तृतीय काल के अंत समय में यहाँ भूमि पर भोगभूमि की व्यवस्था थी। दश प्रकार के कल्पवृक्षों से सभी प्रकार के भोजन, वस्त्र आदि प्राप्त होते थे। १. पानांग, २. तूर्यांग, ३. भूषणांग, ४. वस्त्रांग, ५. भोजनांग, ६. आलयांग, ७. दीपांग, ८. भाजनांग, ९. मालांग और १०. ज्योतिरंग। ये कल्पवृक्ष अपने-अपने नाम के अनुसार फल प्रदान करते रहते थे।जब भोगभूमि समाप्त हो रही थी, कल्पवृक्षों ने फल देना बंद कर दिया, तभी प्रजा भूख, प्यास आदि से व्याकुल हुई महाराजा नाभिराय के पास आई। महाराजा नाभिराज ने उन्हें श्री ऋषभदेव के पास भेज दिया।श्री ऋषभदेव ने प्रजा की व्यथा सुनकर उसी क्षण ‘इंद्र’ का स्मरण किया।इन्द्र ने आकर प्रभु से सर्व जानकर उनकी आज्ञा से शुभ मुहूर्त में मांगलिक कार्य करके अयोध्यापुरी के बीच में सर्वप्रथम जिनमंदिर की रचना करके, चारों दिशाओं में भी चार मंदिर बनाकर कौशल आदि महादेश एवं अयोध्या आदि नागरियों की ऐसे लगभग बावन देशों की, नगरों की, ग्राम, खेट, कर्वट आदि की रचना करके प्रजा को यथास्थान बसाकर चला गया।