किसी समय भगवान विरक्तमना हुए। सभी पुत्रों को यथायोग्य देशों का राज्य देकर तथा अयोध्या का राज्य भरत को देकर राज्याभिषेक कर दिया। पुन: लौकांतिक देवों ने आकर उनकी स्तुति की। भगवान ने जहाँ दीक्षा ली उसका नाम ‘प्रयाग’ हो गया।‘प्रकृष्टो वा कृतस्त्याग: प्रयागस्तेन कीर्तित:’ जहाँ प्रभु ने प्रकृष्ट त्याग करके केशलोंच करके दैगम्बरी दीक्षा धारण की, वह ‘प्रयाग’ कहलाया है।
भगवान को प्रथम आहार देने का सौभाग्य हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभ के भ्राता श्रेयांस को प्राप्त हुआ है। पुनश्च एक हजार वर्ष बाद प्रभु को प्रयाग में ही ‘वटवृक्ष’ के नीचे केवलज्ञान प्राप्त हुआ है। उस समय वहाँ दिव्य समवसरण की रचना बनी है।