पुन: भरत महाराज कहते हैं-
‘‘हे द्विजों ! मैं अब उन कर्त्रन्वय क्रियाओं को कहता हूँ, जो कि अल्पसंसारी भव्य प्राणी के ही हो सकती हैं। इनके सात भेद हैं-
१. सज्जाति २. सद्गृहित्व ३. पारिव्राज्य ४. सुरेन्द्रता ५. साम्राज्य
६. आर्हन्त्य और ७. परनिर्वाण।
१. सज्जाति-यह पहली क्रिया किसी निकट भव्य को मनुष्य जन्म की प्राप्ति होने पर होती है। पिता के वंश की शुद्धि कुल है और माता के वंश की शुद्धि जाति है। कुल और जाति की विशुद्धि सज्जाति है। इसके प्राप्त होने पर बिना प्रयत्न के सहज ही प्राप्त हुए गुणों से रत्नत्रय की प्राप्ति सहज हो जाती है। यह सज्जाति ही इष्ट पदार्थों का मूल कारण है। यह उत्तम शरीर के जन्म से होती है। दूसरी सज्जाति संस्कार रूप जन्म से होती है। जिस प्रकार विशुद्ध खान में उत्पन्न हुआ रत्न संस्कार के योग से अत्यन्त उत्कर्ष को प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार क्रियाओं और मंत्रों से सुसंस्कार को प्राप्त हुआ आत्मा भी अत्यन्त उत्कर्ष को प्राप्त हो जाता है। यह भव्य सम्यग्ज्ञानरूपी गर्भ से संस्काररूपी जन्म लेकर उत्पन्न होता है और व्रत तथा शील से विभूषित होकर द्विज कहलाता है। सर्वज्ञ की आज्ञा से यह तीन लर का यज्ञोपवीतरूप द्रव्यसूत्र और सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप भावसूत्र को धारण करता है। यही श्रावक का पहचानरूप चिन्ह है, उस समय आचार्य लोग उसके ऊपर जिनपूजा के शेषाक्षत क्षेपण कर आशीर्वाद देते हैं। इस प्रकार सज्जाति उत्तम कुल-वंश में जन्म लेना यह आगे के छह स्थानों के लिए मूलकारण है।
२. सद्गृहित्व-सज्जाति परमस्थान को प्राप्त कर श्रावक अणुव्रत और पूजा-दान आदि छह क्रियाओं से सद्गृहस्थ कहलाता है। यह गृहस्थ स्वयं पूजन करता है और दूसरों से भी कराता है। जैन वेद आदि ग्रथों को पढ़ता है और शिष्यों को पढ़ाता है। सत्य, क्षमा, शौच, और दम आदि धर्माचरणों से अपने देवब्राह्मणत्व को स्थापित कर वह सर्वत्र पृथ्वी में पूज्य हो जाता है अथवा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ये तीनों उच्चवर्णी हैं, इनमें से सज्जाति स्थान वाला गृहस्थ व्रतों से सहित होकर सद्गृहस्थ बन जाता है।
यहाँ शंका यह होती है कि अषि, मषि, कृषि आदि छह कर्मों से आजीविका करने वाले जैन द्विज या गृहस्थ िंहसा के भागी तो होते ही हैं। इस शंका का आचार्य समाधान देते हैं-
आजीविका के लिए छह कर्म करने वाले जैन गृहस्थों के थोड़ी-सी हिंसा अवश्य होती है परन्तु शास्त्रों में उन दोषों की शुद्धि भी दिखलायी गई है, उनकी विशुद्धि के तीन अंग हैं-पक्ष, चर्या और साधन। उन तीनों में से मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावों को बढ़ाता हुआ, जो श्रावक समस्त हिंसा का (त्रस जीवों की संकल्पी िंहसा का) त्याग कर देता, यही जैनियों का ‘पक्ष’ कहलाता है। किसी देवता के लिए किसी मंत्र की सिद्धि के लिए अथवा किसी औषधि आदि के लिए मैं कभी भी किसी जीव की हिंसा नहीं करूँगा, ऐसी प्रतिज्ञा करना ‘चर्या’ है। इस चर्या में यदि किसी प्रकार से दोष लग जाये तो गुरु से प्रायश्चित्त लेकर उसकी शुद्धि कर लेना चाहिए। सर्व कुटुंब पुत्र को सौंपकर घर का परित्याग करना भी इस ‘चर्या’ में ही है। आयु के अंत में शरीर, आहार और समस्त चेष्टाओं को छोड़कर ध्यान की शुद्धि से जो आत्मा को शुद्ध करना है वह साधन है। अरहंतदेव के शासन में रत हुए श्रावकों का पक्ष, चर्या और साधन इन तीनों में हिंसा के साथ स्पर्श नहीं होता है।