तीर्थंकर ऋषभदेव राज्यसभा में सिंहासन पर विराजमान थे, उनके चित्त में विद्या और कला के उपदेश की भावना जाग्रत हो रही थी। इसी बीच में ब्राह्मी और सुंदरी दोनों कन्याओं ने आकर पिता को नमस्कार किया। पिता ने आशीर्वाद देते हुये बड़े प्यार से दोनों कन्याओं को अपनी गोद में बिठा लिया पुन: शिक्षा देते हुये बोले-
‘‘पुत्रियों ! तुम दोनों की यह अवस्था विद्या अध्ययन के योग्य है।’’पुन: भगवान ने अपने चित्त में ‘‘श्रुतदेवता को आदरपूर्वक सुवर्ण के विस्तृत पट्टे पर स्थापित करके ‘सिद्धं नम:’ मंत्र का पुत्रियों से उच्चारण कराया’। पुन: दाहिने ओर बैठी हुई ब्राह्मी पुत्री को ‘‘अ आ इ ई’’ आदि अक्षर लिखाये और बायीं ओर बैठी हुई सुंदरी पुत्री को १,२,३,४, आदि अंक विद्या पढ़ाई। श्री ऋषभदेव के द्वारा पुत्री ब्राह्मी को सर्वप्रथम अकार आदि जो विद्या सिखाई गई थी इसीलिये इसका ब्राह्मी लिपि यह नाम सार्थक हुआ है।
उस समय स्वयंभू ऋषभदेव ने सौ अध्यायों में निबद्ध व्याकरण शास्त्र पढ़ाया था। उक्ता, अत्युक्ता आदि छब्बीस भेदों सहित छंद शास्त्र पढ़ाये थे और उपमा, रूपक आदि भेदों से युक्त अलंकार शास्त्र भी सिखाये थे।‘श्री गणधर देव ने व्याकरण, छंद और अलंकार इन तीन विद्याओं को ‘वाङ्मय’ संज्ञा दी है।
कुछ ही दिनों में प्रभु ने दोनों पुत्रियों को संपूर्ण विद्याओं में पारंगत कर दिया कि जिससे वे सरस्वती देवी के अवतार के लिये पात्र बन गई थीं।
जगद्गुरु ऋषभदेव ने अपने भरत आदि एक सौ एक पुत्रों को भी संपूर्ण विद्याओं को सिखाकर शास्त्र एवं शस्त्र आदि कलाओं में निष्णात बना दिया था। अर्थशास्त्र, नृत्यशास्त्र, चित्रकला, मकान आदि बनाने की विद्या, कामनीति, आयुर्वेद, धनुर्वेद, रत्नपरीक्षा, घोड़े, हाथी आदि की परीक्षा, तंत्र शास्त्र आदि सर्व विद्याओं में पारंगत कर दिया था।इस प्रकार प्रभु ऋषभदेव ने युग के प्रारंभ में सर्वप्रथम यहीं अयोध्या नगरी में अपनी पुत्रियों को विद्या दान दिया था पुन: पुत्रों को पढ़ाया था, अत: यह स्थली विद्याओं के उद्भव का प्रथम स्थान है, वैसे ही कन्याओं को विद्या पढ़ाने का भी यह प्रथम स्थान है। प्रभु ने अपने पुत्रों को ‘यज्ञोपवीत’ देकर संस्कारों से संस्कारित किया था।