भगवान ऋषभदेव ने इन सभी पुत्रों-पुत्रियों को इंद्रच्छंदहार आदि अनेक आभूषणों से अलंकृत किया था।
किसी समय भगवान ने ब्राह्मी-सुन्दरी दोनों पुत्रियों को अपने दायीं-बायीं ओर बिठाकर ब्राह्मी को अ, आ….. आदि अक्षर विद्या एवं सुंदरी को १, २, ३, ४ आदि गणित विद्या पढ़ाकर इसी अयोध्या नगरी में युग की आदि में सर्वप्रथम ‘विद्याओं’ को जन्म दिया। पुनश्च सभी पुत्रों को भी सम्पूर्ण विद्याओं और कलाओं में निष्णात कर दिया।
उस समय प्रभु ने सम्पूर्ण कलाओं को एवं सम्पूर्ण विद्याओं को अपने पुत्रों-पुत्रियों को पढ़ाकर, सिखाकर इसी अयोध्या की भूमि में सम्पूर्ण विद्या एवं कला को प्रगट किया था।
अनंतर प्रभु ऋषभदेव ने प्रजा को असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प ऐसी छह क्रियाओं का उपदेश दिया। प्रभु ने कहा-
अब कर्मभूमि आ गई है, तुम्हें अपने-अपने योग्य क्रियाओं को करके जीवन यापन करना है-
१. असि-शस्त्र धारण कर प्रजा की रक्षा करना, २. मषि-लेखन क्रिया करना, ३. कृषि-खेती करके धान्य उत्पन्न करना, ४. विद्या-पढ़ना, पढ़ाना आदि, ५. वाणिज्य-व्यापार करना, ६. शिल्प-मकान आदि का निर्माण करना।पुन: प्रभु ने अपने अवधिज्ञान से विदेह क्षेत्र की व्यवस्था ज्ञातकर क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ऐसे तीन वर्ण भी उन-उन प्रजा की योग्यता के अनुसार स्थापित कर दिये। उस समय प्रभु सरागी थे, वीतरागी नहीं थे।कृतकृत्य भगवान ने आषाढ़ कृष्ण प्रतिपदा के दिन ‘कृतयुग’ को प्रारंभ करके युगस्रष्टा, आदिब्रह्मा, विधाता आदि नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुए थे।