चार आश्रमों की शुद्धता भी अरहंत देव के मत में ही होती है-ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुक, जैनों के ये चार आश्रम हैं। इनके अंतर्भेद अनेक हैं, उनका विस्तार अन्य चारित्रसार आदि ग्रंथों से जान लेना चाहिए, यही श्रावक की ‘सद्गृहित्व’ क्रिया है।
३. पारिव्राज्य-घर से विरक्त हो जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करना पारिव्राज्य क्रिया है। पारिव्राट्-दिगम्बर मुनि का जो निर्वाण दीक्षा लेना है, वही पारिव्राज्य क्रिया या परमस्थान है। मोक्षार्थी भव्य निर्ग्रंथ दिगम्बर आचार्य के पास जब नग्न दीक्षा की याचना करता है तब गुरु उसके कुल-गोत्र की शुद्धि देखकर शुभ मुहूर्त में दीक्षा देते हैं। शुभ मुहूर्त की अपेक्षा न कर जो गुरु चाहे जब दीक्षा दे देते हैं, वे शास्त्रों में प्रायश्चित के भागी माने गये हैं।१ ‘ग्रहों का उपराग, सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण, सूर्य-चन्द्रमा परिवेश, इन्द्र धनुष का निकलना, दुष्ट ग्रहों का उदय, मेघों से आच्छादित आकाश का होना, नष्ट मास या अधिक मास, संक्रांति अथवा क्षय-तिथि में दीक्षा नहीं देनी चाहिए।’
४. सुरेन्द्रता क्रिया-पारिव्राज्य के फल से सुरेन्द्र पद की प्राप्ति होती है, यही परमस्थान भी कहलाता है।
५. साम्राज्य क्रिया-इसमें चक्ररत्न के साथ-साथ निधियों और रत्नों से उत्पन्न हुए भोगोपभोग रूपी सम्पदाओं का बहुत बड़ा वैभव प्राप्त होता है, यही साम्राज्य क्रिया है।
६. आर्हन्त्य क्रिया-अर्हंत भगवान् का भाव अथवा कर्मरूप जो उत्कृष्ट क्रिया है, वह आर्हन्त्य क्रिया है। इसमें स्वर्गावतार आदि पाँच कल्याणक होते हैं, उनमें भी समवसरण में दिव्यध्वनि का खिरना, असंख्य जीवों को लाभ मिलना प्रधान है। आर्हन्त्य अवस्था के प्रगट होने पर ही यह समवसरण बनता है यह क्रिया तीनों लोकों में आश्चर्य उत्पन्न करने वाले ऐसे तीर्थंकर पद के प्राप्त होने पर होती है।
७. परिनिर्वृति क्रिया-संसार के बंधन से निर्मुक्त हुए परमात्मा की जो अवस्था होती है, उसे परिनिर्वृति कहते हैं। इसका दूसरा नाम परिनिर्वाण भी है। समस्त कर्म मल के नष्ट हो जाने पर जो अन्तरात्मा की शुद्धि होती है, उसे सिद्धि कहते हैं। यह अपने आत्मतत्त्व की प्राप्ति रूप है इसमें आत्मा के अनंतगुण प्रगट हो जाते हैं और इस निर्वाण को प्राप्त कर लेने के बाद फिर कभी इस संंसार में अवतार नहीं होता है। यही सातवीं परिनिर्वाण क्रिया है।कोई भी भव्य पुरुष प्रथम ही योग्यजाति-सज्जाति को पाकर सद्गृहस्थ होता है फिर गुरु की आज्ञा से उत्कृष्ट पारिव्राज्य को प्राप्त कर स्वर्ग प्राप्त कर लेता है। वहाँ उसे इन्द्र का वैभव मिलता है। वहाँ से च्युत होकर चक्रवर्ती पद प्राप्त कर लेता है, अनंतर अरहंत पद को प्राप्त कर उत्कृष्ट महिमा का धारक होकर अंत में निर्वाण पद प्राप्त कर लेता है।