-गणिनी ज्ञानमती
भगवान धर्मनाथ तीर्थंकर परम्परा में पंद्रहवें तीर्थंकर हैं। इन्हें निर्वाण प्राप्त करके वर्तमान वीर नि. सं. २५४९ से तीन सागर ६५८६५४८ वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। जो कि जैन गणित के अनुसार संख्या से परे-असंख्यातों वर्ष हो जाते हैं। चूँकि यह चतुर्थकाल ४२ हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर का माना गया है।भगवान के गर्भ में आने के छह माह पहले से ही यहाँ पंद्रह माह तक कुबेर ने रत्नों की वर्षा की है। यहीं पर भगवान को केवलज्ञान होने से आकाश में अधर समवसरण की रचना भी बनी है। भगवान के चारों कल्याणक इन्द्रों ने असंख्य देवों के साथ यहीं पर मनाये हैं।भगवान धर्मनाथ ने यहीं पर राज्य शासन भी किया है। उनका परिचय इसी पुस्तक में संक्षेप में दिया गया है।यहाँ से संबंधित मनोवती सती की दर्शन प्रतिज्ञा की कथा भी बहुत प्रसिद्ध है। यहीं पर सती मनोवती के प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के लिए देवों ने तलघर में जैन मंदिर बना दिया था। यह कथा भी संक्षेप में इसी पुस्तक में दी गई है। विस्तार से मैंने ‘दर्शन कथा’ पुस्तक के आधार से उपन्यास की शैली में लिखी थी, जो कि ‘प्रतिज्ञा’ नाम से पुस्तक छपी है। उसे भी आप सभी पाठकों को अवश्य ही पढ़ना चाहिए।
इस रत्नपुरी के ‘नौराही’ एवं ‘रौनाही’ ये दो नाम भी वर्तमान में प्रचलित हैं। बड़े बुजुर्गों के मुख से मैंने सुना है कि-
नव लाख वर्ष पूर्व श्री रामचंद्र जब सीता और लक्ष्मण के साथ वन की ओर जाने के लिए ‘अयोध्या’ से निकले हैं। तब प्रजा के बहुत से लोग रोते-रोते उनके पीछे-पीछे यहाँ तक आ गये थे। रात्रि में श्रीराम ने सभी से विश्राम करने के लिए यहीं पर ‘सरयू’ नदी के किनारे सुला दिया और आप स्वयं सीता व लक्ष्मण को साथ लेकर नौका में बैठकर नदी के उस पार पहुँच गये। अत: इसका तभी से ‘नौराही’ यह नाम भी प्रचलित हुआ है तथा प्रात:श्री राम को न पाकर प्रजा के लोग बहुत ही रोये थे, अत: इसी का ‘रौनाही’ यह नाम भी सिद्ध हुआ है।जो भी हो शास्त्रीय भाषा में तो इसका ‘रत्नपुरी’ नाम ही आता है। ऐसी तीर्थंकर की जन्मभूमि सदा ही पूज्य एवं वंद्य है।जब यहाँ ईसवी सन् १९५० में भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति ने वेदी बनवाकर भगवान को विराजमान करने की बोली करायी थी, तभी मेरे गार्हस्थ्य जीवन के पिता लाला छोटेलाल जी ने वह बोली ली थी। कुमारी कन्या के-मेरे हाथ वेदी का परदा खुलवाया गया। मैंने जैसे ही परदे को खोला
‘वेदी में एक दिव्य प्रकाश दिखा और वह प्रकाश बाहर तक पूरे मंदिर में फैल गया’। मैंने कहा था-
‘‘ये धर्मनाथ भगवान चमत्कारिक हैं’’
एवं समाज के लोगों ने तथा भट्टारक जी ने कहा था-कि यह मैना बालिका कोई देवी का रूप है आदि। जय-जयकारों से मंदिर एवं बाहर का परिसर भी गूँज उठा था। वह दृश्य आज भी रत्नपुरी में आते ही अथवा इस तीर्थ का स्मरण करते ही हमारी दृष्टि में आ जाता है।ऐसी जन्मभूमि अयोध्या, रत्नपुरी, हस्तिनापुरी आदि को नमन करते हुए तीर्थंकर भगवन्तों को अनंत-अनंतबार नमस्कार होवे।
धर्मनाथ को नमन कर, रत्नपुरी को वंद्य।
नमूँ अनंतों बार मैं, पाऊँ सुख अभिनंद्य।।