चक्रवर्ती ने जब दिग्विजय यात्रा के लिए प्रस्थान किया है। उस समय उन्होंने अयोध्या में चारों तरफ रत्नों के ढेर लगाये हुए थे। बहुत से मुकुटबद्ध राजागण उन्हें घेरे हुए थे। पैदल चलने वाले सैनिक, घोड़े, रथ, हाथी आदि के समूह उस सेना में थे। सारी सेना में पताकाएं फहरा रही थीं।भरत महाराज के रथ और सेना के आगे-आगे ‘चक्ररत्न’ आकाश में चल रहा था, वह हजार देवों से घिरा हुआ था। दण्डरत्न को आगे कर ‘सेनापति’ सबसे आगे चल रहे थे।अयोध्या से बाहर निकलते समय सुवासिनी स्त्रियाँ भरत पर पुष्पांजलि छोड़ रही थीं। नगर निवासी आशीर्वाद वचन बोल रहे थे-
हे राजन्! आपकी जय हो, विजय हो, हे राजाधिराज! आपका दिग्विजय का प्रस्थान मंगलमयी हो….।
भरत महाराजा पूर्वदिशा की ओर से निकले थे। गंगा नदी के किनारे से जाते हुए पद्मसरोवर से निकली गंगा नदी के निकट पहुँचने पर गंगा देवी ने भरत का विशेष स्वागत किया था।सेनापति ने दण्डरत्न से विजयार्ध पर्वत की गुफा का द्वार खोल दिया था। उस गुफा के अंदर से सेना बाहर निकल गई थी।इस प्रकार दिग्विजय में सर्वत्र राजाओं ने आ-आकर स्वागत किया था एवं रत्न आदि भेंट अर्पण करते रहते थे।