जब चक्रवर्ती भरत क्षेत्र के छह खण्डों में से विजयार्ध पर्वत से बाहर तीन म्लेच्छ खण्डों में बीच के खंड में ‘वृषभाचल’ पर्वत के निकट पहुँचकर अपनी प्रशस्ति लिखने का ‘उपक्रम’ करते हैं-देखते हैं, पूरा पर्वत प्रशस्तियों से भरा हुआ है। तभी पुरोहित आदि के आग्रह से एक ‘प्रशस्ति’ को दण्डरत्न से मिटाकर चिंतन करते हैं-‘अहो! यह संसार सर्वथा स्वार्थ परायण है।’’ इस संसार में मेरे जैसे अनंतों चक्रवर्ती हो चुके हैं और आगे भी होते ही रहेंगे….। पुन:…..
‘‘मैं महाराजा नाभिराय का पौत्र, आदिब्रह्मा-प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का ज्येष्ठ पुत्र भरत छह खंडों को जीतकर इस युग में प्रथम चक्रवर्ती हूँ………मुझ भरत ने समस्त लक्ष्मी को नश्वर समझकर अपनी कीर्ति को इस पर्वत पर स्थापित किया है……।’’
जिस समय चक्रवर्ती प्रशस्ति लिख रहे थे। उस समय आकाश से देवगण पुष्पवर्षा कर रहे थे एवं देवगण नगाड़े आदि वाद्य ध्वनि कर रहे थे।दिग्विजय पूर्णकर वापस आते हुए चक्रवर्ती ने वैâलाशपर्वत पर विराजमान प्रभु ऋषभदेव के समवसरण में प्रवेश कर प्रभु की पूजा, भक्ति की है। अनंतर अयोध्या के लिए सेना सहित चले आ रहे हैं।