे साधु करुणा धरें।
मैं नमूं ऋद्धि यह शक्ति तप की भरें।।५८।
हस्ततल पे रखा रुक्ष आहार भी।
क्षीरवत् परिणमें ऋद्धि बल से सभी।।
उन वचन भी सदा क्षीरवत् गुण भरें।
‘‘क्षीरस्रावी’’ नमें ऋद्धि पुष्टी धरें।।५९।।
हस्त तल में रखे रुक्ष भोज्यादि को।
मिष्ट मधुवत् करे ‘‘ऋद्धि मधुस्रावि’’ जो।।
उन वचो भी मधुर मिष्ट शीतल करें।
मैं नमूँ ऋद्धि से सर्व सुख को भरें।।६०।।
अमृतास्रावि विष वस्तु अमृत करें।
उन वचन दु:ख हर कर्ण अमृत भरें।।
‘‘अमृतास्रावि ऋद्धी’’ नमूँ भक्ति से।
स्वात्म अमृत पिऊं आपकी भक्ति से।।६१।।
हस्त तल में रखा रुक्ष भोज्यादि भी।
घी सदृश परिणमें ऋद्धि बल से सभी।।
दिव्य वच भी सदा पुष्टि तुष्टी करें।
मैं नमूँ ‘‘सर्पिस्रावी’’ सुऋद्धी धरें।।६२।।
—भुजंगप्रयात छंद—
कहे ऋद्धि अक्षीण के भेद दो हैं।
मुनी लेंय आहार जिस गेह में हैं।।
भले चक्रवर्ती कटक जीम लेवे।
नमूँ ‘‘ऋद्धि अक्षीण’’ नहिं अन्न छीवे।।६३।।
धनुष चार ही हो चतुष्कोण भूमी।
असंख्ये दिविज नर पशू बैठते भी।।
सु ‘‘अक्षीण आलय’’ महा ऋद्धि ध्याऊं।
मिले शक्ति ऐसी सभी ऋद्धि पाऊं।।६४।।
चौंसठ ऋद्धि वंदना
—दोहा—
यथाजात मुद्रा धरें, ऋद्धि उन्हीं के होय।
जिनमुद्रा की शक्ति हो, नमूं नमूं नत होय।।१।।
—स्रग्विणी छंद—
धन्य हैं धन्य हैं धन्य हैं ऋद्धियाँ।
वंदते ही फलें ये सभी सिद्धियाँ।।
मैं नमूं मैं नमूूं सर्व ऋद्धीधरा।
ऋद्धियों को नमूं मैं नमूं गणधरा।।२।।
बुद्धि ऋद्धी कही हैं अठारा विधा।
विक्रिया ऋद्धियाँ हैं सुग्यारा विधा।।
है क्रियाचारणा ऋद्धि नौ भेद में।
ऋद्धि तप सात विध दीप्त तप आदि में।।३।।
ऋद्धि बल तीन विध शक्ति वर्धन करें।
औषधी आठ विध स्वास्थ्य वर्धन करें।।
ऋद्धि रस षट्विधा क्षीर अमृत स्रवे।
ऋद्धि अक्षीण दो भेद अक्षय धरें।।४।।
आठ विध ये महा ऋद्धि चौंसठ विधा।
भेद संख्यात होते सु अंतर्गता।।
बुद्धि ऋद्धी नमें बुद्धि अतिशय धरें।
विक्रिया वंदते विक्रिया बहु करें।।५।।
चारणी ऋद्धी आकाशगामी करे।
पुष्प जल पर चलें जीव भी ना मरें।।
दीप्ततप आदि ऋद्धी धरें जो मुनी।
कांति आहार बिन भी रहे उन घनी।।६।।
तप्ततप से कभी भी न नीहार हो।
शक्ति ऐसी जगत् सौख्य करतार जो।।
क्षीरस्रावी मधुस्रावी अमृतस्रवी।
इन वचो भी बने क्षीर अमृतस्रवी।।७।।
औषधी ऋद्धि से रुग्ण नीरोग हों।
साधु तनवायु से विषरहित स्वस्थ हों।।
ऋद्धि अक्षीण से अन्न अक्षय करें।
वंदते साधु को पुण्य अक्षय भरें।।८।।
—दोहा—
ऋद्धि ऋद्धिधर साधुगण, नमत मिले सब ऋद्धि।
रत्नत्रययुत ‘ज्ञानमति’, होते ही सब सिद्धि।।९।।