हवनक्रिया के प्रारंभ में अग्निकुण्ड तीन प्रकार के बनते हैं-चौकोन, गोल और त्रिकोन। इनमें चौकोर कुण्ड तीर्थंकर कुण्ड होता है।इन कुंडों में विधि के जानकार जैन, द्विज या श्रावक को रत्नत्रय का संकल्प पर अग्निकुमार देवों के इन्द्र के मुकुट से उत्पन्न तीन प्रकार की महाअग्नि को तीन कुंडों में स्थापित करना चाहिए। इन अग्नियों के गार्हपत्य, आह्वनीय और दक्षिणाग्नि ये नाम हैं। इन तीनों प्रकार की अग्नियों में मंत्रों द्वारा पूजा करने वाले पुरुष जैन, द्विज या श्रावकोत्तम कहलाते हैं, जिसके यहाँ इस प्रकार की पूजा नित्य होती है वह आहिताग्नि या अग्निहोत्री कहलाता है। नित्य पूजन करते समय इन तीनों प्रकार की अग्नियों का प्रयोग नैवेद्य के पकाने में, धूप खेने में और दीपक जलाने में किया जाता है अर्थात् गार्हपत्य अग्नि से नैवेद्य बनाया जाता है, आह्वनीय अग्नि में धूप खेई जाती है और दक्षिणाग्नि से दीपक जलाया जाता है। घर में बड़े प्रयत्न के साथ इन तीनों अग्नियों की रक्षा करनी चाहिए और जिनका कोई संस्कार नहीं हुआ है, ऐसे लोगों को कभी ये अग्नि नहीं देनी चाहिए।अग्नि में स्वयं पवित्रता नहीं है और न वह देवतारूप है किन्तु अरहंत भगवान् की दिव्यमूर्ति की पूजा के संबंध से वह अग्नि पवित्र हो जाती है, जिस प्रकार जिनेन्द्रदेव के संबंध से और उनके निर्वाण आदि से क्षेत्र, पर्वत आदि पूज्य हो जाते हैं, उन क्षेत्र आदि की पूजा करने में कोई दोष नहीं है।